दादी का निशाना और नेताजी के वायदे, भूतकाल की बातों को उड़ाओ चाय की चुस्कियों में-एक व्यंग्य
इंसान के जीवन में वर्तमान का जितना महत्व है, उतना ही उसके भूत व भविष्य का भी है। तभी तो भूतकाल से सबक लेकर व्यक्ति अपने वर्तमान को बेहतर बनाने का प्रयास करता है। साथ ही उज्ज्वल भविष्य का ताना-बाना बुनता है।

दिसंबर का महीना। अब मुंह चिढ़ा रहा है। शीतलहर की शुरूआत हो गई है। पाला पड़ने लगा और फसल में रोग लगने की चिंता भी किासनों को सताने लगी। कोयल को भी सर्दी लगी है तो सुबह उसकी कूक कम ही सुनाई देती है। रात को गलियों के कुत्ते भौंकने की बजाय कहीं दुबक कर बैठ रहे हैं। सर्दी में वे भी सुरक्षित ठोर की तलाश में रहते हैं। जान की सबको परवाह है। सिर्फ नेताजी को सर्दी नहीं लगती। वे मदमस्त होकर चुनावी माहौल बना रहे हैं।
नेताजी भी, जो पांच साल तक लेता थे, अब दानदाता बने हुए हैं। वोट मांगते हैं तो वादे व कसमों से भी नहीं चूकते हैं। टेलीवीजन में विज्ञापन देखकर अब वो भी जवाब देने को तैयार है। वह भी पलटकर कह सकती है कि – नो उल्लू बनाईंग। पिछले आश्वासन का क्या हुआ। ऐसे में नेताजी का असहज होना भी लाजमी है। इसके बावजूद जनता में इतना डर बैठा हुआ है कि वो व्हाट्सएप के अलावा किसी और दिखा में नहीं जा रही है। सुबह से नफरत भरे मैसेज भेजने में रिटायर्ड कर्मचारी मशगूल हो जाते हैं। हांलाकि जनता के पास ज्यादा विकल्प नहीं है। उसे उन्हीं चेहरों से एक को चुनना है, जो चुनाव मैदान में हैं। फिर भी मुकाबला रोचक है।
गांव में सड़क, बिजली, पानी पहुंचाने का नारे अब फीके पड़ने लगे हैं। कुछ नया नेताजी के पास नहीं है। फिर भी कई गांव ऐसे हैं जहां के लोगों ने आज तक सड़क न होने से मोटर तक नहीं देखी। बिजली का बल्ब कैसे चमकता है यह भी उन्हें नहीं पता। इस हाईटेक युग में ऐसी बातें की जाएं तो कुछ अटपटा लगता है। भूत, वर्तमान व भविष्य से अपनी बात शुरू करने के बावजूद शायद मैं भी विषय से भटक गया। पुरानी बातों का महत्व याद करते करते नेताजी बीच में टपक गए। बात हो रही थी कि विकास शहरों तक ही सीमित रहा। गांव में तो यह अभी कोसों दूर है। आफिसों में एसी लगे हैं। घर में पंखा चलाने से लोग इसलिए कतराते हैं कि बिजली का बिल ज्यादा आ जाएगा। वही लोग सर्दी हो या गर्मी आफिस पहुंचते ही एसी का बटन ऑन कर देते हैं। फिर जब दूसरे साथियों को दिक्कत होती है तो एसी बंद करने को लेकर माहौल गरमाने लगता है। कोई कहता है कि गर्मी है, तो दूसरे को सर्दी लगने से बुखार चढ़ने लगता है। एक साहब बार-बार बटन ऑफ करते फिर कुछ देर बाद एसी खुद ही ऑन हो जाता। ऐसे में साहब को यह नहीं सूझ रहा था कि क्या करें।
