Loksaakshya Social

Social menu is not set. You need to create menu and assign it to Social Menu on Menu Settings.

Social menu is not set. You need to create menu and assign it to Social Menu on Menu Settings.

April 19, 2025

रंगकर्मी विजय गौड़ की कविता, कितना कितना झूठ है मेरे चारों ओर

कितना कितना झूठ है मेरे चारों ओर
सच है जो भी, झूठ पर टिका
उक्‍ताहट की स्थितियों में
सबसे बड़ा सहारा है
तोड़ने को एक निर्मिति झूठ की
टूटे, यदि टूटने का संताप न हो
विक्षोभ न हो

सच है जीवन
सच हैं उसूल
सच है यह दुनिया

झूठ मूट की तसल्‍ली देने को गर न होती नौकरी
मुश्किल हो जाता सच पर खड़े रहना
वर्षों के झूठ को तजने के लिए
मेरा दोस्‍त देना चाहता है इस्‍तीफा,
उसकी भर्त्‍सना नहीं की जा सकती
कितने ही दिनों तक जीए गए झूठ के सहारे
वह सच्‍चाई पर टिका रहा
राय दो, उसने कहा

नौकरी हमारे सच को कायम रखने का आधार है
इस जलालत भरे झूठ की बदौलत ही
अपने सच के साथ कायम हूँ आज तक
ऐसा ही कुछ कह सकता था मैं,
उसने संशोधन किया,

है नहीं, रही

देने चाहता था सलाह,
नौकरी तो छोड़ दो बेशक
पर कोई दूसरा झूठ जरूर गढ़ लेना
जमाना उतना भला नहीं कि फिर उक्‍ताहट न हो

हर बार ढहेगा सच
ढहे कि उससे पहले
एक झूठ जरूर रखना अपने पास तोड़ने के लिए

दोस्‍त के निर्दोष संशोधन का मेरे पास
कोई जवाब नहीं,
एक झूठ को तोड़ कर
दूसरा झूठ रच पाने की
कोई युक्ति नहीं मेरे पास
पिछले दिनों ही तो खुद उक्‍ताहट में रहा
स्थितियों का जिक्र बेमानी है,
हर रोज की हैं
बस खींच दिया थोड़ा लम्‍बा
देहरादून से कलकत्‍ता

झूठी जुगतभर का समय
अब भी है मेरे पास
पर कब तक रहेगा, कोई नहीं कह सकता
दोस्‍त भी नहीं, मैं भी नहीं

झूठ ही हैं हमारे सच के आलम्‍ब
झूठ है मेरा लिबास, मेरी दाढ़ी, मूँछ
काट ही डालूँ तो कोई फर्क नहीं
जिनसे मुलाकात न हुई, बस बातें ही हुईं कभी
पहचान ही लेते हैं
मेरी खखार भी हो जाती है सहारा
मेरे चेहरे की औन्‍यार की उन्‍हें कोई जरूरत नहीं

अपनी ऑंखों की डोलती पुतली पर
अटक जाते भावों की झलक से
पहचान लिया जाता हूँ,
अजनबी आवाज सुनायी देती है
वही है, वही है;
उस दिन ट्रेन में मिला था,
अरे वही, जिसने खुद तम्‍बाकू बनाकर खिलाया था
हाँ, वही हूँ मैं जो उस दिन
पानी के लिए लाइन में खड़ा था,
एक ही आदमी को कई कई कण्‍टर भरते देख
भड़क गया था
हाँ, वही हूँ मैं, जिसको पुलिसवाले ने
कानून के डण्‍डे से लताड़ा
बना रहा खामोश, खड़ा रहा गुमसुम
हाँ, वही हूँ मैं
गम्‍भीरता के झूठ में हँस रहा था
फुहड़ होकर
नहीं, मुस्‍कराहट में छुपा रहा था
फिर कोई झूठ

