डॉ. स्वामीराम का महासमाधि दिवस आज, विश्व के महान व्यक्तियों की सूची में 12वें स्थान पर, जानिए उनका जीवन संघर्षः देवकी नंदन पांडे
स्वामी राम के पिता संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान थे, वह सम्पन्न मगर उदार व्यक्तित्व के स्वामी थे। उनकी माता भी सरल, दयालु व दानवीर महिला थीं। सन् 1925 में पौड़ी जनपद के तोली-मल्ला बदलपुर पौड़ी गढ़वाल में स्वामीराम का जन्म हुआ। ब्राह्मण परिवार में जन्मे स्वामी जी का बचपन हिमालय क्षेत्रों में ही व्यतीत हुआ। इन पर्वतीय क्षेत्रों में रहकर उन्होंने जीवन की दिशा तलाश की। किशोरावस्था में ही स्वामीराम ने संन्यास की दीक्षा ली। 13 वर्ष की अल्पायु में ही विभिन्न धार्मिक स्थलों और मठों में हिंदू और बौद्ध धर्म की शिक्षा देना शुरू किया। 24 वर्ष की आयु में वह प्रयाग, वाराणसी और लंदन से उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद कारवीर पीठ के शंकराचार्य पद को सुशोभित किया।
वयस्क होने पर स्वामी राम ने संत, योगी और फकीरों के साथ गढ़वाल, कुमाऊं, कांगड़ा, कश्मीर और तिब्बत की यात्रा की। उनके सम्मोहक व्यक्तित्व और कृतित्व से प्रभावित होकर जनता उन्हें भोले प्रभु और भोले बाबा कहने लगी। पश्चिम और पूर्व की सतत विवेचना पर कार्य करते हुए उन्होंने शरीर और मस्तिष्क के बीच की वैज्ञानिक सोच को प्रतिपादित किया।
स्वामी जी ने गुरू के आदेश पर सन् 1969 में अमेरिका जाकर विज्ञान और आध्यात्मिकता को पहचाना। 1970 में अमेरिका में उन्होंने कुछ ऐसे परीक्षणों में भाग लिया, जिनसे शरीर और मन से संबंधित चिकित्सा विज्ञान के सिद्धांतों को मान्यता मिली। उनके गहन अध्ययनों पर रिपोर्ट विश्व पुस्तक विज्ञान वार्षिकी सन् 1974 में सम्मिलित की गयी। उनके इस शोध को 1973 में इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका ईयर बुक ऑफ साइंस व नेचर साइंस एनुअल और 1974 में वर्ल्ड बुक साइंस एनुअल में प्रकाशित किया गया। इन अध्ययनों के लिए टाइम, लाईफ, नेचुरल साइंस और दूसरे अनेक प्रभावी प्रकाशनों में भी महत्व दिया गया। अपने जीवन में लम्बे समय तक उन्होंने चर्च और दूसरे धार्मिक स्थलों, विश्वविद्यालय, मेडिकल कालेजों में व्याख्यान दिए। इन सबसे इतर दुनिया उन्हें मानव सेवा के संदेश वाहक के रुप में भी जाना जाता है।
स्वामी राम न हिंदू संत थे न मुस्लिम संत थे। न पहाड़ी संत वह केवल मानव संत थे। वह हिमालय पुत्र थे और हिमालय की संस्कृति, जीवन और उनके विविध आयामों पर जीवन के अन्तिम क्षणों तक गहनता से काम करते रहे। स्वामी जी को पर्वतीय क्षेत्र के लोगों और उनकी संस्कृति से इतना गहन प्रेम था कि वह सारी उम्र उसके प्रचार-प्रसार के लिए देश ही नहीं विदेशों में भी भ्रमण करते रहे।
सन् 1971 में स्थापित हिमालयन इन्स्टीट्यूट ऑफ योगा सांइस एण्ड फिलास्फी तथा हिमालयन इन्स्टीट्यूट ऑफ हास्पिटल ट्रस्ट की स्थापना का सीधा सा उद्देश्य था कि यहां के लोगों की अधिक से अधिक सेवा की जाए। दस से अधिक पुस्तकों के रचयिता डॉ. स्वामी राम को देश-विदेश में अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था। सन् 1966 में उन्होंने ऋषिकेश में गंगा तट पर साधना मन्दिर आश्रम स्थापित किया, जिसमें ध्यान तथा प्राचीन दर्शन शास्त्र के मूल ग्रंथों पर गोष्ठियां आयोजित की जाती हैं।
