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March 12, 2025

चुनावी मौसम में उड़ रहे गुब्बारे, देखना ये है कि किसकी हवा में दमः एक संस्मरण

लाल हरे, पीले, नीले गैस से भरे गुब्बारे। भला किसे अच्छे नहीं लगते। बच्चे इन गुब्बारों को पाने के लिए लालायित रहते हैं। बड़ों को भी ये बुरे नहीं लगते। विवाह समारोह हो या फिर कोई अन्य आयोजन।

लाल हरे, पीले, नीले गैस से भरे गुब्बारे। भला किसे अच्छे नहीं लगते। बच्चे इन गुब्बारों को पाने के लिए लालायित रहते हैं। बड़ों को भी ये बुरे नहीं लगते। विवाह समारोह हो या फिर कोई अन्य आयोजन। कहीं सजावट करनी हो तो अब गुब्बारों का प्रयोग भी किया जाने लगा है। फिर भी मैं बचपन से ही गुब्बारे देख रहा हूं और उनके स्वरूप में जरा भी अंतर नजर नहीं आया। देहरादून में होली के पांचवे दिन झंडे का मेला लगता है, जो करीब एक माह तक रहता है। इस मेले का मुझे बचपन में बेसब्री से इंतजार रहता था। मां व पिताजी एक बार मेला जरूर ले जाते थे, लेकिन मुझे वे सब खिलौने नहीं मिलते जो मैं लेना चाहता था। कारण की छह भाई बहनों में किस-किस की मुराद पूरी होती। सो कुछ खाने को जरूर मिलता, वहीं खिलौने के नाम पर कभी बांसुरी मिल जाती या फिर एक किरमिच (कॉस्को) की बॉल। जो शायद तब पचास पैसे या फिर एक रुपये में आती थी। गुब्बारे को देख कर मैं ललचाता, लेकिन पिताजी का तर्क यही होता कि इसमें हवा भरी है, घर तक पहुंचने से पहले रास्ते में फूट जाएगा। ऐसे में इसे खरीदना फिजूल खर्ची है। ऐसे खिलौने लो, जो कुछ दिन तक बचे रहें।
गुब्बारे देख मैं सोचा करता कि यदि मेरे पास गैस का गुब्बारा हो तो मैं उसमें धागे की पूरी रील जोड दूंगा। वह आसमान में इतना ऊपर जाएगा कि शायद किसी का गुब्बारा उतना ऊपर न गया हो। पतंग से भी ऊपर मैं अपने गुब्बारे को पहुंचाऊंगा। पर किस्मत में गुब्बारा था नहीं। मेले के अलावा मुझे कभी गुब्बारे वाला दिखाई नहीं देता था। मेला घर से काफी दूर था। अकेले जाकर मैं उसे खरीद नहीं सकता था। हर बार मन मसोसकर रह जाता।
तब मैं तीसरी जमात में पढ़ता था। स्कूल घर से करीब तीन किलोमीटर दूर था। पैदल ही स्कूल जाना होता था। एक दिन इंटरवल के दैरान मैने देखा कि स्कूल के गेट के सामने एक गुब्बारे वाला खड़ा है। छोटी सी उसकी रेहड़ी में एक गंदा का सिलेंडर रखा था। साथ ही कुछ गुब्बारे धागे से रेहड़ी में बंधे थे, जो हवा में झूल रहे थे। यदि धागा टूट जाए तो शायद आसमान को चूमते हुए गायब हो जाते।
गुब्बारे दूर आसमान में परिंदों से ऊंचा उड़ना चाहते थे। पर उन पर तो दो फिट का धागा बंधा था। गुब्बारेबाले के पास बच्चों की भीड़ थी। मुझे हर दिन स्कूल जाते वक्त पिताजी दस पैसे देते थे। उस दिन के पैसे मैं चूरन खाने में उड़ा चुका था। अब गुब्बारा कहां से लूं, यह मुझे नहीं सूझ रहा था। फिर मेरे दिमाग में एक युक्ति आई। जैसे ही स्कूल की घंटी बजी तो बच्चे गेट के भीतर दौड़ने लगे। गुब्बारेवाला अकेला नजर आया। मैं उसके पास पहुंचा और बोला- भैया यदि आप अपने सारे गुब्बारे आज ही बेचना चाहते हो तो छुट्टी के बाद मेरे साथ चलना। मेरे मोहल्ले में आज तक कोई गुब्बारे वाला नहीं आया। वहां जाओगे तो शायद काफी लोग गुब्बारे खरीद लेंगे। यह कहकर मैं भी स्कूल की तरफ भागकर अपनी क्लास की तरफ दौड़ गया।
मेरा मन पढ़ाई में नहीं लग रहा था। यही विचार बार-बार आ रहा था कि गुब्बारे वाला क्यों मेरे कहने पर चलेगा। पाठ की जगह मुझे किताब में गुब्बारे ही नजर आ रहे थे। जैसे गुब्बारेबाला कह रहा हो-लाया हूं मैं गुब्बारे। लील, हरे, नीले, पीले, बैंगनी……..। शाम चार बजे स्कूल की छुट्टी हुई। मैं बस्ता संभालकर गेट की तरफ दौड़ा। देखा कि गुब्बारेवाला वहीं खड़ा है। जो शायद मेरा इंतजार कर रहा था। मैं खुश था। उसे अपने साथ लेकर चलने लगा। दो किलोमीटर राजपुर रोड की चढ़ाई में चलने के बाद गुब्बारे वाले के सब्र का बांध टूटने लगा। वह गर्मी से हांफ रहा था। साथ ही वह दुबला आदमी थकान से कांप रहा था। कितनी दूर है तेरा मोहल्ला-वह बोला।
