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November 22, 2024

श्री गुरु रामराय दरबारः देहरादून के जन्म और विकास की कहानी का गवाह

लेखकः देवकी नंदन पांडे

देहरादून की धरती में संस्कृति व आध्यात्म की ऐसी अंतरधाराएं सम्माहित है जो समय समय पर प्रस्फुटित होकर समूचे देश को अपनी रंगत से सरोबार करती रही है। ऐसी ही आध्यात्म की आत्मविच्छेदी परम्परा के द्योतक श्री गुरु रामराय, भारतीय दर्शन के विलक्षण आधार स्तम्भ थे।
गुरु रामराय जी ने दरबार साहिब व उसकी आस्था के प्रतीक झण्डा साहब को यहाँ स्थापित कर देहरादून के जन्म और विकास को एक नई परम्परा से जोड़ा है।
दरबार साहिब व झण्डा मेले के पीछे एक ऐसा इतिहास है, जो श्री गुरु रामराय के दून में आगमन के साथ प्रारम्भ होता है। गुरु रामराय सिख पंथ के सातवें गुरु हरराय के पुत्र थे। नवम् गुरु तेगबहादुर की शहादत के पश्चात् गुरु रामराय 1676 में यहाँ पहुँचे। यहाँ टौंस नदी के किनारे स्थित कांडली गांव में गुरु ने पहला पड़ाव किया। इसके पश्चात वे खुडबुड़ा पहुंचे और अपना डेरा डाला। इस स्थान पर ही माता पंजाब कौर से विवाह होना बताया जाता है।
गढ़वाल राज्य का हिस्सा था दून का यह क्षेत्र
जिस समय गुरु रामराय का दूण क्षेत्र में आगमन हुआ उस समय यह क्षेत्र गढ़वाल राज्य का प्रमुख हिस्सा था। इतिहासकारों के अनुसार उस समय गढ़वाल के शासक महाराजा फतेहशाह (1664 से 1716) थे तथा दिल्ली में औरंगजेब गद्दी पर बैठा था। महाराजा फतेहशाह ने गुरु रामराय को तीन गांव खुड़बुड़ा, राजपुर तथा चामासारी भेंट स्वरूप प्रदान किए। खुडबुड़ा में ही गुरु ने अपना डेरा स्थापित कियान और बाद में इसी क्षेत्र में दरबार की स्थापना हुई। यहीं पर झण्डा चढ़ाया जाने लगा।महाराजा फतेहशाह के बाद उनके नाती व गढ़वाल के शासक महाराजा प्रदीप शाह ने दरबार साहिब को धामावाला, मेहूँवाला, धर्माबाला व पंडितवाड़ी ग्राम भेंट किए।
महाराजा फतेहशाह द्वारा गुरु रामराय को ग्राम भेंट किए जाने सम्बन्धी विवरण माता पंजाब कौर के भित्ति लेख से भी मिलता है। नगर के मध्य में स्थित दरबार साहिब में गुरु रामराय भजन प्रवचन करते थे और श्रद्धालुओं को दर्शन देते थे। दरबार साहिब में स्थित दो भित्ति लेखों से स्पष्ट होता है कि सन् 1698 में गुरु राम राय ने शरीर त्यागा।
इस सम्बन्ध में प्रचलित मान्यता है कि उन्हें सूक्ष्म शरीर प्रवेश की सिद्धि प्राप्त थी। जब कभी वे अपने किसी भक्त को सहायता के लिए सूक्ष्म शरीर में प्रवेश करते थे तो माता पंजाब कौर उनके स्थूल शरीर (जो निर्जीव सा पड़ा रहता था) की रक्षा किया करती थीं। किवदन्ती है कि एक बार अपने एक भक्त की सहायता के लिए शीघ्र पहुंचने के लिए गुरु रामराय ने सूक्ष्म शरीर धारण किया और अपनी देह को माता पंजाब कौर को देख-रेख में छोड़ दिया। जब काफी दिन तक उनकी आत्मा लौटकर देह में नहीं आयी तो उनके कुछ सेवकों ने माता पंजाब कौर की मनाही के बावजूद गुरु की देह उनसे लेकर दरबार साहिब के बगीचे में उनका अन्तिम संस्कार कर दिया।
माता पंजाब कौर ने की दीन दुखियों की सेवा
गुरु रामराय के देह त्यागने के पश्चात दरबार का सारा भार माता पंजाब कौर पर आ गया। उन्होंने बड़ी कुशलता से इस दायित्व को निभाया। वह दीन-दुखियों की भरपूर सहायता करती थी। गुरु रामराय द्वारा स्थापित दरयार साहिब (जो पहले कच्चा बना था) को माता पंजाब कौर ने पक्का करवाया। उनके निधन के बाद उनकी गद्दी को आगे चलाने के लिए गुरू-शिष्य परम्परा आरम्भ हुई। जो ‘महन्त परम्परा’ के रूप में आज भी जारी हैं।
दरबार साहिब में हैं तीन द्वार
आज दरबार साहिब अपनी ऐतिहासिक, धार्मिक पृष्ठभूमि, वास्तुकला व भव्यता के कारण महान धरोहर के रूप में देहरादून की शोभा बढ़ा रहा है। असंख्य श्रद्धालुओं की आस्था इससे जुड़ी है।
विशाल क्षेत्र में स्थित दरबार साहिब परिसर में प्रवेश के तीन प्रमुख द्वार हैं। एक झण्डा साहिब की दिशा से, दूसरा दर्शनी गेट की ओर से है। इसके अलावा झण्डा साहिब के निकट ही एक अन्य प्रवेश द्वार भी है।


