यहां तीनों प्रहरों में बदलते हैं मां की मूर्ति के रूप, इधर भगवान शिव ने पिया था विष, जानिए पौड़ी के मंदिरों की महत्ता
उत्तराखंड का पौड़ी जनपद जहां प्राकृतिक खूबसूरती के लिए विख्यात है। वहीं, यहां के मंदिरों का विशेष धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व है। हर मंदिर के साथ कोई न कोई पौराणिक या ऐतिहासिक कहानी जुड़ी है। इस मंदिरों के निर्माण और अपनी अनोखी पहचान ही उत्तराखंड के पौड़ी के महत्व को बढ़ा देता है। यहां नीलकंठ महादेव मंदिर में तो सावन के माह में लाखों श्रद्धालु बाबा भोले को जल चढ़ाने पहुंचते हैं। कांवड़ यात्री भी जब तक यहां नहीं आते तो वे अपनी यात्रा को अधूरा मानते हैं। पौड़ी जिले के ऐसे ही प्रमुख मंदिरों और धार्मिक और पर्यटन स्थलों की विशेषताएं यहां आपको विस्तार से बताने जा रहे हैं।
सुमाड़ी मंदिर
श्रीनगर क्षेत्र में यह एक सम्पन्न गाँव है। स्थानीय लोगों का कहना है कि सन् 768 में गुजरात से रामविलोचन नाम का ब्राह्मण सहयोगियों के साथ यहाँ आये थे। जो काला जाति के थे। वे अपनी कुलदेवी गौरजा की ताम्र निर्मित मूर्ति भी अपने साथ लाये थे। देवलगढ़ के अधिपति ने उनको यह गाँव दिया। उन्होंने इस गाँव का नाम सुरमणि रखा, जो कालान्तर में सुमाड़ी कहा जाने लगा। सुमाड़ी के मन्दिर अपनी प्राचीनता, दिव्यता और भव्यता के लिए प्रसिद्ध है। सुमाड़ी का महत्त्व इसी बात से स्पष्ट है कि प्राचीन समय में बदरीनाथ की यात्रा का पैदल मार्ग श्रीनगर से सुमाड़ी और
देवलगढ़ होकर जाता था।
राजराजेश्वरी देवी मंदिर
अलकनन्दा के दायें तट पर राजेश्वरी देवी का प्राचीन विशाल मन्दिर है। मन्दिर में मुख्य मूर्ति माँ भगवती की एक फुट ऊँची चाँदी की है। शयनासन पर विराजमान शंकर की नाभि पर चतुर्भुज राजराजेश्वरी पद्मासन की मुद्रा में आसीन हैं। यहाँ नवरात्र तथा चैत्र मास में विशेष पूजन होते हैं। यह मन्दिर शक्ति परम्परा का है।
शीतला मन्दिर
यह मन्दिर भक्त्याना ग्राम में स्थित है। मंदिर की मान्यता बहुत है। कहा जाता है कि भक्तों की मनोकामना की देवी अवश्य पूरा करती है।
लक्ष्मीनारायण मन्दिर
भक्त्याना गाँव से नीचे यह एक प्राचीन मन्दिर है । जनश्रुतियों के अनुसार इसकी स्थापना आदि शंकराचार्य ने कराई थी।
गोरखनाथ की गुहा
श्रीनगर के पुराने निवासियों का कहना है कि गुरू गोरखनाथ ने एक गुहा में अन्तिम समाधि ली थी, यह गुहा भक्त्याना गांव में है। गुहा में गुरु गोरखनाथ की समाधी है। शिवलिंग के साथ उनकी मूर्ति स्थापित है।
कमलेश्वर महादेव मंदिर
यह शिवजी के महत्त्वशाली पीठों में से एक है। यह श्रीनगर का सबसे प्रसिद्ध लोकप्रिय मंदिर है। यह श्रीनगर के आबादी वाले क्षेत्र से एक किलोमीटर पश्चिम में है। पुराणों में कमलेश्वर पीठ की महिमा का वर्णन है। यहाँ शिव और विष्णु साथ साथ रहते हैं। विष्णु भगवान ने शस्त्र प्राप्त करने के लिए एक हजार कमलों से शिव का पूजन प्रारम्भ किया। 999 कमलों से पूजा के उपरान्त शिव ने परीक्षा लेने को एक कमल छिपा दिया। कमल न मिलने पर विष्णु भगवान ने अपने नेत्र को ही शिव की पूजा के लिए अर्पित कर दिया।