बस कुछ दूर और भैया- मैने कहा। साथ ही मैं उसका कष्ट दूर करने के लिए ठेली को धक्का मारने लगा। ढाई किलोमीटर की सड़क के बाद हम कच्ची सड़क पर आ गए। फिर पगडंडी का रास्ता। वह वापस लौटने को हुआ तभी मैने उसे दूर से मोहल्ला दिखाया। हम ऊंचाई पर थे, नीचे मकानों की कतारें थी। मैने कहा बस वहीं तक चलना है। जैसे-तैसे हम मोहल्ले में पहुंच गए। उसे देखते ही बच्चों की भीड़ लग गई। मैं बस्ता छोड़ने घर को दौड़ा। मां से पैसे मांगे, लेकिन उसने खाली हाथ हिला दिए। पिताजी से डरते-डरते मैने पैसे मांगे, पर गुब्बारे पर उनका सिद्धांत नहीं डोला। उन्होंने कठोर शब्दों में मुझे गुब्बारे में फिजूलखर्ची से मना कर दिया।
मैं मुंह लटकाकर गुब्बारेवाले के पास पहुंचा। तब तक उसके लगभग सारे गुब्बारे बिक चुके थे। वह बहुत खुश था। उसका गैस से भरा सिलेंडर भी खाली हो चुका था। वह जाने की तैयारी कर रहा था। बस एक आखरी गुब्बारा उसकी ठेली से बंधा था। जो शायद उसने मुझे बेचने के लिए बचाया था। मुझे देखते ही वह बोला-कहां चले गए थे। सारे गुब्बारे बिक गए। एक तुम्हारे लिए रखा हुआ है। मैने निराश होकर कहा- भैया इसे किसी को बेच दो। मेरे पास पैसे नहीं है।
इस पर वह मुस्कराया और उसने धागा तोड़ते हुए मुझे गुब्बारा थमा दिया। ये मेरी तरफ से तुम्हारा तोहफा है-वह बोला। गुब्बारा लेकर मैं खुश था। घर आकर मैने धागे में एक धागे की रील जोड़ी और घर के पिछवाड़े में जाकर रील खोलने लगा। गुब्बारा ऊपर-ऊपर जा रहा था। मैं धागा बढ़ाए जा रहा था। फिर एक समय ऐसा आया कि काफी ऊंचाई में जाने के बाद गुब्बारा धागे का बोझ सहन नहीं कर पाया और एक स्थान पर जाकर रुक गया। तब मुझे अहसास हुआ कि जरूरत से ज्यादा बोझ डालने पर किसी का भी यही हश्र हो सकता है। तभी रात का अंधेरा बढ़ने लगा। माताजी की आवाज आई कि घर नहीं आना क्या। मैं धागा लपेटते हुए गुब्बारे को नीचे ऊतराने लगा।
घर में मैने कमरे में गुब्बारे के धागे को इतनी ढील दी कि वह छत से जा लगा। मैं खुश था कि इससे कई दिन तक खेलूंगा। रात को सोने से पहले मैं गुब्बारे को ही देखता रहा। न जाने कब नींद आई, लेकिन सपने में भी मुझे गुब्बारे ही गुब्बारे दिखाई दिए। सुबह उठा तो देखा कि गुब्बारा अपना स्थान छोड़ चुका है। उसकी हवा इतनी कम हो गई कि वह जमीन से दो फुट ऊपर ही नजर आया। उसका आकार कॉस्को की गेंद के बराबर का रह गया।
तब और आज के गुब्बारों में मुझे उनके रंग को छोड़कर कोई फर्क नहीं आता। आज भी देश भर में रंग-बिरंगे गुब्बारे नजर आ रहे हैं। इन दिनों चुनाव का मौसम है। रैलियों का दौर है। रैली करने वाली राजनीतिक पार्टियां अपनी पार्टी के रंग के गुब्बारे हवा में उड़ा रही हैं। वहीं, दूसरे विरोधी उन्हें काले गुब्बारे दिखा रहे हैं। कोई गुब्बारा गरीबी दूर करने का नारा दे रहा है, तो कोई स्थिर सरकार का। कांग्रेस का गुब्बारा उसी पुरानी गैस के नारे के साथ उड़ रहा है। भाजपा का गुब्बारा मोदी गैस से भरा है। आम आदमी पार्टी का गुब्बारा दिल्ली के उदाहरणों से भरा हुआ है। अब देखना यह है कि समय आने पर कितने गुब्बारों में गैस बची रहती है। क्योंकि जब तक गैस रहेगी, तब तक गुब्बारे अच्छे लगते हैं। फिर सिकुड़कर असहाय हो जाते हैं। ठीक उसी तरह गैस रहती है, जैसे चुनावों में नेता दिखते हैं। गुब्बारे की जैसी ही गैस निकलती है, ठीक उसी तरह नेताजी भी चुनाव जीतने के बाद गायब हो जाते हैं। इनसे जरूरत से ज्यादा अपेक्षा करना मूर्खता है। ये या तो फूट जाते हैं या फिर एक निश्चित ऊंचाई के बाद उड़ना बंद कर देते हैं। या फिर गायब हो जाते हैं।
भानु बंगवाल

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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