देहरादून के निकट जौलीग्राण्ट में स्वामी जी ने हिमालयन इन्स्टीट्यूट हास्पिटल ट्रस्ट की स्थापना की। इसका प्रारम्भ सन् 1989 में हुआ था। 25 वर्ष से भी कम समय में इस ट्रस्ट द्वारा समस्त आधुनिकतम सुविधाओं से पूर्ण अस्पताल, एक मेडिकल कालेज, ग्राम विकास केन्द्र तथा एक स्वत:पूर्ण स्वास्थ्य केन्द्र का निर्माण किया है।
बहुआयामी व्यक्तित्व स्वामी राम ने सन् 1996 में देह लोक को त्यागकर स्वर्ग लोक की यात्रा की। स्वास्थ्य सुविधाओं से महरुम उत्तराखंड में विश्व स्तरीय चिकित्सा संस्थान बनाने का स्वामीराम ने सपना देखा था। उन्होंने अपने सपने को आकार देना शुरू किया 1989 में। इसी साल उन्होंने गढ़वाल हिमालय की घाटी में हिमालयन इंस्टिट्यूट हॉस्पिटल ट्रस्ट की स्थापना की। ग्रामीण क्षेत्रों तक स्वास्थ्य सुविधाओं के पहुंचाने के मकसद से 1990 में रुरल डेवलपमेंट इंस्टिट्यूट (आरडीआई) व 1994 में हिमालयन अस्पताल की स्थापना की। प्रदेश में डॉक्टरों की कमी को महसूस करते हुए स्वामी जी ने 1995 में मेडिकल कॉलेज की स्थापना की।
नवंबर 1996 में स्वामी राम ब्रह्मलीन हो गए। इसके बाद स्वामी जी के उद्देश्य व सपनों को साकार करने का जिम्मा उठाया ट्रस्ट के अध्यक्षीय समिति के सदस्य व स्वामी राम हिमालयन यूनिवर्सिटी के कुलपति डॉ. विजय धस्माना ने। डॉ.धस्माना की अगुवाई में ट्रस्ट निरंतर कामयाबी के पथ पर अग्रसर है। 2007 में कैंसर रोगियों के लिए अत्याधुनिक अस्पताल कैंसर रिसर्च इंस्टिट्यट (सीआरआई) की स्थापना की। 2013 में शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल करते हुए जॉलीग्रांट में स्वामी राम हिमालयन विश्वविद्यालय (एसआरएचयू) स्थापना की गई। इसके तहत सभी शिक्षण संस्थाएं संचालित की जा रही हैं।
जब उत्तराखंड में स्वास्थ्य सेवाएं लचर थीं। इलाज के लिए लोगों को दिल्ली या चंडीगढ़ पीजीआइ तक दौड़ लगानी पड़ती थी, उस दौरान स्वामीराम सामने आए और उन्होंने यहां के दूर दराज के पर्वतीय अंचलों के लोगों को जीवनदान देने की दिशा में कदम बढ़ाए। जब हिमालयन इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल ट्रस्ट की नींव पड़ने लगी तो उन्हें कुछ राजनीतिक लोगों की राजनीति का शिकार भी होना पड़ा। कुछ लोगों ने मेडिकल कॉलेज का विरोध किया। धरने दिए गए। ये वर्ष 1994 की बात है।
तब विरोध कर रहे लोगों से डॉ. स्वामीराम ने कहा कि मैं विदेशों में झोली फैलाकर जो कुछ कमाकर ला रहा हूं, उससे यहां के लोगों का भला करने जा रहा हूं। देखना एक दिन सब लोग कहेंगे कि उनके लिए कितना बड़ा काम किया गया। इससे यहां के लोगों की भलाई ही होगी। विरोध के बावजूद वह अपने निश्चय से नहीं डिगे और हिमालय अस्पताल की नींव पड़ी। मेडिकल कॉलेज बना। उत्तराखंड के दूर दराज के लोगों को इलाज मिला। वाकई उन्होंने तब सच ही तो कहा था। इसका लाभ यहां के लोगों को मिलने लगा। यही नहीं आज भी यूपी के निकटवर्ती जिलों के लोग जब निराश हो जाते हैं तो इलाज के लिए इसी अस्पताल में आते हैं। ये है स्वामी स्वामीराम की ओर से दी गई उत्तराखंडवासियों को एक सौगात।
लेखक का परिचय
लेखक देवकी नंदन पांडे जाने माने इतिहासकार हैं। वह देहरादून में टैगोर कालोनी में रहते हैं। उनकी इतिहास से संबंधित जानकारी की करीब 17 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कुमाऊं के निवासी पांडे लंबे समय से देहरादून में रह रहे हैं।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।