प्रसन्न होकर शिव ने साक्षात दर्शन तो दिए ही साथ ही विष्णु को नेत्र भी वापिस कर दिया। तथा सुदर्शन चक्र भी प्रदान किया। बैकुंठ चतुर्दशी पर्व पर यहां निसंतान दंपती पूरी रात भर शिव की आराधना करते हैं। मान्यता है कि ऐसा करने से संतान की प्राप्ति होती है। कमलेश्वर मंदिर के समीप ही कपिलेश्वर महादेव का मंदिर है। यहाँ कपिल मुनि की समाधि है और शिवलिंग स्थापित है।
शंकरमठ
यह पुराना श्रीनगर ही वह क्षेत्र है, जहाँ पहले गढ़वाल राज्य की राजधानी थी, जिसके अब अवशेष भी देखने को नहीं मिलते हैं। फिर भी राजपरिवार का प्राचीन मंदिर शंकरमठ अतीत का गौरवशाली, स्मृतियों को अपने में संजोये हुए आज भी श्रद्धालुओं को पुण्य एवं परम आनन्द की अनुभूति कराता है। हरिद्वार-बदरीनाथ मोटर मार्ग से मात्र एक फलांग दूर अलकनन्दा के तट पर तथा राजकीय पोलिटेक्निक के पीछे की ओर यह मंदिर अवस्थित है। इसमें काले आभायुक्त पत्थर की बनी भव्य मूर्तिशिल्प का दर्शन कराती बेजोड़ एवं मनोहारी मूर्तियाँ सहज ही हर किसी को मोहित करती है।
मंदिर का निर्माण शिल्प भी दर्शनीय है। यह मंदिर मुख्य रूप से विष्णु-विश्वमोहिनी को समर्पित है।
लगभग चार फुट ऊँचे एवं तीन फुट चौड़ काले पत्थर से बनायी गयी विष्णु-विश्वमोहिनी की युगल मूर्तियाँ बेमिसाल है। विष्णु की मूर्ति चतुर्भुजी तथा विश्वमोहिनी की मूर्ति एक विशेष मुद्रा में है। इनके दाहिनी ओर द्वारिकाधीश तथा बायीं ओर राजेश्वरी की भव्य मूर्तियाँ भी काले चमकीले पत्थर से बनी हुई है। श्रीनगर के मंदिरों में शंकरमठ अधिक पूर्ण एवं कलात्मक है। मंदिर का निर्माण अधिष्ठान के ऊपर किया गया है। अधिष्ठान के ठीक ऊपर जंघा भाग पर सौन्दर्यपूर्ण अलंकरण है। मन्दिर में तीन द्वार पूर्व, दक्षिण एवं उत्तर में है। मंदिर का शिखर भाग नागर शैली का बना हुआ है।
शंकरमठ क्षेत्र का है पौराणिक महत्व
शंकर मठ जिस क्षेत्र में स्थित हैं उसका भी विशेष पौराणिक महत्व है। प्राचीन काल में इस क्षेत्र को अश्व तीर्थ के नाम से जाना जाता था। पौराणिक गाथा के अनुसार यहाँ प्रतापी सम्राट नरिस्यान ने देवराज इन्द्र द्वारा अपहृत किये गये अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े को छुड़ाने के लिए घोर तप किया था। भगवान शंकर के वरदान से वह अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े को देवराज इन्द्र से छुड़ाने में सफल हुए थे। शंकरमठ का निर्माण कब हुआ, इसका यह नामकरण क्यो हुआ, जबकि इसमें विष्णु तथा विश्वमोहिनी की मुख्य मूर्तियाँ हैं, के सम्बन्ध में कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण पहले आदि गुरु शंकराचार्य तथा बाद में गढ़वाल नरेश प्रदीप शाह के मंत्री शंकर डोभाल ने 1785 में इसका जीर्णोद्वार किया था।
