जानिए टिहरी जिले के प्रमुख नगर, तीर्थ और पर्यटन स्थलों के बारे में, जहां बिखरी है प्राकृतिक सुंदरता
उत्तराखंड में चाहे मैदानी इलाके हों या फिर पर्वतीय। सभी जगह प्रकृति ने अपना वरदान दिया है। सुंदर पहाड़, जंगल, कल कल बहता नदियों का स्वच्छ जल, झील अपनी तरफ पर्यटकों को आकर्षित करती हैं। साथ ही दुर्गम रास्ते पर्यटकों को ट्रैकिंग के लिए आमंत्रित करते हैं। टिहरी जिले के इतिहास और वहां के आंदोलन के बारे में विस्तार से बताने के बाद अब हम इस जिले के प्रमुख नगर, तीर्थ और पर्यटन स्थलों के बारे में बताने जा रहे हैं।
नरेंद्र नगर
यह हरिद्वार से 40 किलोमीटर दूर तथा 1670 फीट ऊँचाई पर स्थित है। सन् 1914 मजब महाराजा नरेन्द्र शाह सिंहासनारूढ़ हुए तब तक टिहरी रियासत की राजधानी टिहरी में ही थी। ज्योतिषों ने टिहरी नगर का निवास महाराजा के लिए अनिष्टकारी बतलाया। परिणामतः युवा नरेंन्द्र शाह ने एक नया नगर और राजधानी बनाने का विचार किया। परिणामतः ऋषिकेश से 16 किलोमीटर की दूरी पर ओढ़ाथली नाम के एक छोटा गाँव जिसकी ऊंचाई, 4000 फीट थी, में अपने नाम से नरेन्द्रनगर बसाया। इस नगर के निर्माण का कार्य 1921 मआरम्भ हुआ और लगभग दस वर्ष तक लगातार चलते रहने के उपरान्त पूर्णता को प्राप्त कर सका।
राजमहल निर्माण की लागत आई थी दस लाख रुपये
केवल राजमहल के निर्माण में दस लाख का खर्च आया। बड़े पैमाने पर नगर के निर्माण कार्य को सम्पादित करने के लिए मोटर मार्ग के निर्माण की आवश्यकता पहले से ही महसूस की जाती रही। परिणामत: 1921 से ही ऋषिकेश-नरेन्द्रनगर मार्ग का निर्माण भी प्रारम्भ कर दिया गया था। नगर के मुहाने पर बना विशाल नन्दी शिल्पकला का अनुपकम उदाहरण है।
देवप्रयाग
भगीरथी-अलकनन्दा के संगम पर देवप्रयाग की स्थिति हरिद्वार से 94 किलोमीटर दूरी
पर उत्तर दिशा में है। संगम पर इसकी ऊँचाई समुद्र तल से 1600 फीट तथा बाजार 1900 फीट की ऊँचाई पर है। देवप्रयाग तीन पर्वतों के मध्य में बसा हुआ है। यह पर्वत हैं- दशरथाचल, गृध्र और नरसिंह। इनको अलकनंदा, भागीरथी और गंगा की धारायें पृथक करती हैं। वस्तुत: गंगा नदी का यह नाम इसी स्थान पर होता है। इन्हीं तीन पर्वतों के ढलान पर देवप्रयाग नगर बसा हुआ है। देवप्रयाग मुख्य रूप से बदरीनाथ के पण्डों का निवास है। पहले समय, जबकि पैदल यात्रायें होती थीं, तब तीर्थयात्री देवप्रयाग में रूककर संगम पर स्नान का पुण्य लाभ अर्जित करते थे।
अलकनंदा और भागीरथी नदी का संगम
देवप्रयाग का सबसे पवित्र स्थान भागीरथी और अलकनन्दा का संगम है। दोनों नदियों के कटाव से यहाँ दो कुण्ड बन गये। अलकनन्दा की ओर के कुण्ड को वशिष्ठ कुण्ड तथा भागीरथी की ओर के कुण्ड को ब्रह्मकुण्ड कहते हैं। संगम के ऊपर की दो गुफायें, बायीं ओर की गुफा बशिष्ठ गुफा तथा दायीं ओर की गुफा को शिवगुफा कहते हैं।
रघुनाथ मंदिर