ऐसे ही एक बार जब गर्मी थी और सर्दियां आने वाली थी, तो एक साहब एसी को लेकर इतने परेशान हो गए कि उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा था। उनके सिर पर बाल नहीं थे, और जहां से हवा आती है, उनकी सीट ठीक उसके नीचे थी। वह गर्मी में भी आफिस में अपनी सीट पर बैठने के लिए जैकेट पहनने लगे। मुझसे उनकी व्यथा देखी नहीं गई और मैने उन्हें एक कहानी सुनाई। यह कहानी मेरे दूर के एक चाचा ने सुनाई थी। उनकी दादी पहली बार गांव से शहर में आई। पहली बार वह बस में बैठी। रास्ते में इतनी डरी कि तबीयत खराब हो गई। रास्ते भर उल्टी की शिकायत रही। घर पहुंची तो एक पोते ने दादी को कैंपाकोला (कोल्ड ड्रिंक) की बोतल खोलकर दी और कहा कि इसे पिओ तबीयत ठीक हो जाएगी।
तभी दूसरा नाती वहां आया और नमस्ते की जगह बोला-हेलो दादीजी। दादी ने समझा कि वह बोतल हिलाने को कहा रहा है। उसने भी वही किया। जोर-जोर से बोतल हिलाने लगी। सारी कोल्ड ड्रिंक एक झटके में उछलकर बोतल से बाहर हो गई और दादी के कपड़ों में गिर गई। दादी परेशान। तभी दूसरे पौते ने कहा कि दादी परेशान हो गई। उसने घरबाई दादी को कुछ इस तरह बैठने को कहा-दादीजी सोफे में बैठ जाओ। दादीजी कमरे में सुफ्फा (अनाज फटकने वाली छाज) तलाशने लगी। फिर वह बिगड़ी की मुझे सुफ्फे में बैठाएगा। कितना शैतान हो गया है गोलू। दादीजी को समझाया गया कि बैठने की गद्दीदार बड़ी कुर्सी को शहर में सोफा कहा जाता है। तब वह शांत हुई।
दादीजी की मुसीबत यहां भी कम नहीं हुई। रात को सोने के लिए दादीजी के लिए एक कमरे में बिस्तर लगाया गया। रात को सोने से पहले पोते ने समझाया कि जब सोने लगोगी तो बिजली का बटन आफ कर देना। दादी बोली मुझे सिखाता है। मैं लालटेन बंद करना जानती हूं। सुबह दादी के कमरे में उनकी बहू चाय लेकर पहुंची। देखा कि फर्श में कांच फैला हुआ है। सास आराम से सो रही है। बहू घबरा गई। उठाकर पूछा कि बल्ब कैसे फूट गया। इस पर सास ने उल्टे सवाल किया कि बहू कैसी लालटेन कमरे में टांगी। काफी देर तक फूंक मार-मार कर थक गई, लेकिन यह बुझने का नाम ही नहीं ले रही थी। फिर जूता मारकर बुझाने का प्रयास किया। जब निशाना सही नहीं लगा तो छड़ी उठाकर इसे फोड़ डाला।
मित्र बोले क्या तुम यह चाहते हो कि एसी जब बार-बार तंग कर रहा हो तो उसा बटन तोड़ दूं। यह नहीं हो सकता। मेरी नौकरी चली जाएगी। इससे अच्छा तो यह है कि एसी का अत्याचार सह लूंगा। अब देखो वही तो हो रहा है। नेताजी उल्लू बना रहे हैं, जनता सह रही है। कहीं तो उन पर थप्पड़ पड़ रहे है और कहीं कोई जूता तक फेंक रहा है। कोई भाषा की मर्यादा को पार कर रहा है। तो कोई लॉलीपॉप बांट रहा है। कहीं नेताजी स्मारकों पर जोर दे रहे हैं कि इनसे जनता का पेट भर जाएगा। जनता गरीब होती जा रही है। 