मुख्य भाग पर है समाधि स्थल
दरबार साहिब का मुख्य भाग समाधि स्थल है। एक विशाल चबूतरे पर स्थित इस कक्ष (गर्भ-गृह) मैं एक चांदी के कलश में गुरु रामराय की भस्म रखी है। इसी समाधि कक्ष में गुरू रामराय द्वारा प्रयुक्त ‘चन्दन’ की लकड़ी से बनी शैय्या रखी है। उनके द्वारा पूजा-अर्चना में प्रयोग किया जाने वाला सामान भी इसी कक्ष में रखा है। शैय्या के ठीक पीछे गुरु का दुर्लभ तैल चित्र टंगा है, जिसमें उन्हें घोड़े पर सवार व दाहिने हाथ में बाज लिए दिखाया गया है। इस गर्भगृह के चार द्वार है, मगर एक को छोड़ शेष तीन द्वार बन्द रहते हैं।
दरबार साहिब में जगह-जगह भित्ति लेख लगे हैं, जो अधिकांशतः माता पंजाब कौर द्वारा लगवाए गए थे। दरबार साहिब के मुख्य समाधि स्थल की छत व दीवारों पर आकर्षक चित्रकारी की गई है। मुगल शैली की यह चित्रकारी इस स्थान की शोभा में चार चांद लगाती है।
दरबार साहिब के महंत
गुरु रामराय व माता पंजाब कौर के बाद महन्त परम्परा आरम्भ हुई। श्री औधदास दरबार साहिब के प्रथम महन्त बने। उनके पश्चात महन्त हरप्रसाद, महन्त हरसेवक दास, महन्त नारायण दास, महन्त प्रयाग दास व महन्त लक्ष्मणदास। महन्त इन्द्रेशचरण दास ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया और वर्तमान में महन्त देवेन्द्र दास इस परम्परा का निर्वहन कर रहे हैं। देहरादून के सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक क्षेत्र में दरबार साहिब का विशेष योगदान है। खासकर शिक्षा के क्षेत्र में काफी काम किया गया है।


झंडे का मेला
प्रतिवर्ष होने वाला झण्डारोहण व ‘मेला’ देहरादून के जनजीवन का एक प्रमुख अंग बन चुका है। गुरु रामराय के देहरादून आगमन को स्मृति में प्रतिवर्ष झण्डे का मेला लगता है। गुरू के जन्म दिन चैतवदी पंचमी (होली के पांचवे दिन) पर हर वर्ष झण्डारोहण होता है। करीब 90-100 फीट ऊँचे वृक्ष की विधिवत् पूजा-अर्चना करके उसे झण्डे के रूप में स्थापित किया जाता है। झण्डे की लकड़ी हर तीसरे वर्ष कई किलोमीटर दूर जंगल से श्रद्धालु कंधों पर रखकर लाते हैं।