देवप्रयाग का सबसे प्राचीन और प्रसिद्ध मन्दिर रघुनाथ जी का है। इसकी स्थापना मूल रूप से देवशर्मा नामक ब्राह्मण ने की थी। मंदिर का वर्तमान रूप आदि शंकराचार्य द्वारा निर्मित है। मन्दिर के पीछे को शिलाओं पर कुछ तीर्थयात्रियों के नाम खरोष्ठी लिपि में अंकित हैं, जो कि दूसरी-तीसरी शताब्दी के कहे जाते हैं। ऊँचे लम्बे चबूतरे पर निर्मित यह मंदिर अति भव्य दृष्टिगोचर होता है। गर्भगृह के फर्श से इसके शिखर तक की ऊँचाई लगभग 80 फीट है। अन्दर विष्णु भगवान की काली शिला पर विशाल मूर्ति है। शिखर पर लकड़ी की बनी विशाल छतरी है, इसको टिहरी की खटोरिया रानी ने बनवाया था।
भरत मन्दिर
रघुनाथ मंदिर के उत्तर में एक बेटा भरत मंदिर है। कहा जाता है कि ऋषिकेश के भरत मंदिर को मुगलों द्वारा तोड़े जाने के भय से वहां के महन्त भरतजी की मूर्ति यहाँ उठाकर ले आये थे। तोड़े जाने का खतरा समाप्त हो जाने पर मूर्ति को पुन: ऋषिकेश ही स्थापित कर दिया गया। यहां जिस स्थान पर भरत की मूर्ति को स्थापित किया गया था, वहाँ मन्दिर निर्मित है।
आद्य-विश्वेश्वर मंदिर
बागीश्वर महादेव
बागीश्वर पीठ पर बने हुए शिवमंदिर को बागेश्वर महादेव कहा जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इसी स्थान पर सरस्वती देवी ने शिव की अराधना करके संगीत की विद्या प्राप्त की थी।
तुण्डीश्वर
तुण्डी कुण्ड से ऊपर एक विशाल टोले पर तुण्डीश्वर मंदिर है। कहा जाता है कि यहाँ तुण्डी नामक भील ने उपासना की थी। उसको महादेव ने अपने गण के रूप में स्वीकार कर लिया था।
चक्रधर विद्या मंदिर
चक्रधर जोशी का विद्या मंदिर दशरथ पर्वत पर मोटर मार्ग से कुछ दूरी पर स्थित ज्योतिष विद्या का महान केन्द्र है। इसको नक्षत्र वेधशाला भी कहा जाता है। यहाँ के पुस्तकालय में प्राचीन तथा आधुनिक विषयों से सम्बद्ध दस हजार पुस्तकें तथा तीन हजार हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ भी हैं।
कीर्तिनगर जहां श्रमदान से बनाया भारत का सबसे लंबा मार्ग
हरिद्वार से 125 किलोमीटर तथा श्रीनगर से पाँच किलोमीटर पहले 1150 फीट की ऊँचाई पर अलकनन्दा के किनारे अवस्थित है। इस नगर को गढ़वाल नरेश महाराज कीर्तिशाह ने सन् 1896 में उन गृहहीन लोगों के पुनर्वास के लिए बसाया था, जो लोग सन् 1894 की विरही ताल को बाढ़ से प्रभावित हुए थे। कीर्तिनगर-ऋषिकेश मोटर मार्ग का निर्माण यहाँ की जनता के श्रमदान व राजा के सहयोग से हुआ था। जन श्रमदान से निर्मित, इतना लम्बा मार्ग पूरे देश में
अन्यत्र कहीं भी नहीं है। यह नगर शहीदी नगर भी कहा जाता है। 11 जनवरी 1948 के दिन यहाँ दो युवक नागेन्द्र सकलानी और मोलू भरदारी को टिहरी रियासत के सामन्तशाहों ने राजशाही के विरूद्ध आन्दोलन करने पर गोली मार दी थी।
माधो का मलेथा
यह ग्राम अलकनन्दा के दायें तट पर तथा कीर्तिनगर से दस किलोमीटर ऋषिकेश की दिशा में स्थित है। अन्य ग्रामों की अपेक्षा यह ग्राम प्राचीन और प्रख्यात भी रहा है यहाँ एक ऐतिहासिक जल नहर सुरंग हैं। जो लगभग सत्रहवीं शताब्दी में गढ़वाल नरेश महीपतशाह के एक साहसी सेनापति माधोसिंह काला भंडारी ने स्वयं बनायी थी। इस प्रकार की ऐतिहासिक नहर सुरंग सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में ही नहीं, अपितु भारत में भी नहीं होगी। इस नहर सुरंग का पानी एक विशाल पहाड़ को काटकर सुरंग द्वारा मलेथा गांव में लाया गया है। जिससे प्राचीनकाल से अब तक सिंचाई हो रही है।