80 करोड़ लोग मुफ्त राशन के लिए लाइन में खड़े हो रहे हैं। वहीं, दूसरे दल ने 300 यूनिट फ्री बिजली का वादा किया तो इसे मुफ्तखोरी करार दिया गया। रोजगार, गरीबी, महंगाई जैसे मुद्दे गायब हैं। हिंदू-मुस्लिम, जाति, पाति की डिबेट से लोगों से पेट भर जाएंगे। उत्तराखंड की बिजली व्यवस्था को इंटरनेट में तलाश किया तो ढेरों समाचार पत्रों के साथ पोर्टलों में ऐसी न्यूज मिल गई कि यहां पांच दिन से, तो वहां दस दिन से बिजली नहीं है। यही नहीं, सर्दियों में भी देहरादून के कई इलाकों में हर सुबह छह बजे से बिजली उस समय गुल की जाने लगी, जब सुबह लोग आफिस, स्कूल, व्यवसाय आदि की तैयारी में जुट जाते हैं। दोपहर 12 बजे तक बिजली आती है। ये मुद्दा भी नेताजी के ऐजेंडे से गायब है। सब सैनिकों को लुभाने की कोशिश में जुटे हैं।
ऐसे नहीं है कि जनता में आक्रोश न हो। पहले कई बार भारत से लेकर अमेरिका तक नेताओं को जनता के आक्रोश का सामना करना पड़ा। कई बड़े नेताओं पर जूतों का निशाना समय-समय पर लगाने का प्रयास होता रहता है। पर दादी के निशाने की तरह उनका भी निशाना चूक जाता है। नेताजी बेशर्म हैं। जितने ज्यादा निशाने लगते हैं उतनी ज्यादा ही उनकी लोकप्रियता बढ़ती है। वैसे भी अब दादी वाली हिम्मत के लोग गायब हो चुके हैं। ऐसे लोग भी अब कम ही हैं जो लोग नो उल्लू बनाईंग कहकर पुरानी बातें याद दिला सकें। महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी (मुफ्त राशन लेने वाले 80 करोड़ लोग एक सरकारी आंकड़ा) सब झेलने को लोग तैयार हैं। उन्हें इससे कोई लेना देना नहीं है। हां, नफरत फैलाने वाले मैसेज को फारवर्ड करने में जरूर दिलचस्पी है। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है कि बेटा घर में बेरोजगार बैठा हो। उसके लिए सरकारी नौकरी नहीं है। खुद सरकारी नौकरी की, अब कहते हैं कि वहां काम नहीं होता।
उन्हें ये भी फर्क नहीं पड़ता कि पेट्रोल की कीमतें देश को आर्थिक रूप से मजबूत करने के लिए लगातार बढ़ाई गई। उससे जुटाए अर्थ से बड़ी बड़ी जनसभाओं को विलासिता में बदलने में खर्च किया गया। लोगों की जेब के पैसे से रैलियों में लोगों को ढोने के लिए खर्च किया गया। सरकारी खर्च से राजनीतिक मंच सज रहे हैं, तो क्या फर्क पड़ता है। बैंक कर्मचारी आंदोलन पर तब उतरे, जब उनके ऊपर आ बनी। इससे पहले तो वे भी मजा लेते रहे होंगे। जब वेतन नहीं मिलता तो सरकारी कर्मचारी भी हुड़की देते हैं। छह छह माह तक बगैर वेतन के शिक्षक आंदोलन की चेतावनी जरूर देते हैं, लेकिन वही शिक्षक सुबह के समय वाट्सएप इंडस्ट्री का टूल बनकर खुद को गौरवांवित महसूस करते हैं। जब अपने सिर पर आती है तो हाय हाय करने लगते हैं। यही हो हो रहा है। दूसरे पर जब पड़ती है तो मजा लो, फिर पुरानी बातों को भूल जाओ। उनकी नजर में पुरानी बातें तो सिर्फ चुस्कियां लेने भर की हैं, सबक लेने के लिए नहीं।
भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।