जानिए चमोली जिले के पर्यटन और धार्मिक स्थलों के बारे में, यहां प्रकृति ने बिखेरी हैं नेमतें
चमोली जिला जितना बड़ा है, उसी लिहाज से यहां प्राकृतिक सुंदरता और ऐतिहासिक स्थल, पर्यटन स्थल भरे पड़े हैं। चमोली जिले का क्षेत्रफल करीब 8030 वर्ग किलोमीटर है। यहां इतने खूबसूरत स्थल हैं कि चमोली जिले के भ्रमण की यदि इच्छा है तो आप एक सप्ताह तक भी सारे स्थलों को नहीं देख सकते हो। इसलिए कभी चमोली आएं तो लंबा प्रोग्राम बनाकर पहुंचें। एक साथ सारे स्थलों के बारे में लिखना भी संभव नहीं है, इसलिए समाचार के नीचे अन्य स्थलों के लिंक दिए जा रहे हैं, इसे क्लिक कर आप चमोली जनपद के संबंध में अन्य स्थलों के बारे में भी जान सकते हैं। आइए अब बात करते हैं जोशीमठ की।
जोशीमठ जहां आदि शकराचार्यजी ने की थी ज्ञान ज्योति प्राप्त
यह क्षेत्र सागरतल से 6150 फीट की ऊँचाई पर हरिद्वार से 284 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। जोशीमठ, ज्योतिर्मठ शब्द का अपभ्रंश नाम है। जगद्गुरू आदि शंकराचार्य ने देश के चारों कोनों में चार धामों की स्थापना करके उनके निकट चार मठों की भी स्थापना की थी। यह ज्योतिर्मठ भी उन्हीं चार मठों में से एक मठ है। जोशीमठ, बदरीनाथ धाम से 32 किलोमीटर पहले विद्यमान है यहाँ एक शहतूत के वृक्ष के नीचे आदि शंकराचार्य ने ज्ञान ज्योति प्राप्त की थी
और यहीं ब्रह्मसूत्र पर शंकर भाष्य नामक ग्रन्थ की रचना भी की थी।
कत्यूरी राजाओं की राजधानी रहा जोशीमठ
यह एक प्राचीन स्थान है। कभी यहाँ कत्यूरी राजाओं की राजधानी थी। यह स्थान प्राचीन काल से ही ऐतिहासिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक प्रधान क्षेत्र रहा है। यहाँ भगवान नृसिंह और वासुदेव के अति प्राचीन मन्दिर है। वर्तमान जोशीमठ बाजार के उत्तर में ज्योतेश्वर महादेव का प्राचीन मन्दिर है। यहीं जगतगुरू शंकराचार्य की गद्दी का स्थान विद्यमान है। जोशीमठ, अलकनन्दा घाटी का विकासशील पर्वतीय नगर है। यहाँ सुन्दर व्यवस्थित बाजार, होटल व विश्रामगृह भी हैं।
औली
जोशीमठ से मोटरमार्ग द्वारा 16 किलोमीटर तथा पैदल पर्यटकों के लिए 5 किलोमीटर की यात्रा पूरी कर यहाँ पहुंचा जा सकता है। यहां रोपवे की सुविधा भी आकर्षण का केंद्र है। समुद्री तट से 9134 फुट ऊपर औली एक ऐसी गति के नये उत्साहजनक संसार से परिचय करवाता है, जिसे अधिकांश लोग अविश्वसनीय ही कहेंगे। हिमालय पर्वत की तीसरी सबसे ऊँची चोटी नन्दा देवी के प्रांगण में फैला है औली का अद्भुत स्को संसार।
हिम क्रीड़ा का प्रमुख स्थल