झूठ का बोझ कहो, चाहे ताप
खबर आती है:
खुद ही धधक पड़े हैं चीड़ और देवदार के जँगल
निर्मितियों का चारों ओर घनघोर
उठ रहा शौर
वे, ऊँची और ऊँची आकृति में ढल रहे हैं
विश्‍व की सबसे ऊँची (बड़ी) दुर्गा गढ़ रहे हैं
कितना झूठा तर्क है;
कारीगरों को काम मिले
सिंगूर, नंदीग्राम के मारों को भी

सच है जबकि, नेताओं को दाम मिले
चँदा उठाने वाली टोली की भर जाए झोली
क्‍लब में चकाचौंध हो
चलता रहे खेल क्रिकेट
बना रहे, बना रहे
सिंडिकेट

यूँ भी सुना हुआ, सब सच कहाँ होता है
खुद के देखे हुए में भी रह जाता है अनदेखा बहुत कुछ
रेड रोड़ में हुआ एक तमाशा राजसूय
हुआ था वैसा ही दिल्‍ली में,
दौलताबाद में भी कभी

हर कोई देखे, सुने और याद रखे,
केरल को भी होना पड़ा भौकाल
धरने लगा रूप ईश्‍वर का
जबकि उसे तो करनी ही चाहिए थी
समुद्र से याचना:
थोड़ी सी गहराई दे दो मुझे।

हारे हुए समय में जीते हुए झूठ की बॉंह पकड़
चिल्‍ला रहा था एक और झूठ,
जीत लो, जीत लो
गँवा दिये गये भाण्‍डे-बर्तन
गँवा दिया गया हथकण्‍डा
परीक्षा में पास हो जाने का फण्‍डा

कुछ भी जीत लेने का अजमाया नुस्‍खा है
हर वक्‍त सबसे अव्‍वल साबित हों
झूठ भी बोलें तो सच ही लगे,
हमको नब्‍बे में जगह नहीं
वो देखो पचासी वाली टॉपर हो गयी
जाति विभेद की भट्टी में तपी हुई है दुधारी कटार
स्‍त्री के अंग अंग पर किया गया वार
यह भी है बलात्‍कार
इण्डिया गेट पर खड़े खड़े
निपट लेने को ललकार रहा
सार्वजनिक तौर पर एक मरदूद
अपराधियों पर अंकुश लगाने की बात झूठी है
कानून का राज
दिखावे की अँगूठी है
सूट का धागा है विशिष्‍ट
कोट का बटन भी
ओम नमो, ओम नमो
सिलाई भी तो है बेहद मजबूत

चोर जेब इठलाती है
एक झूठा जुमला
एक जुमला झूठ
बैंक खाता खुलवाने को उकसाता है

झूठ है, शिक्षा गुरूकुल का विधान रही
राज्‍य की चाकरी ही तो करते रहे आश्रम
चेला बनाऊ समय
आलोचना के दायरे में क्‍यों न आए फिर
अफसोस कि मेरा एक आत्‍मीय, प्रिय कवि भी
न जाने कितने कितने चेले लिए झूमता रहा
लेकिन, वे कम्‍बख्‍त, यारबाज चेले
और यारबाज उनका उस्‍ताद
मजबूर कर रहे कहने को,
कोई घिरा रहे कविता से
किसी को हरकत बनाये प्रशंसक

इक्‍कीसवी सदी के उनवान पर खड़े होकर
तालियाँ पीटते दर्शकों का उत्‍साह झूठा है
विकल्‍पहीनता की स्थिति में देखो
रक्‍त सने हाथों को ताज पहना दिया
लेकिन इतने भर से वे सारे के सारे
हत्‍यारों के संगी साथी तो हो नहीं जाते
कितने ही तो ऐसे हैं उनमें
हत्‍या को होते देखना तो दूर
किसी घटना को सुनकर भी
सो नहीं सकते चैन से,
सुन सकते हैं आप भी उनका बयान,
मुझे मत रखिये उन हत्‍यारों के साथ,
नारे देते हैं जो….
दूध माँगों खीर देंगें
कश्‍मीर माँगों चीर देंगें

