उत्तराखंड में कुमाऊं के अल्मोड़ा जिले का हिस्सा था बागेश्वर, अब होगा नए मंडल में शामिल, जानिए इस जिले के बारे में
उत्तराखंड के तेरह जिलों में अल्मोड़ा नगर सबसे पुराना नगर है। नैनीताल और मसूरी की भाँति इसकी उत्पत्ति अंग्रेजों के आगमन पर नहीं हुई है। अल्मोड़ा नगर बसने से पूर्व यहाँ पर कत्यूरी राजा बैचल देव का अधिकार था। उन्होंने बहुत सी भूमि संकल्प करके गुजराती ब्राह्मण श्रीचंद तेवाड़ी को दे दी थी। कुछ समय पश्चात इस मंडल में चंद वंशीय राज्य स्थापित होने पर चंद राजाओं ने श्रीचंद की भूमि को अलग करके अपने महल निर्मित किये। कुमाऊं मंडल की शान अल्मोड़ा पहले विभक्त कर इसके एक हिस्से बागेश्वर को नया जिला बना दिया गया। अब इन दो नगरों की कुमाऊं से पहचान समाप्त होने जा रही है। क्योंकि नए मंडल में शामिल होने पर ये दोनों जिले अब कुमाऊं नहीं गैरसैंण मंडल के अंतर्गत आने वाले हैं।
हाल ही में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने उत्तराखंड की ग्रीष्मकालीन राजधानी भराड़ीसैंण में नया मंडल गैरसैंण बनाने की घोषणा की थी। इस जिले में गढ़वाल मंडल के चमोली, रुद्रप्रयाग, कुमाऊं मंडल के अल्मोड़ा, बागेश्वर जिलों को शामिल किया जा रहा है। अब नए मंडल में शामिल होने वाले चारों जिलों में दो अपनी गढ़वाल की पहचान खो देंगे और दो जिले कुमाऊं की पहचान खो देंगे। इनमें गढ़वाल से चमोली और कुमाऊं से अल्मोड़ा जिले ऐसे हैं, जो पहले ही विभक्त हो चुके हैं। रुद्रप्रयाग जिला चमोली, टिहरी और पौड़ी जिले के कुछ क्षेत्र को मिलाकर वर्ष 1997 में अस्तित्व में आया। वहीं बागेश्वर जिले का गठन अल्मोड़ा जिले को विभक्त कर किया था। तभी भी ये दोनों जिले अपने अपने मंडलों में थे।
गढ़वाल मंडल के जिलों की पहचान गढ़वाली संस्कृति, बोली से होती है। वहीं, कुमाऊं मंडल की पहचान कुमाऊं संस्कृति और बोली से होती है। अब उत्तराखंड सरकार ने दोनों संस्कृति को एक कर नए मंडल में मिलाने की घोषणा की है। इसका लाभ लोगों को मिलेगा या नहीं ये आने वाला समय बताएगा। साथ ही यहां की भाषा और बोली, सांस्कृति, पहनावा आदि भी दोनों मंडल के जिलों में अलग हैं। फिलहाल हम यहां बागेश्वर जिले के संबंध में बता रहे हैं। क्योंकि चमोली, रुद्रप्रयाग, अल्मोड़ा जिलों के संबंध में लोकसाक्ष्य में पहले ही विशेष स्टोरी प्रकाशित की गई हैं। प्रस्तुत है इतिहासकार देवकी नंदन पांडे की नजर में बागेश्वर जिले की खासियत।
भौगोलिक क्षेत्र व स्थिति
बागेश्वर जिले का भौगोलिक क्षेत्रफल 2246 वर्ग किलोमीटर है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार यहां की जनसंख्या 2,59,898 है। अल्मोड़ा जिले से विभक्त कर बागेश्वर को अलग जिले का स्वरूप सन 1996 में दिया गया। यह अल्मोड़ा से 90 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह पूर्व में कत्यूर परगने के अन्तर्गत आता था।