औली हिम क्रीड़ा का प्रमुख स्थल भी है। स्की सैरगाह के रूप में विकसित होने के पूर्व से हो औली में भारत-तिब्बत सीमा पुलिस के साहसी पुरूषों का प्रशिक्षण स्थल कार्यरत है। औली से कुछ किलोमीटर की दूरी पर 23,400 फुट ऊँची त्रिशूल की प्रसिद्ध चोटियाँ है। 1958 में यहाँ एक अद्भुत स्की का आयोजन भारत-तिब्बत सीमा पुलिस ने किया था। पर्वतारोही चार दिनों में इसकी चोटी पर पहुंचे थे, लेकिन केवल नब्बे मिनट में स्की करते हुए वापिस कैम्प में पहुँच गये थे। औली में तीव्र गति से की जाने वाली एलपाइन स्कीइंग और उच्चस्तरीय स्कीइंग के लिए पर्याप्त स्थान है।
इसके अतिरिक्त औली में सघन चीड़ के वृक्षों के बीचोंबीच नौर्डिक स्कीइंग पथ या क्षेत्र पार पथ भी स्को प्रेमियों के लिए आकर्षण का केन्द्र है। स्कीइंग सैरगाह औली, सौन्दर्य और उत्तेजनापूर्ण खेल के आनन्द का अनोखा मिश्रण है। हर वर्ष फरवरी-मार्च में यहाँ शीतकालीन खेल समारोह का आयोजन किया जाता है, जिसमें उत्तेजना और गति उन्माद नई सीमाओं को छूती है।
आदिबदरी
श्री आदि बदरी धाम और गढ़वाली वीरों का बहुत पुराना रिश्ता है। गढ़वाल में पंवार राजाओं के समय से ही गढ़ सैनिकों की रण ललकार’बदरी विशाल लाल की जय’ रही है। आज भी गढ़वाल राइफल्स के सैनिकों की ‘बैटल क्राई’ वही है। पंवार वंश (888-1512) चांदपुर गढ़ी में शासन करता रहा तथा आदिबदरी को रण इष्ट के रूप में पूजता रहा। चाँदपुर गढ़ी आदिबदरी से ढाई किलोमीटर की दूरी पर दायीं ओर स्थित है। अब आदिबदरी मंदिर और चाँदपुर गढ़ी के मध्य डाक बंगला बन गया है, लेकिन पहले गढ़ी से मंदिर तक सीधे नजर पड़ती थी। राजा, सम्पन्नता के लिए इस मन्दिर में पूजा करता था। इस बात का प्रमाण यह भी है कि आदिबदरी की प्रमुख मूर्ति विष्णु भगवान की है किन्तु इसके दांये अधोहस्त में पद्म नहीं है, यह हाथ वरद मुद्रा में है। मूर्ति का रजोगुणी प्रभाव निश्चित ही राजा और उसकी सेना को पूज्य रहा होगा।
स्थानीय नाम है मोठा
आदि बदरी का स्थानीय नाम ‘मोठा’ है। शायद यह नाम मूलत: नारायण मठ रहा
होगा जो अपभ्रशित होकर मोठा हो गया। यह माना जाता है कि बदरी श्रृंखला के पाँच तीर्थों आदिबदरी, ध्यानबदरी, योगबदरी, विशालबदरी और भविष्यबदरी की पुर्नस्थापना शंकराचार्य ने की। इन स्थानों पर ऋग्वेद में पुरूष सूक्त के रचियता ऋषिनारायण पहले तपस्या कर चुके थे। उनकी पहली तपस्थली का नाम प्रारम्भ में नारायण मठ ही था।
अपसराएं यहां करती थी क्रीड़ा
बाद में आठवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने जब इस तीर्थ में पुन: जोत जलाई और मन्दिरों का पुर्ननिर्माण किया तो यह आदिबदरी कहलाया जाने लगा। आदिबदरी के समीप पहाड़ पर समतल क्षेत्र है। जिसे भराड़ीसैंण कहा जाता है। वर्तमान में यह उत्तराखंड की ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित हो चुकी है। कहते हैं कि उर्वशी आदि अप्सरायें यहाँ क्रीडा करती थी। एक किंवदन्ती के अनुसार ऋषि नारायण वर्तमान आदिबदरी में जब तपस्यालीन थे।