झण्डारोहण के साथ ही झण्डा मेला शुरू हो जाता है, जो करीब पन्द्रह दिन तक चलता है। झण्डारोहण के लिए पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश व गढ़वाल भर से लाखों की संख्या में श्रद्धालु यहां पहुंचते हैं तथा झण्डे साहिब पर रूमाल बांधकर मन्नतें मांगते हैं। कहते हैं कि झण्डासाहिब पर रूमाल, चुनरी बांध कर जो भी मनौती की जाती है वह अवश्य पूरी होती है। झण्डारोहण के तीसरे दिन नगर परिक्रमा की जाती है, जिसमें हजारों श्रद्धालुवदरबार साहिब के महन्त नंगे पांव शामिल होते हैं।
दरबार के भित्ति चित्र
सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में गुरुद्वारा झण्डा साहिब की स्थापना हो जाने पर भी श्री गुरु रामराय श्रीनगर गढ़वाल में ही रहे। वे वहां गढ़वाल नरेश के मुसाहिब कहलाते थे। गुरु रामराय दरबार का विकास कार्य गुरुओं और महन्तों ने कला, धर्म, संस्कृति आदि सभी धाराओं के अनुरूप किया। दरबार साहिब, चित्रकला एवं वास्तुकला का अनूठा संगम है। यह अपने आकार-प्रकार में मुगल स्थापत्य से मेल खाता है। इसका प्रवेश द्वार राजाओं के दरबार के समान है। इसमें मुगल, राजपूत और पहाड़ी शैली की कलात्मकता स्पष्टतया दृष्टिगोचर है। गुरु रामराय दरबार में भित्ति चित्रण भिन्न-भिन्न कालों में सम्पन्न हुआ। कला मर्मज़ों की दृष्टि में यहां की भित्ति चित्र शैली को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है।
(अ) मुगल परिवार का अंकन यहां हुआ है जैसे नूरजहां का चित्र, पृष्ठभूमि में तोता भी चित्रित है। इस प्रकार के चित्र, रंग योजना और रेखाओं के कोशल से प्रभावित दिखते हैं। ये चित्र मुगल शैली को दर्शाते हैं।
(ब)महन्त और गुरूओं से सम्बन्धित चित्रों में गुरू गोरखनाथ, अंगद, श्री गुरूनानक आदि के चित्र हैं। इनके वस्त्र व पहनावा, राजपूत और मुगल दोनों शैलियों के सम्मिश्रण को दर्शाते हैं।
(स) हिन्दू देवी-देवताओं के चित्रों की बहुतायत है। ब्रह्मा, विष्णु, लक्ष्मी, गंगा, इन्द्रसभा, पाण्डव-कौरव सभा तथा श्रीकृष्ण आदि पौराणिक कथानकों पर चित्रण अंकन आधारित हैं। पशु-पक्षी, भेड़-बकरी शेर, हाथी आदि का अंकन भी समुचित रूप में है।


पहले प्रवेश द्वार के दायें ओर की निचली दीवार पर महराब जैसे स्थान पर ऊपर पहले चित्र में महन्त नारायण दास झण्डा ले जाते हुए चित्रित हैं। उसी के नीचे दूसरे चित्र में महन्त नारायण दास को हाथी पर सवार दिखाया गया है तथा भक्तगण छतरी पकड़े हाथियों के झुंड के साथ चल रहे हैं।
तीसरे चित्र में श्रद्धालुओं की भीड़ झण्डे की सेवा करती दिख रही है। भित्ति की बीच की पट्टी पर ऊपर की ओर औरंगजेब और गुरू रामराय तीन टांग के बकरे के साथ चित्रित किये हैं। चित्रकार ने श्री गुरु रामराय के चमत्कारों से प्रभावित होकर ही इस चित्र की परिकल्पना को होगी। कला मर्मज्ञ इस प्रकार के चित्रों को सत्रहवीं शताब्दी के आस-पास का मानते हैं।
गुरु रामराय दरबार के भित्ति चित्रों पर भारतीय कला की विभिन्न शैलियों का प्रभाव है। यहां के चित्रों की पृष्ठभूमि, महराबों पर अंकित फूल-पत्तियाँ, पशुपक्षी और विभिन्न आकारों के वृक्ष हैं। इस प्रकार के सभी चित्रण स्वाभाविक और आकर्षक हैं। रंग योजना पहाड़ी, मुगल और कांगड़ा शैलियों की याद दिलाती है। तीन सौ से अधिक वर्ष पुराने कुछ चित्रों में तो ताजगी झलकती है, कुछ नष्ट प्राय: हो गये हैं।
इन चित्रों में कलाकार का नाम कहीं अंकित नहीं हैं। ऐसा अनुमान लगाया गया है कि ये सभी कलाकार सन्यासी प्रवृत्ति के रहे होंगे। समाज में अपना परिचय देना उन्हें उचित न लगा होगा। गुरू रामराय दरबार, मुगल संस्कृति और भारतीय संस्कृति के उदासीन सम्प्रदाय की मिश्रित देन है।


लेखक का परिचय
लेखक देवकी नंदन पांडे जाने माने इतिहासकार हैं। वह देहरादून में टैगोर कालोनी में रहते हैं। उनकी इतिहास से संबंधित जानकारी की करीब 17 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कुमाऊं के निवासी पांडे लंबे समय से देहरादून में रह रहे हैं।

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