छोटी सी सोच का बड़ा जादू, ज्यादा सोचने से मिल सकता है धोखा, नहीं मिलता दूसरा मौका
कहावत है कि बगैर सोचे समझे कोई काम नहीं करना चाहिए। जल्दबाजी में किया गया काम हमेशा गलत हो जाता है। इसके उलट भी कई बार जल्दबाजी में ही निर्णय लेने पड़ते हैं। यदि निर्णय का परिणाम अच्छा आया तो काम बन गया और यदि गलत हुआ तो सोचने के लिए काफी कुछ बचा रहता है।
सोचने में बच्चों की कल्पना शक्ति का कोई जवाब नहीं होता। कई बार बच्चों के सवालों का त्वरित जवाब देना भी मुश्किल हो जाता है। मेरा छोटा बेटा जब दूसरी कक्षा में पढ़ता था तो उसने सवाल किया कि मौर के पंख मौरनी से ज्यादा बड़े होते हैं। वह भारी भी होता है, फिर ऐसे में वह उड़ता कैसे है। सवाल सही था और उस समय मेरे पास इसका जवाब नहीं था। उसने मुझे सोचने का समय दे दिया।
जवाब तलाशने के लिए मैने कोटद्वार में पत्रकार साथी अजय खंतवाल को फोन मिलाया। अजय वन्य जीवों पर लेख लिखते रहते थे। उसे मैने जवाब तलाशने और लेख लिखने को कहा। जवाब आया और अच्छी रोचक स्टोरी बनी। पता चला कि नर मौर को उड़ने में खासी परेशानी होती है। पहले वह जहाज की तरह जमीन में दौड़ लगाता है, फिर छोटी उड़ान भरता है। सचमुच छोटे बच्चे की सोच से बड़ा जादू निकलकर सामने आया।
लड़कपन में मुझे फौज में भर्ती होने की तमन्ना थी। दिल्ली में सीआरपीएफ में की भर्ती का फीजिकल टैस्ट देने गया। खेलकूद में रहने व एनसीसी के कारण इसमें मुझे कोई दिक्कत नहीं आई। कई ऐसे थे जो हर टैस्ट में फैल होते गए। ऐसे ही एक से मैने पूछ लिया कि बगैर तैयारी के वह क्यों आया। उसने मजाक में कहा कि वह तो यह बताने आया कि उसके भरोसे मत रहना। फीजिकल के बाद लिखित परीक्षा में मैं भी फेल हो गया। तब मैं सोचता था कि कुछ और तैयारी करता तो पास हो जाता।
अब सोचता हूं कि शायद तब अच्छा ही हुआ। भर्ती होता होता तो पंद्रह या सत्रह साल की नौकरी के बाद अब रिटायर्ड भी हो चुका होता। तब मेरे हाथ में बंदूक होती और जब रिटायर्ड होता तो हो सकता है हाथ में डंडा होता। अब अपनी सोच को शब्दों में ढालने के लिए हर रोज प्लास्टिक पीटता हूं। कंप्यूटर का की बोर्ड प्लास्टिक ही तो है । इसकी जितनी पिटाई होती है उतने ही शब्द स्क्रीन पर उभरते हैं। ये तो लौहार का हथौड़े वाला काम नहीं है कि एक दो बार चलाओ और काम हो गया। इसे तो सुनार की तरह बार बार पीटना पड़ता है। जितना पीटोगे, शब्द उतने निखरने लगेंगे।
बैसे ज्यादा सोचने वाले की फौज में जरूरत भी नहीं है। इसका अहसास मुझे तब हुआ जब मैंने आइटीबीपी की भर्ती के लिए देहरादून में फीजिकल टैस्ट दिया। पहले दिन लंबाई, दौड़, हाईजंप. लंबीकूद आदि में मैं पास हो गया। हजारों लड़के बाहर हो गए। छांटे गए युवकों को आगे के टैस्ट के लिए दूसरे दिन भी बुलाया गया। शाम को घर पहुंचा तो पूरे मोहल्ले के लोग घर में बधाई देने पहुंच गए। मोहल्ले वालों ने तब यही सोचा कि अब तो मैं भर्ती हो ही जाउंगा। दूसरे दिन गोला फेंक प्रतियोगिता थी। इससे पहले हर इवेंट में दो चांस मिल रहे थे। गोला फेंक में पहली बार में ही मैं बाहर हो गया और दूसरा चांस दिया ही नहीं गया। इस पर मैं और मेरी तरह अन्य युवक कमांडेंट के पास गए।
उनसे एक और चांस देने का आग्रह किया। इस पर कमांडेंट ने सवाल दागा कि वह तुम्हें क्यों दूसरा चांस दे। इस पर एक युवक ने कहा कि मैने सोचा कि हर बार की तरह दोबारा चांस मिलेगा। तब कमांडेंट का कहना था आप सोचते बहुत हो। समाने दुश्मन होगा तो आप सोचते रह जाओगे और दुश्मन तब तक ढेर कर देगा।
कई बार व्यक्ति नया काम करने से पहले उसके साकारात्मक परिणाम की बजाय उसके नाकारात्मक पहलू पर ज्यादा सोचने लगते हैं। ऐसे में उनके काम का बेहतर परिणाम नहीं आता। इसीलिए कहा गया है कि साकारात्मक सोचो तो परिणाम भी अच्छा होगा।
भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।