तब देवताओं के राजा इन्द्र ने उन्हें विचलित करने के लिए अप्सराओं को भेजा। ऋषि नारायण ने अप्सराओं के मान मर्दन के लिए अपनी जंघा पर प्रहार कर एक निद्य सुन्दरी को प्रकट कराया, जिसके समक्ष सभी अप्सराये फीकी पड़ गयीं और अपने गर्व पर स्वयं खेद प्रकट करने लगी। जंघा से जिस सुन्दरी का जन्म हुआ वह उर्वशी कहलायी। यह तीर्थ हरिद्वार-बदरीनाथ मोटर मार्ग पर हरिद्वार से 194 किलोमीटर दूरी पर स्थित कर्णप्रयाग से 194 किलोमीटर दूर है। यहाँ अब तेरह मंदिर ही शेष हैं। आज से सौ वर्ष पूर्व तक यहाँ सोलह मंदिर थे।
कर्णप्रयागः यहां कर्ण को सूर्य ने दिया था अभेद्य कवच
हरिद्वार से 200 किलामीटर की दूरी तथा सागर तट से 2600 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। केदारखंड के अनुसार महादानवीर कर्ण ने सूर्यदेव की यहाँ आराधना की थी जिससे सूर्य देवता ने प्रसन्न होकर दानवीर कर्ण को अभेद्य कवच एवं धनुष-बाण आदि भेंट किये थे। यही कारण है कि इस क्षेत्र विशेष को अलकनन्दा एवं पिण्डर नदी के संगम स्थल होने के कारण कर्णप्रयाग के नाम से जाना जाता है। कर्णप्रयाग में पिण्डर नदी के पार उत्तर दिशा की ओर माता उमादेवी का प्राचीन मन्दिर भी विद्यमान है। नदी के दाहिनी छोर कर्ण का ऐतिहासिक प्राचीन मन्दिर भी है। यहाँ से एक मोटर मार्ग आदि बदरी होते हुए कुमाऊँ क्षेत्र में प्रवेश करता है। दूसरा मार्ग सिमली, गैरसैंण होते हुए रानीखेत पहुँचता है। कर्णप्रयाग से उत्तर दिशा की ओर का मोटर मार्ग जोशीमठ की ओर को जाता है।
रुद्रनाथ
पंचकेदार में से एक शिवपूजन पावन स्थली रूद्रनाथ (14000 फीट) कहलाती है। यहाँ पहुँचने के लिए ऋषिकेश-हरिद्वार से जिला चमोली के मुख्यालय गोपेश्वर पहुँचना पड़ता है। गोपेश्वर से रूद्रनाथ तक जाने के भेड़-बकरियों द्वारा बनाये गये पग-चिह्नों का अनुसरण करते हुए खड़ी
चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। रूद्रनाथ के लिए गोपेश्वर से दो मार्ग है। एक मार्ग गंगोल गाँव, पनार और नैल होकर रूद्रनाथ पहुँचता है। इस मार्ग की दूरी गोपेश्वर से 27 किलोमीटर है। दूसरा मार्ग गोपेश्वर से सुखताल होकर जाने का है। बैमरू गाँव इस मार्ग का अन्तिम गाँव है। सुखताल से 36 किलोमीटर की दूरी रूद्रनाथ के लिए तय करनी होती हैं।
एक ही दिन में लौटना होता है वापस