गुरूद्वारा
बदरीनाथ मार्ग की ओर जाने वाली सड़क पर सन् 1969 में सिखों की गुरूद्वारा कमेटी ने एक गुरूद्वारे का निर्माण कराया। हेमकुण्ड तीर्थ यात्रा के लिए जाने वाले सिखों के लिए यह एक प्रमुख
पूजा एवं विश्राम स्थल है।
ताड़केश्वर धाम
यह धाम समुद्रतल से छः हजार फीट की ऊंचाई पर पौड़ी गढ़वाल जिले की तहसील लैंसडौन
की बदलपुर पट्टी में स्थित है। यह पाँच किलोमीटर की परिधि के सघन गगनचुम्बी देवदार वन से आच्छादित है। सबसे आश्चर्य की बात यह है कि इस स्थान के अतिरिक्त इस पूरे क्षेत्र में कहीं भी देवदार के दर्शन नहीं होते। यह पूरा स्थान ताड़केश्वर धाम का मंदिर है। यहाँ स्थित कुंड की विशेषता यह है कि छोटा दिखने के उपरान्त भी इसका पानी कभी सूखता नहीं। इस धाम का प्रभाव आस-पास के अनेक गाँवों पर है। जब भी कोई ग्रामवासी अपराध की नियत से कोई कार्य करना चाहता है तो ताड़केश्वर धाम से उत्पन्न आवाज उसको सचेत कर देती है।
धारी देवी
अलकनन्दा के किनारे श्रीनगर-बदरीनाथ मार्ग पर श्रीनगर के 14 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहाँ एक चबूतरे पर छोटा शिवालय विद्यमान है और दूसरा चबूतरा पाषाण की ओट कोटर से सटा हुआ है। यहाँ पर तीन श्यामरंग की अर्धाकार मूर्तियाँ है। ऐसा प्रतीत होता है कि ये तीनों पाषाण मूर्तियाँ मूलरूप में ऐसी ही रही होंगी। ये काले पत्थर की मूर्तियाँ इतने प्रभाव वाली हैं कि इनको
लगातार देखना सरल कार्य नहीं है। काली माता की प्रस्तर मूर्ति, दिन में तीन रूप धारण करती है। प्रातः काल बालरूप, मध्याह्न को युवा रूप तथा सायकाल को वृद्धा का रूप धारण करती है। इस क्षेत्र का यह सर्वोत्तम सिद्धपीठ है। इसकी अवमानना करना किसी क्षेत्रवासी के वश की बात नहीं।
नीलकंठ
स्वर्गाश्रम से ग्यारह किलोमीटर की दूरी पर मणिकूट पर्वत (5940 फीट) पर स्थित शिव मंदिर है। यह मंदिर शिवभक्तों के लिए ही नहीं अपितु मानव समाज के लिए अटूट श्रद्धा व भक्ति का प्रतीक है। पुराणों में लिखित वर्णन के अनुसार सागर मंथन के समय उत्पन्न हुए हलाहल विष को शिवजी द्वारा ग्रहण करने पर, शिव विष की उष्णता को सहन न कर पाये। तब उन्होंने इस स्थान पर पहुँचकर योग द्वारा सम्पूर्ण विष को कंठ में एकत्र कर लिया। इससे उनका कंठ नीला पड़ गया और वे नीलकंठ कहलाये। यह स्थान नीलकंठ मंदिर कहलाया। यह मंदिर तीन और से ब्रह्मपर्वत, विष्णुपर्वत तथा इंद्र पर्वत की चोटियों से घिरा है। नीलकंठ मंदिर से समीप ही भुवनेश्वरी माता जिसे पार्वती के नाम से भी संबोधित किया जाता है, का मंदिर है। कहा जाता है इसी स्थान पर पार्वती ने विष के प्रभाव से क्षीण हुए शिवजी के स्वा स्वास्थ्य लाभ की कामना के लिए तपस्या की थी।
ज्वालपादेवी
