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November 13, 2024

जानिए चंपावत जिले के प्रमुख और दर्शनीय स्थल, टनकपुर का क्या था पहले नाम

उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में चंपावत जिला भी प्राकृतिक सुंदरता समेटे हुए है। यहां के मंदिरों और दर्शनीय स्थलों की कहानी भी पांडवकाल से जुड़ी हैं। साथ ही यहां देवीधुरा का बग्वाल मेला अपने में अलग पहचान लिए है। आइए यहां बताते हैं चंपावत के प्रमुख और दर्शनीय स्थलों के बारे में।
ध्यानीरौ
यह परगना पिथौरागढ़ मुख्यालय के पश्चिमी दिशा में है। इसमें मात्र दो पट्टियाँ थीं – तल्ली व मल्लीरौं। लधिया नदी इन्हीं पहाड़ों में से निकली है। तल्लीरौ के किमूखेत में ताँबे की खान है, और इसी पट्टी में मंगललेख नामक गाँव में लोहे की खान है। यहाँ का लोहा उत्तम माना जाता है। कायलकोट व केड़ाकोट नाम के दो किले
खण्डहर के रूप में आज भी विद्यमान हैं। मल्लीरौ में गुराना, बड़ेत गाँव तथा जोस्यूड़ा का कुछ भाग बाराही देवी को भेंट स्वरूप दिए गये हैं। यहाँ बोरा व कैरा जाति के निवासी अधिक हैं। इनकी वीरता के वृतान्त चंद राजाओं के समय
से प्रचलित है।
चौभैंसी
यह स्थान ध्यानीरौ से पश्चिम में छखाता से मिला हुआ था। इसके मध्य गौला नाम की नदी है। यहाँ सतलिया का डाँडा बहुत ठंडा है। सुरई के वृक्ष यहाँ बहुत होते हैं। चौभैंसी के अंत में मलुवा ताल है। अबटमंट स्थान में कुछ परिवार एंग्लो इण्डियन्स के अभी भी देखे जाते हैं। सन् 1913 में यह स्थान तत्कालीन कमिश्नर ने एंग्लो इण्डियन्स को बसने के लिए दे दिया था।
मायावती आश्रम
यह आश्रम स्वामी विवेकानन्द की ओर से स्थापित किया गया था। यह लोहाघाट से नौ किलोमीटर की दूरी दक्षिण-पश्चिम दिशा में स्थित है। 1896 में जब स्वामी विवेकानन्द स्विटजरलैण्ड की यात्रा पर थे तो उन्होंने हिमालय पर्वत के क्षेत्र में आश्रम खोलने की इच्छा जाहिर की। उन्हीं की इस इच्छा को कार्यान्वित करने के लिए उनके स्विस मित्र कैप्टन सेवियर और उनकी पत्नी ने प्रमुख योगदान देकर यहाँ आश्रम स्थापित किया। इस आश्रम की अन्य विशेषताओं के अतिरिक्त यहाँ से दो सौ पचास किलोमीटर लंबे हिमालय पर्वत के अलौकिक दर्शन होते हैं।
मां वाराहि देवी मंदिर देवीधुरा
यह प्राचीन मंदिर लोहाघाट से पचास किलोमीटर तथा अल्मोड़ा से 85 किलोमीटर दूर पश्चिम दिशा में स्थित है। कुमाऊँ के चन्द वंशीय राजाओं के काल में यहाँ वाराहि देवी को जाग्रत कर पूजा-अर्चना की जाती थी। यह प्राचीन मंदिर आज एक चट्टान की शक्ल में जीर्ण-शीर्ण अवस्था में विद्यमान है। इस मंदिर के भीतरी भाग में पीतल के बक्से में देवी की प्रतिमा विद्यमान है।

रक्षा-बंधन त्यौहार के दिन यहाँ सम्पूर्ण रात्रि को पूजा-अर्चना की जाती है। इसके बाद प्रात:काल बग्याल मेले का आयोजन किया जाता है। इस मेले का मुख्य आकर्षण दो पुरूष समूहों का एक दूसरे पर पत्थरों की बौछार करना होता है। पत्थरों से चोट खाये पुरुष कोई दवा आदि न कर उसी पवित्र स्थान की मिट्टी की घाव में लेप कर देते है। मान्यता है कि घाव की पीड़ाहरण तथा मरहम देवीधुरा की मिट्टी ही कर सकती है।
पूर्णागिरी
टनकपुर से बीस किलोमीटर की दूरी पर 10055 फीट ऊँचे पर्वत पर अन्नपूर्णा देवी का मंदिर है। प्रतिवर्ष पौष मास में यहाँ पर मेला लगता है। ऐसी मान्यता है कि माँ जगदम्या के दर्शन करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती है।
बनलेख
यह स्थान चंपावत मुख्यालय से सात किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहाँ मत्स्य पालन केन्द्र व चाय के बगीचे हैं। बनलेख के समीप ही छीड़ापानी सुन्दर फूलों की घाटी है।
मानेश्वर, यहां पांडवों ने पितरों का किया था श्राद्ध
यह चंपावत एवं लोहाघाट के मध्य में स्थित है। पौराणिक कथा के अनुसार हिमालय भ्रमण के समय पाण्डवों ने यहाँ अपने पितरों का श्राद्ध किया था। आद्धकर्म के दौरान जब जल का अभाव दिखाई दिया तो उनके पुरोहित ने अर्जुन को आदेश दिया कि अपनी दिव्य शक्ति से मानसरोवर का स्मरण कर बाण चलाऐं, जल स्वयं ही निकल आयेगा। अर्जुन के ऐसा करने पर जल की धारा फूट पड़ी। तब से इस स्थल का नाम मानेश्वर पड़ा। वहाँ पर मंदिर और बावड़ी भी है।