दोनों मार्ग से रूद्रनाथ एक ही दिन में पहुँचना होता है, क्योंकि मार्ग में रूकने का कोई स्थान नहीं है। चोटी पर पहुँचते ही उत्तरर-पूर्व दिशा में चौखम्भा, नीलकंठ, त्रिशूली, द्रोणगिरी और नंदादेवी पर्वत श्रृंखलाओं के दर्शन होते हैं। समीप ही पैनखंडा का रमणीय वन दिखाई देता है। यह वही वन है, जहाँ पर्वत पुत्री पार्वती ने पत्ते खाकर शिव की तपस्या की थी। इसका नाम पर्णखंडा से पैनखंडा हो गया। एक ऊँचाई के पश्चात् मखमली घास के ढालू मैदान आरम्भ हो जाते हैं। इस भूमि पर घनी और मखमली घास की हरियाली नजर आती है। दस हजार फीट की ऊँचाई पर पहुँचते-पहुँचते रूद्र हिमालय की फूलघाटी शुरू हो जाती है। यह घाटी 32 किलोमीटर के विस्तृत क्षेत्र में फैली हुई है। यहाँ सभी प्रकार के जंगली जानवर और पक्षियों के दर्शन सामान्यत: हो ही जाते हैं।
वेणी ताल
कर्णप्रयाग से आदिबदरी मोटर मार्ग के समीप यह ताल स्थित है। ताल तक पहुँचने के लिए आदिबदरी से पाँच किलोमीटर की पैदल यात्रा करनी होती है। इस ताल की परिधि लगभग एक किलोमीटर है। पौराणिक गाथाओं एवं लोकगीतों पर आधारित वेणीताल भूमि सन् 1935 के आसपास एक ब्रिटिश शासक की प्रियस्थली थी। यह ताल सदैव सफेद कमल पुष्यों से भरा रहता है। ताल के चारों ओर सजी हरियाली, धीरे-धीरे उठे भूमि के पठार, नाशपाती, सेब, खुमानी अखरोट एवं चायपत्ती के बागानों की पंक्तियाँ मनोरम दृश्य प्रस्तुत करती है। यहाँ लगभग वर्ष भर एक सा मौसम बना रहता है, परन्तु नवम्बर माह में बर्फ पड़नी आरम्भ हो जाती है। ब्रिटिश काल में यहाँ चाय बागान के साथ-साथ चायपत्ती शुद्धिकरण का भी कार्य होता था। यहाँ कभी लोहे के अयस्क निकालने का कार्य भी बड़े पैमाने पर संचालित किया गया था, जिसके अवशेष जंगल में आज भी विद्यमान हैं।
माता अनुसूया मन्दिर
उत्तराखण्ड के सुदूर हिमानी क्षेत्र में स्थित तीर्थ स्थलों में माता अनुसूया शक्ति पीठ अनेक
विलक्षणताओं के लिए विख्यात है। चमोली जिले में तुंगनाथ तथा रूद्रनाथ के शिवालयों को जोड़ने वाली पर्वतश्रेणियों के मध्य समुद्रतल से लगभग 7000 फीट की ऊँचाई पर स्थित सिद्धपीठ की भौगोलिक संरचना जितनी विकट है, यहाँ का नैसर्गिक सौन्दर्य उतना ही चित्ताकर्षक है।
अत्रि ऋषि और उनकी पत्नी अनुसूया ने की थी तपस्या
किंवदन्ती है कि अत्रि ऋषि एवं उनकी पत्नी अनुसूया ने यहीं तपस्या की थी। यह तीर्थ स्थल अनुसूया आश्रम के नाम से अधिक माना जाता है। इस तीर्थ स्थल को महिमा मंडित करने वाली विलक्षण दैवी शक्तियां एवम् यत्र-तत्र बिखरे अद्वितीय परिदृश्य पर्यटक को अचम्भित करने वाले है। जब हिमानी क्षेत्र में स्थित सभी तीर्थों के कपाट असह्याय ठंड के कारण बन्द हो जाते हैं, तब अनुसूया आश्रम में दिसंबर माह में पूर्णमासी को दत्तात्रेय जयन्ती पर विशाल मेला लगता है। माता अनुसूया में अपार आस्था एवम् विश्वास का यह अनन्यतम उदाहरण है।
पेट के बल चलकर पहुंचते हैं गुफा तक