श्री ज्वाल्पाधाम, ज्वाल्पादेवी का अति प्राचीन सिद्धपीठ है। यह पौड़ी मुख्यालय से 33 किलोमीटर दक्षिण में पतित पावनी नबालका नदी के दक्षिणी तट पर कोटद्वार पौड़ी मोटर मार्ग पर स्थित है। केदारखंड के अनुसार सतयुग में इस धाम पर दैत्यराज पुलोम की कन्या शची ने देवराज इन्द्र को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए हिमालय क्षेत्र की अधिष्ठात्री देवी पार्वती की तपस्या की, इस पर प्रसन्न होकर महादेवी पार्वती ने दीप्यमान दीप्तज्वालेश्वरी के रूप में दर्शन देकर उसकी मनोकामना पूर्ण होने का उसे वरदान दिया। महादेवी पार्वती का जो प्रकाशमय रूप प्रकट हुआ था,
उसे स्कन्दपुराण में दीप्तज्वालेश्वरी कहा गया है। जनवाणी में यही ज्वाल्पादेवी के नाम से विख्यात हुआ। तभी से मातेश्वरी के प्रकाशमय रूप की स्मृति में मन्दिर में निरन्तर अखण्डदीप प्रज्वलित रखा जाता है।
बिनसर
पौड़ी मुख्यालय से 118 किलोमीटर दूर थैलीसैंण मार्ग पर 8000 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ का प्रसिद्ध बिनसर मन्दिर देवदार के सघन वृक्षों से आच्छादित 9000 फीट पर दूधातोली के आंचल में विद्यमान है। जनश्रुति के अनुसार कभी इस वन में पाण्डवों ने वास किया था। पाण्डव एक वर्ष के अज्ञातवास में इस वन में आये थे और उन्होंने मात्र एक रात्रि में ही इस मन्दिर का निर्माण किया। विशाल शिलाखण्डों से निर्मित इस मन्दिर की छटा मनोहारी है। उषा की प्रथम व संध्या की अन्तिम किरण जब इसके उत्तुंग स्वर्ण कलश का स्पर्श करती है तो ऐसा प्रतीत होता है मानो सृष्टि का आदि-अंत यहीं हो रहा है। प्रत्येक वर्ष कार्तिक पूर्णिमा को यहाँ विशाल मेला लगता है। मेले के समय यहाँ अत्यधिक ठंड पड़ती है। इस मन्दिर में बड़ी-छोटी कई पाषाण मूर्तियाँ दर्शनीय है। कुछ खंडित भी हैं, जो पुरातत्व की दृष्टि से शोध की विषय बनी हुई है।
बिनसर भूमि के बारे में कहावत हैं कि राजमाता कर्णावती ने इस भूमि पर सवा लाख मुगलों की सेना को परास्त किया था। इसी युद्ध में रानी कर्णावती के पति महाराजा महीपतिशाह का देहान्त हुआ था। मुगल सेना को परास्त करने के उपरान्त राजमाता ने बड़ी श्रद्धा भावना व कृतज्ञता से इस
मन्दिर के विशाल दुर्ग का निर्माण कराया, जिसके ध्वंसावशेष अभी यत्र- तत्र विद्यमान है।
विश्वप्रसिद्ध पेशावर काण्ड दिवस के नायक श्री चन्द्रसिंह गढ़वालो की जन्मस्थली भी बिनसर के समीप मासों ग्राम है । बिनसर के पूर्व की ओर लगभग एक किलोमीटर आगे ब्रह्माएंगी नाम का विशालकाय पत्थर है । कहा जाता है कि ब्रह्माजी ने इस शिला पर बैठकर तपस्या की थी । इस शिला की चोटी पर पहुंचकर दक्षिण पूर्व की ओर फैली सुरम्यता को देखकर सैलानी आत्मविभोर हो जाते हैं । बिनसर मन्दिर के ठीक ऊपर एक बहुत बड़ी गुफा है, जिसको ‘मूस उडियार’ के नाम से जाना जाता है। यह गुफा किसी तिमंजिले मकान सदृश है।
लक्ष्मीनारायण मंदिर