इसलिए पड़ा था बागेश्वर नाम
बागेश्वर नाम का प्राचीन शिव मंदिर कत्यूर राजाओं ने बनवाया था। पुराने लोग तो कहते हैं बागेश्वर स्वयम्भू देवता है, अर्थात् स्वयं प्रकट हुए। किसी के द्वारा स्थापित नहीं किये गये। इस मंदिर के द्वार पर एक पत्थर है, जिसमें कत्यूरी राजाओं की आठ पीढ़ी की वंशावली खुदी हुई हैं। चंडीश ने शिव के रहने के लिए यहाँ पर वाराणसी क्षेत्र बनाया। ज्यों ही महादेव व पार्वती यहाँ आये, आकाशवाणी में शिव की प्रशंसा हुई। इसलिए यह स्थान बागेश्वर (वाक्-ईश्वर = बागेश्वर) कहलाया।
स्वराज्य आंदोलन का रहा था केंद्र
बागेश्वर धार्मिक ही नहीं, अपितु राष्ट्रीय तथा स्वराज्य आन्दोलन का भी केन्द्र सन 1921 से रहा है। सन 1921 में ब्राह्मण क्लब के निमन्त्रण पर तत्कालीन राष्ट्रीय नेता हरगोविन्द पन्त, लाला चिंरजी लाल तथा बदरीदत्त पाण्डे बागेश्वर पहुंचे तथा ‘कुली उतार बन्द करो’ का बिगुल बजाया। राष्ट्रीय नेताओं के आह्वान पर क्षेत्रवासियों ने गंगाजल उठाकर प्रतिज्ञा ली कि अब से वे कुली न कहलावेंगे। ‘कुली’ उतार बन्द करो’ सत्याग्रह तीन दिन तक चला। इस बीच अंग्रेज अधिकारी चाहकर भी जनता के उत्साह को कुचलने का साहस न जुटा सके।
महात्मा गांधी भी आए थे यहां
क्षेत्रवासियों के साहसिक प्रयास पर सन 1929 में महात्मा गाँधी भी यहाँ पहुँचे थे। सरयू और गोमती के दोनों ओर बसी व पहाड़ियों से घिरी यह घाटी किसी चित्रकला से कम नहीं लगती। यहाँ सुदूर उत्तर में हिमालय भी आवभगत स्वरूप मुस्कराता नजर आता है। साथ ही ट्रेकिंग का स्वर्ग माना गया पिण्डारी ग्लेशियर का यह प्रथम बेस कैम्प है। इसके अतिरिक्त कैलाश मानसरोवर की यात्रा भी यहाँ से प्रारम्भ होती है। पर्यटकों की सुविधा हेतु यहाँ कुमाऊँ मण्डल विकास निगम का एक पर्यटक आवास गृह भी है।
उपजाऊ है यहां की भूमि
बागेश्वर की भूमि काफी उपजाऊ है। अंग्रेज कमिश्नर एटकिन्सन ने हिमालयन गजटियर में इस घाटी को कुमाऊँ की स्वर्णिम घाटी कहा है। तल्ला दानपुर कहलाने वाला यह क्षेत्र आम, पपीता, नाशपाती, संतरे, अंगूर आदि फलों एवं विभिन्न खाद्यान्नों के अतिरिक्त सेना के वीर जवान भी पैदा करता है यहाँ पर ऊनी कम्बल, चुटके, पंखियाँ, पश्मीने, शिलाजीत, सुहागा, जम्बू, गन्द्रायनी आदि का भी व्यापार होता है।
लेखक का परिचय
लेखक देवकी नंदन पांडे जाने माने इतिहासकार हैं। वह देहरादून में टैगोर कालोनी में रहते हैं। उनकी इतिहास से संबंधित जानकारी की करीब 17 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कुमाऊं के निवासी पांडे लंबे समय से देहरादून में रह रहे हैं।
सभी फोटोः साभार सोशल मीडिया
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।