आश्चर्यचकित करने वाले अनेक विलक्षण दृश्यों का अवलोकन इस यात्रा का महत्त्वपूर्ण पहलू है। आश्रम से दो किलोमीटर की दूरी पर चट्टान पर प्राकृतिक गुफा है जो विकटता का पर्याय है। यह अत्रि मुनि आश्रम के नाम से जानी जाती है। गुफा मार्ग की विकटता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि पेट के बल सरककर लोहे की सांकलों के सहारे ही गुफा तक पहुँचा जा सकता है। इससे भी विलक्षण है जल प्रपात की परिक्रमा का दृश्य, जो शायद
ही अन्यत्र कहीं देखने को मिले। भयंकर गर्जना के साथ गिरता विशाल झरना और उसके पृष्ठ में सीधी खड़ी चट्टान पर बना संकरा परिक्रमा पथ। जो देखने में रोमांचित करने वाला है। रंग बिरंगे फूलों से सुसज्जित पथ को देखने से ऐसा जान पड़ता है कि फूलों से गुथित पुष्पाहार हो।
अनुसूया आश्रम में माता अनुसूया का भव्य एंव प्राचीन मन्दिर है, जो एक हजार वर्ष पूराना है। गर्भगृह में माता अनुसूया की भव्य प्रस्तर मूर्ति है। आश्रम के चारों ओर की कठिन भौगोलिक बनावट भले ही सुगम्य न हो पर अब पूरे वर्ष यहाँ तीर्थ यात्रियों का आवागमन जारी रहता है।
चमोली मुख्यालय गोपेश्वर से बारह किलोमीटर बस यात्रा और उसके पश्चात् पाँच किलोमीटर पैदल मार्ग से यहाँ पहुँचा जा सकता है।
नन्दादेवी पशुविहार
यह पशुविहार सीमान्त जनपद चमोली के लगभग 18850 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। इसकी स्थापना सन् 1939 में हुई थी। पर्यटकों को इस विहार तक पहुँचने के लिए हरिद्वार से लाता तक 309 किलोमीटर मोटर मार्ग द्वारा उसके बाद लगभग 55 किलोमीटर की दूरी पैदल तय करनी पड़ती है। नन्दा देवी पशु विहार पहुँचने के लिए माता अन्तिम बस स्टेशन है। समुद्र तट से 9296 फीट की ऊँचाई पर स्थित यह स्थान जोशीमठ से 25 किलोमीटर की दूरी पर है। सर्वप्रथम दस किलोमीटर की दूरी पर लाता खर्क नामक स्थान पड़ता है। यहाँ से सात किलोमीटर पर धरांसी। धरांसी से आठ किलोमीटर पर डिबरूघटा, यहाँ से छ: किलोमीटर पर ड्योढ़ी, ड्योढ़ी से छह किलोमीटर पर रामनी, रामनी से छ: किलोमीटर पर भोजघेरा, भोजघेरा से पाँच किलोमीटर पर तिल्लचनी, तिल्लचनी से आठ किलोमीटर की दूरी पर नन्दादेवी पशु विहार स्थित है। यह पशु विहार 324 वर्ग किलोमीटर में फैली है, जिसे सन् 1982 में नेशनल पार्क बनाया गया। यहाँ जाने के लिए अनुकूल मौसम अप्रैल और मई माह है। इस पार्क में स्नोलैपर्ड्स, हिमालयन बीयर, मस्क डियर, मोनाल आदि पशु-पक्षी पाये जाते हैं।
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लेखक का परिचय
लेखक देवकी नंदन पांडे जाने माने इतिहासकार हैं। वह देहरादून में टैगोर कालोनी में रहते हैं। उनकी इतिहास से संबंधित जानकारी की करीब 17 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कुमाऊं के निवासी पांडे लंबे समय से देहरादून में रह रहे हैं।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।