भक्त्याना गाँव से नीचे यह एक प्राचीन मन्दिर है । जनश्रुतियों के अनुसार इसकी स्थापना आदि शंकराचार्य ने कराई थी।
चीला
हरिद्वार से मोटर मार्ग द्वारा नौ किलोमीटर की दूरी पर चीला है। यह क्षेत्र राजाजी पार्क का एक भाग है। पशु व कलरव करते पक्षियों को देखने के लिए यह सर्वोत्तम स्थल है। यहां रात्रि विश्राम के लिए आवासगृह भी है। यहां चीला नहर में कार्यरत एक पावर हाउस भी है। पावर हाउस में लगी मशीनों से बिजली का उत्पादन होता है।
कालागढ़
यह कोटद्वार से 84 किलोमीटर की दूरी पर कार्बेट नेशनल पार्क के जंगलों से घिरा स्थान हैं। कालागढ़ की ऊँची पहाड़ी से प्रकृति का आनन्द लिया जा सकता है। रामगंगा नदी को अवरूद्ध कर एक बाँध भी निर्मित किया गया है। निर्मित बाँध सिंचाई के साथ-साथ झील का मनोरम दृश्य भी प्रस्तुत करता है।
कालिंका मंदिर
यह पौड़ी जिले में कुमाऊँ और गढ़वाल की सीमा पर स्थित प्राचीन मंदिर है। इस मंदिर का आध्यात्मिक प्रभाव पौड़ी के साथ-साथ अल्मोड़ा जिले के एक सौ से भी अधिक गाँवों में हैं। पौड़ी जिले के तीन विकासखंड वीरों खाल, थैलीसैंण और नैनीडांडा के तीन सौ गाँवों का यह आराध्य देव है। इस मंदिर में उत्सव के अवसर पर पचास हजार से अधिक ग्रामवासी एकत्रित होते हैं। जोगीमढ़ी से कालिंका तक की मोटरयात्रा दस किलोमीटर है।
यमकेश्वर महादेव
हरिद्वार से लगभग 80 किलोमीटर पूर्व की ओर जनपद पौड़ी गढ़वाल के शतरूद्रा नदी के तट पर यह मंदिर अवस्थित है। यमराज द्वारा स्थापित भगवान महामृत्यन्जय यमकेश्वर महादेव का एक छोटा सा मंदिर है। जिसमें सावन के महीने में एक घड़ा व बेलपत्र भक्ति भाव से चढ़ाने पर भक्तों की मनोकामना पूर्ण होती है। कहा जाता है कि यहाँ पर शिव द्वारा परास्त होने पर यमराज ने भगवान को प्रसन्न करने के लिए उन्हीं के लिंग की स्थापना कर पूजा-अर्चना की थी।
पूजा अर्चना से प्रसन्न शिव से यमराज ने शिवलिंग में स्थापित होने का वरदान लिया। यमराज द्वारा स्थापित किये जाने से यहाँ भगवान शिव का नाम यमकेश्वर पड़ा। स्कन्द पुराण के केदारखण्ड के अनुसार इस स्थान से कुछ दूर शतरुद्रा के उद्गम स्थल पर मृकण्डु ऋषि के अल्पायु पुत्र मार्कण्डेय ने दीर्घायु के लिए तप किया था । इस मंदिर के निकट एक टीला है, जिसके चारों ओर जल बहता है। इस टीले की आकृति ऊँ की तरह है। जिसके ऊर्ध्य बिंदु में यह मंदिर है। इस महादेव को बोलंदा महादेव की संज्ञा भी दी गयी, क्योंकि प्राचीन समय में अभीष्ट और अनिष्ट की भविष्यवाणी भी करते थे।
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लेखक का परिचय
लेखक देवकी नंदन पांडे जाने माने इतिहासकार हैं। वह देहरादून में टैगोर कालोनी में रहते हैं। उनकी इतिहास से संबंधित जानकारी की करीब 17 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कुमाऊं के निवासी पांडे लंबे समय से देहरादून में रह रहे हैं।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।