प्रतापनगर
समुद्र तट से 7800 फीट की ऊँचाई पर स्थित इस नगर को महाराज प्रतापशाह ने अपने नाम से सन् 1877 में बसाया था यह अत्यन्त रमणीय स्थान है। इस क्षेत्र में बाँज-बुरांश के सघन वन हैं। यहाँ से बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमनोत्री की हिमाच्छादित चोटियाँ स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। यहाँ का राजा का महल देखने योग्य स्थान है।
कुंजापुरी
पौराणिक आस्था का प्रतीक यह स्थान नरेन्द्रनगर से 13 किलोमीटर की दूरी पर है। नरेन्द्रनगर चम्बा मार्ग पर एक पहाड़ी टीले में दुर्गा माँ का सिद्ध पीठ यहाँ अवस्थित है। यहाँ आयोजित होने वाला पर्यटन विकास मेला सैलानियों के मस्तिष्क पर क्षेत्र की बौद्धिक एवं सांस्कृतिक पहचान का प्रतिविम्ब छेड़ता है।
चंबा
समुद्री सतह से 5000 फीट की ऊँचाई पर स्थित एक छोटा नगर है। हरिद्वार से 86 किलोमीटर की दूरी पर यह एक ऐसा केन्द्र बिन्दु है, जहाँ से पश्चिम दिशा की ओर मसूरी को, पूर्व दिशा की ओर रानीचौरी और नयी टिहरी तथा उत्तर दिशा की ओर उत्तरकाशी-टिहरी की ओर मोटर मार्ग जाता है।
सुरकण्डा
रमणीक स्थान सुरकण्डा, चम्बा-मसूरी मार्ग पर लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां पर्वतों की वास्तविक गरिमा का परिचायक है। सुरकुंडा के नीचे दृष्टिपात कनरे पर जहां एक ओर सीढ़ीनुमा लहलहाते खेत को देखकर आनन्द प्राप्त होता है। वहीं दूसरी ओर हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाओं का भी स्पष्ट दृश्यावलोकन होता है। मुख्य मार्ग से डेढ़ किलोमीटर ऊपर पर्वत चोटी पर सुरकण्डा देवी का मंदिर है।
समुद्र तल से 10,000 फीट को ऊंचाई पर स्थित इस सुरम्य चोटी से उत्तर-पूर्व की ओर बदरी-केदार, यमुनोत्री-गंगोत्री, तुंगनाथ, त्रिशूल, चौखम्बा आदि हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाओं का स्पष्ट दृश्य आंखों के सामने होता है। पूरब की ओर चम्बा, दक्षिण की ओर दून घाटी तथा पश्चिम की ओर पर्वतीय नगरी मसूरी का लुभावना दृश्य दृष्टिगत होता है। यह स्थल जहां एक ओर दर्शनीय एवं रमणीक है, वहीं दूसरी ओर धार्मिक दृष्टि से सिद्ध पीठ के रूप में भी प्रसिद्ध है।
चन्द्रबदनी
यह हरिद्वार से लगभग 120 किलोमीटर की दूरी तथा समुद्रतट से 8000 फीट ऊँचाई पर स्थित एक सिद्धपीठ है। देवप्रयाग से माड़, आमणी, हिण्डोलाखाल, खड़ी कडाली, नैखरी, जुराना आदि गाँवों से होता मोटर मार्ग चंद्रबदनी के समीप पहुँचता है। सिद्धपीठ चन्द्रबदनी, भागीरथी, भिलंगना और अलकनन्दा के मध्य मेखला के रूप में फैला हुआ है। यहाँ चन्द्रकूट पर्वत की चोटी पर सती का बदन गिरा। इसलिए यह स्थान चन्द्रबदनी कहलाया।