रीठा साहिब
लोहाघाट से 66 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह सिखों का तीर्थ स्थल है। ऐसी मान्यता है कि यहाँ पर गुरू नानक देव आये थे। वे एक रीठे के वृक्ष के नीचे ध्यानमग्न बैठे थे। ध्यानवस्था टूटने पर उन्हें भूख की अनुभूति हुई तो उन्होंने पेड़ की ओर देखा। पेड़ रीठों से भरा था। गुरू नानक देव ने रीठे के पेड़ की डाल से रीठा तोड़ कर खाया। अब भी इस स्थान के रीठे खाने में मीठे होते हैं। वर्तमान में यहाँ एक दर्शनीय गुरूद्वारा व लोक निर्माण विभाग की ओर से निर्मित निरीक्षण भवन भी हैं।


लोहाघाट
चंपावत जिले का यह प्रमुख नगर है। यह स्थानीय वस्तुओं का व्यापारिक मंडी है। यहाँ से चारों दिशाओं में मोटर मार्ग का जाल बिछा हुआ है। इसके चारों ओर रमणीक एवं धार्मिक स्थल हैं। इस नगर के चरणों में लोहावती नदी बहती है। नगर में प्रवेश करने से पूर्व ऋषेश्वर (शिव) के दर्शन होते हैं। कैलाश यात्रा करने वालों को ऋषेश्वर के दर्शन करने के उपरान्त मानसरोवर के दर्शन करने का महात्म्य शास्त्रों में बताया गया है। इसलिए प्राचीन काल में मानसरोवर यात्रा का मार्ग टनकपुर से ही था। उस समय यात्री पैदल ही जाया करते थे तथा टनकपुर से मानसरोवर
आने-जाने में दो माह का समय लगता था।
उषाकोट
लोहाघाट से तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसे यहाँ की प्रचलित भाषा में ऊखाकोट’ कहते हैं। यहाँ वाणासुर की पत्नी उषा का किला था। उषाकोट से विसुंग घाटी की दृश्यावली देखते ही बनती है।
झूमा
लोहाघाट से चार किलोमीटर की दूरी पर झूमादेवी का मंदिर है। इस पहाड़ी की ऊँचाई समुद्रतट से सात हजार फीट है। इस पहाड़ से चारों ओर का दृश्य दिखायी देता है।
बानकोट
यह बाराकोट से दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहाँ पर वाणासुर का किला भी था । यहाँ से नेपाल एवं अल्मोड़ा जनपद से लगी पर्वत श्रृंखलाओं एवं पर्वतीय क्षेत्र में बसे गाँवों के भव्य दर्शन किये जा सकते हैं।
रामेश्वर
यह स्थान पिथौरागढ़ से 35 किलोमीटर तथा घाट से पांच किलोमीटर की दूरी पर अल्मोड़ा मोटर मार्ग पर स्थित है। सरयू और रामगंगा का संगम होने के कारण महान तीर्थ कहलाता है।


टनकपुर का पहले नाम था ग्रास्टीनगंज
चंपावत से 75 किलोमीटर तथा लोहाघाट से 13 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहाँ शारदा नदी पर बाँध बनाकर विद्युत शक्ति उत्पन्न की जाती है जो ग्यारह जिलों को वितरित होती है। शारदा नदी (सरयू) के किनारे स्थित
व्यवसायिक केन्द्र है। यहाँ एक पुराना विशाल पाताल तोड़ कुऑं है। इससे मोटर से पानी खींच कर नगर को वितरित किया जाता है। शारदा नदी के दूसरी ओर नेपाल की ब्रह्मदेव मंडी है, जो राजा ब्रहमदेव कत्यूरी ने बसाई थी। पहले टनकपुर से पाँच किलोमीटर उत्तर दिशा में भी ब्रह्मदेव मंडी थी, जो पहाड़ खिसकने से दब गयी थी। तदुपरान्त 1840 में टनकपुर बसाया गया। इसका पूर्व में नाम ग्रास्टीनगंज रखा था, जो प्रचलित न हो सका। यह चंपावत तथा पिथौरागढ़ को जाने वाली मोटर मार्ग का केन्द्र भी है। यहाँ से थोड़ी दूर में पूर्णागिरी देवी का मंदिर है। यहाँ भोटियों का काता हुआ ऊन भी बहुतायत में मिलता है।
पढ़ें: जानिए उत्तराखंड के चंपावत जिले के बारे में, पांडवकाल में यहां रहता था घटोत्कच्छ

लेखक का परिचय
लेखक देवकी नंदन पांडे जाने माने इतिहासकार हैं। वह देहरादून में टैगोर कालोनी में रहते हैं। उनकी इतिहास से संबंधित जानकारी की करीब 17 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कुमाऊं के निवासी पांडे लंबे समय से देहरादून में रह रहे हैं।

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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