प्रगतिशील क्लब की काव्य गोष्ठी में कवियों ने अपनी रचनाओं में सामाजिक विसंगतियों पर कसा तंज

गोष्ठी की शुरुआत में रईस फिगार ने दो शेर- न तुम बदले न हम बदले कोई मंजर नहीं बदला। बदल पैकर गया लेकिन जो था अंदर नहीं बदला। और बदलती इस जमाने की रही रफ्तार तो लेकिन, नहीं बदला तो मुफलिस का मुकद्दर नहीं बदला। सुनाकर सोचने पर मजबूर कर दिया। नदीम बर्नी ने इस शेर ‘आंखों से गुजारिश हो रही है, मेरी आजमाइश हो रही है।’ से महफिल को ऊंचाइयों तक पहुंचाया। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
दर्द गढ़वाली ने दो शेरों ‘रात दिन हमको खुदारा सोचे, वो हमारा है हमारा सोचे’ और ‘है अगर दुश्मन तो तोड़े ताल्लुक, दोस्त है तो दुबारा सोचे।’ से खूब दाद बटोरी। इकबाल आजर ने ‘ गांव में छप्पर के घर हैं, फिर भी कुशादा आंगन है। शहर में पक्के घर हैं लेकिन सिमटी सी अंगनाई है।’ शेर सुनाकर महफिल में चार चांद लगाए। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
महेंद्र प्रकाशी ने मुक्तक ‘अब भले ही मेरा ये सर जाए, रब करे उसको ये खबर जाए। चोर को चोर कह दिया मैंने, मारे मुझको या फिर वो मर जाए। ‘ सुनाकर वाहवाही बटोरी। इस मौके पर कौशल्या अग्रवाल, संदीप कुमार वेद, नितिन कुमार, विजय वीर ने भी काव्यपाठ किया। इस मौके पर संस्था के अध्यक्ष पियूष भटनागर और सचिव राहुल कोचगवे ने सभी कवियों का आभार व्यक्त किया।

Bhanu Prakash
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भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।