यह मंदिर लगभग अठारहवीं सदी में पंवार वंश के राजाओं द्वारा बनाया गया था तथा प्रति वर्ष चैत्र एवं असौज की महातिथियों को उनकी ओर से पूजन एवं अर्पण की सामग्री पहुँचायी जाती थी। इस मंदिर का पूजा कार्य दक्षिणीकाल के भट्ट ब्राहमणों को सौंपा गया था। आज भी चन्द्रबदनी की पूजा का एकछत्र अधिकार यहाँ पर पुजार गाँव के भट्ट ब्राहमणों के अतिरिक्त किसी को नहीं दिया जाता है। यह स्थान प्राकृतिक सौन्दर्य के दृष्टिकोण से एक अद्भुत स्थान है। अधिक ऊँचाई पर होने के कारण यह स्थल अनेक मनोहारी दृश्यों को देखने का केन्द्र बिन्दु भी है। इसके चारों ओर फैले बांज, बुरांश, चीड़, काफल के घने वृक्ष इसके सौन्दर्य को और अधिक बढ़ा देते हैं।
बुढ़ा केदार
यह भूमि टिहरी से उत्तर की ओर 60 किलोमीटर की दूरी पर मोटा मार्ग से जुड़ी है। इस तीर्थ को शास्त्रों में वृद्धकेदार के नाम में वर्णित किया गया है। बालगंगा और धर्मगंगा के संगम पर स्थित यहाँ बुद्ध केदारनाथ जी का मंदिर है। इस अत्यन्त प्राचीन मंदिर में पाण्डयों के चित्रों से अंकित विशाल लिंगनुमा शिला है। इस पर शिव-पार्वती के चित्र अंकित है। इस स्थान पर शनि का प्रतीक प्राचीन त्रिशूल है, जो पाण्डवकालीन बताया जाता है। तो इस मंदिर के परम्परागत पुजारी नाथ सम्प्रदाय के लोग है,जो मंदिर के समीपवर्ती गाँवों में बसे हैं।
सेम मुखेम
टिहरी से 50 किलोमीटर की दूरी पर लम्बगाँव है। लम्बगाँव से नौगार गाँव होते हुए चार किलोमीटर की दूरी मोटर मार्ग पर सेम मुखेम नागराज देवता का प्राचीन एवं ऐतिहासिक मंदिर हिमालय की सुरम्य घाटी के बीच 10,000 फीट की ऊंचाई पर 6 किलोमीटर लम्बे-चौड़े वर्गाकार मैदान में स्थापित है। 1818 में टिहरी रियासत के राज परिवार ने इसकी स्थापना की। सेम मुखेप का मेला विशाल निर्जन वन के मध्य हर तीन वर्ष में लगता है। गढ़वाल क्षेत्र से जुड़ा
प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह देश के किसी कोने में हो नागराज देवता के पूजन के लिए यहाँ अवश्य पहुँचता है। सेम मुखेम उतराखण्ड का महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थल है। यहाँ धार्मिकता, रमणीकता, ऐतिहासिकता और आध्यात्मिकता के दर्शन होते हैं।
श्री घंटाकर्ण देवता महाकुंभ
टिहरी गढ़वाल की पट्टी लोस्तु में बारह वर्ष के अंतराल में हरिद्वार के महाकुंभ के समान विशाल मेला लगता है। श्री घंटाकर्ण देवता को एक परचम घाटी देवता माना गया है। जो भी इसके दरबार में आया, खाली हाथ नहीं गया। कई धार्मिक ग्रन्थों में श्री घंटाकर्ण देवता की महिमा का विस्तार से उल्लेख है तथा यह भी लिखा गया है कि देशराज इन्द्र के पश्चात् देवताओं का राजा घंटाकर्ण देवता को बनाया गया। बारह वर्ष पश्चात आयोजित होने वाले महाकुंभ में समूचे उत्तराखण्ड के लोगों भाग लेते हैं। इस महोत्सव में कुछ चमत्कार अवश्य हैं, जिससे यह आभास होता है कि वास्तव में उत्तराखण्ड देवभूमि है, जहाँ देवता स्वयं प्रकट होकर अपने भक्तों को दर्शन देते हैं। इस मंदिर में छत्र, श्रीफल व घंटे चढ़ाये जाते हैं। यहाँ चारों ओर हजारो घंटे लटके हुए हैं, जो लोगों की भक्ति व आस्था का प्रतीक हैं।