कूट भाषा में लिखे गये संकेतकों का झूठ
वायरस कह कर पहचाना जाता है
वैसी ही कूट भाषा के संकेतकों में लिखा सच
अनाप सनाप दामों में बिकता है
नहीं खरीदोगे तो झूठ का वायरस
कर देगा तहस नहस
सभ्‍यता, इतिहास, संस्‍कृति
ज्ञान-विज्ञान और मानवीय कार्यकलापों के
जितने भी दस्‍तावेज को बदलकर कूट संकेतकों में
मान लिया है सुरक्षित
है ही नहीं सुरक्षित
कूट भाषा का कोई झूठ जब चाहे कर सकता है चौपट
वैसे सच की पुडि़या भी झूठ मूट का ही एक प्रोग्राम है
घंटों, मिनटों और सैकेण्‍डों के साथ
‘अपडेट’ होता रहता है
आप खुद देख सकते हैं
अपडेट के वक्‍त ब्लिंक करता है
एक पॉपअप मुखबिर झूठ का
अभी कुछ देर पहले जुटाया गया सच
बिना लगातार कीमत चुकाये
सचमुच में सच्‍चा रह नहीं सकता जनाब
भूखे रह कर उनसे निपटना मुश्किल है
वैसे भूखे तो वे भी कम नहीं
तृप्ति के आसन जगाती है उनकी भूख
पर आप बने रहें अपनी भूख के साथ
और मुठभेड़ करें एक तृप्‍त भूख से

अकेली भूख बहुत उदासीन होती है
मिटाने की भी इच्‍छा होती नहीं
एक जैसी भूख जब संयोग करती हैं
तृप्ति के चरम से सतरंगी होता है आकाश

हवस की भूख तो
आसनों की भूख हो जाती है
108 आसनों वाले योगी से पूछो
नून, तेल, साबून बेचने को उकसाने वाली भूख
किस आसन से मिट सकती है महाराज
भूख की सच्‍ची हवस में डूबा कारखानेदार
कड़े से कड़े करता है कानून
सच की भूखी छटपटाहट में
एक सच्‍चा कामगार
कौशल और दक्षता से
नये से नये मानक गढ़ देता है
उत्‍पाद के ढेर लगा देता है
बेहया पूंजी की भूख तो
झूठमूट का सुख है, व्‍यापार है, छल है


रचनाकार का परिचय

नाम: विजय गौड़
जन्‍म: 16 मई 1968
शिक्षा: विज्ञान स्‍नातक, एम ए (हिन्‍दी)

प्रकाशित कृतियाँ:
कविता संग्रह- ‘सबसे ठीक नदी का रास्‍ता’ (धाद प्रकाशन, देहरादून), नए कविता संग्रह ‘मरम्मत से काम बनता नहीं’
उपन्‍यास- ‘फाँस’ (भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्‍ली) , ‘भेटकी’ (अनन्‍य प्रकाशन, नई दिल्‍ली)
कहानी संग्रह- ‘खिलंदड ठाट’ (दखल प्रकाशन, नई दिल्‍ली), पोंचू (प्रकाशनाधीन)
संप्रति: रक्षा संस्‍थान के उत्‍पादन विभाग में कार्यरत
मोबाइलः 09474095290
मेलः vggaurvijay@gmail.com

 

Website |  + posts

लोकसाक्ष्य पोर्टल पाठकों के सहयोग से चलाया जा रहा है। इसमें लेख, रचनाएं आमंत्रित हैं। शर्त है कि आपकी भेजी सामग्री पहले किसी सोशल मीडिया में न लगी हो। आप विज्ञापन व अन्य आर्थिक सहयोग भी कर सकते हैं।
वाट्सएप नंबर-9412055165
मेल आईडी-bhanubangwal@gmail.com
भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You cannot copy content of this page