पलेठी का सूर्य मंदिर
देवप्रयाग से 18 किलामीटर की दूरी पर देवप्रयाग-टिहरी मोटर मार्ग पर हिण्डोलाखाल के निकट सड़क से चार किलोमीटर नीचे भागीरथी के बायें तट पर पलेठी गांव के पास यह मंदिर अवस्थित है। यह विशाल मंदिर स्थ विन्यास शैली पर आधारित है। इसके द्वार को अनेक प्रकार की कलाकृतियों से सुशोभित किया गया है। गर्भगृह में इक्कीस इंच ऊँची पीठिका पर सप्ताश्वरथस्थ सूर्य की प्रतिमा प्रतिष्ठित की गयी है। जो अत्यन्त भव्य एवं मनमोहक है। सूर्य मंदिर के निकट सुन्दर कलश से सुशोभित एक शिव मंदिर भी है। स्थापत्यकला की दृष्टि से इसका भी अपना विशेष महत्त्व है। केदार खंड में भास्कर क्षेत्र कहकर इसकी महिमा का वर्णन किया गया है।
भिलंगना क्षेत्र
भिलंगना नदी टिहरी गढ़वाल के अन्तर्गत बहती है। यह नदी भागीरथी गंगा के सबसे बड़ी एवं लम्बी सहायक नदियों में से प्रमुख है। भिलंगना, जौलीपीक जो सागरतल से 21740 फीट की ऊँचाई, काण्ठापीक 21574 फीट और दो अन्य चोटियों के मध्य पश्चिमी-दक्षिणी ढाल के ग्लेशियरों से अनेक धाराओं के मिलने से बनती है। इसके उत्तरी ढाल का जल केदार गंगा और छुमेरे ग्लेशियर होकर गंगोत्री को चला जाता है। पंचारी सौड़ के समीप सब धारायें सम्मिलित होकर भिलंगना नदी को प्रवाहमान बनाती हैं। पंचारी सौड़ से 80 किलोमीटर जिला टिहरी गढ़वाल के अन्तर्गत प्रवाहित होती हुई टिहरी नगर के समीप पहुँचकर गणेश प्रयाग में भागीरथी से मिल जाती है। यह भी कहा जाता है कि इस नदी क्षेत्र के तटों पर भील जाति रहती थी। शायद इस कारण इस नदी एवं क्षेत्र को भिलंगना कहा जाता है।
गंगी गाँव
ऊपरी भिलंगा के अन्तर्गत धुत्त गाँव से लगभग 22 किलोमीटर तथा टिहरी नगर से 80 किलोमीटर की दूरी पर गंगी गाँव स्थित है। यह जिले का अन्तिम गाँव सागर तट से आठ हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित है। अधिक ऊंचाई पर होने के कारण यहाँ वर्ष भर ठंड रहती है। यहां ग्रामवासियों का आराध्यदेव समोसा देवता है। यह क्षेत्र वन सम्पदा सुरक्षित योजना, भेड़ पालन योजना तथा आलू पैदावार योजना के लिए उत्तम समझा जाता है। भिलंगना नदी के मूल पर नीलम पत्थर की खान भी पायी जाती है।
खतलिंग
भिलंग क्षेत्र में खतलिंग एक धार्मिक एवं सस्कृति प्रधान स्थान है। जनश्रुतियों के अनुसार प्राचीन काल में यहाँ पर एक विशाल शिवलिंग था, इसलिए इस क्षेत्र को खतलिंग के नाम से पुकारते हैं। यह क्षेत्र वन सम्पदा से काफी सम्पन्न है। यहाँ सूर्योदय सौन्दर्य देखने योग्य होता है। सतलिंगसे आगे का क्षेत्र निर्जन है तथा इसका ऊपरी भाग सदैव हिमाच्छादित रहता है।
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लेखक का परिचय
लेखक देवकी नंदन पांडे जाने माने इतिहासकार हैं। वह देहरादून में टैगोर कालोनी में रहते हैं। उनकी इतिहास से संबंधित जानकारी की करीब 17 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कुमाऊं के निवासी पांडे लंबे समय से देहरादून में रह रहे हैं।