नौकरियों की है भरमार, फिर भी युवा बेरोजगार, आखिर मिले तो कैसे-बस यही सवाल, हल भी जानिए
मैं अर्थशास्त्र का व्यक्ति नहीं हूं, लेकिन आर्थिक स्थितियों को लेकर एक मोटी समझ रखता हूं। इस वक्त भारत की जो आर्थिक स्थितियां हैं, हर लिहाज से चुनौतीपूर्ण हैं। सरकारों का काम करने का जो ढंग, नीतियां और मिजाज है, उसको देख कर ऐसा लग रहा है, जैसे लोगों की जिंदगी को बेहतर करने का काम केवल और केवल प्राइवेट सेक्टर का है। सरकारें धीरे-धीरे रोजगार के क्षेत्र से अपना हाथ पीछे खींच रही हैं। इस मामले में चाहे भाजपा की सरकारें हों या कांग्रेस की या अन्य पार्टियों की, सभी का रवैया लगभग एक जैसा है।
बिहार चुनाव में 10 लाख सरकारी नौकरियों की बात ने अचानक लोगों का ध्यान खींचा। बहुत लोगों ने कहा इतनी नौकरियां है ही नहीं, लेकिन यह सभी ने माना कि बड़ी संख्या में पद खाली हैं। यहां तक कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी कहा कि पद तो हैं, पर पैसा नहीं है कि उन्हें भर सके। इससे पहले के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने केंद्र सरकार के विभागों में खाली पड़े 20-25 लाख पदों को भरने की बात कही।
आरटीआई के तहत प्राप्त सूचनाओं और सरकारी रिपोर्ट में खाली पदों का विवरण अलग-अलग मिलता है। इसके चलते एक मोटा अनुमान ही लगाया जा सकता है कि इस वक्त केंद्र सरकार के विभागों में 20 लाख से ज्यादा और राज्य सरकारों में 50 लाख से ज्यादा सरकारी पद खाली हैं। भारत में प्रत्येक 100 लोगों की आबादी पर सरकारी कर्मचारियों का औसत केवल दो है। इसलिए लिहाज से सभी तरह के कर्मचारी मिलाकर ढाई करोड़ से अधिक लोग सरकार से वेतन पाते हैं। यदि हर एक कर्मचारी का औसत सेवाकाल 30 साल का मान लिया जाए तो देश भर में लगभग 10 लाख लोग हर साल रिटायर होकर अपने पदों को खाली करते हैं।
अब केवल 5 साल को ध्यान रख कर बात करते हैं। मौजूदा दर के हिसाब से अगले 5 साल में करीब 50 लाख लोग रिटायर होंगे, जबकि अभी केंद्र एवं राज्यों में मिलाकर 70 लाख पद खाली हैं। यदि इन सब पदों को जोड़कर सालाना 22-24 लाख लोगों की भर्ती की जाए तो अगले 5 साल में सरकार लगभग सवा करोड़ लोगों को सरकारी नौकरी मिलने की स्थिति में आ सकती है।
बहुत सारे लोग ये सवाल उठाएंगे कि इतना पैसा कहां से आएगा। मेरा जवाब यह है कि कोई भी सरकार, चाहे वह केंद्र की हो या राज्यों की, वह किसी प्राइवेट कंपनी की तरह नहीं चलती कि जहां घाटा होने पर कंपनी को बंद कर दिया जाएगा और मुनाफा होने पर ही नए लोगों की भर्ती की जाएगी।
सवाल पैसे का जरूर है, लेकिन पैसे से भी ज्यादा बड़ा सवाल इसके सही जगह खर्च करने को लेकर है। जब आप 5 साल में सवा करोड़ लोगों को नौकरी देंगे तो निश्चित रूप से लगभग 6 करोड लोगों की जिंदगी को बेहतर कर देंगे। इसका आधार यह है कि एक व्यक्ति को सरकारी नौकरी मिलने से उसके परिवार के चार-पांच लोगों का जीवन स्तर स्वाभाविक रूप से बेहतर हो जाता है।
अब यहां प्रश्न यह है कि इस पर कितना पैसा खर्च होगा? यदि सरकार एक साल में 24 लाख लोगों को नौकरी देती है और हर एक व्यक्ति का औसत वेतन 50000 हो तो हर महीने 12000 करोड़ का खर्च आएगा। इस 12000 करोड में से 24 फीसद की दर से लगभग 3000 करोड़ रूपया नेशनल पेंशन स्कीम में चला जाएगा और 20 फीसद की दर से 2400 करोड़ रूपया इनकम टैक्स के रूप में सरकार को वापस मिल जाएगा। शेष बचे हुए पैसे में से 6 से 7000 करोड़ रूपया सीधे मार्केट में आएगा। इस आंकड़े को अगले 5 साल तक बढ़ते हुए क्रम में देख लीजिए और फिर अनुमान लगाइए कि कितनी बड़ी राशि मार्केट में आएगी। तब देश की आर्थिक सेहत सुधरेगी या नहीं!
चलिए, कुछ देर के लिए मान लेते हैं कि वास्तव में सरकारें इतना बजट खर्च करने की स्थिति में नहीं हैं। तब इसका आसान समाधान यह है कि कुछ सालों के लिए, जब तक कि संबंधित पदों का प्रोबेशन पीरियड खत्म ना हो, तब तक उन्हें बेसिक सैलेरी पर नियुक्ति दी जा सकती है। इस दौरान सरकार जैसे-जैसे अपने संसाधन बढ़ाएगी, उसी क्रम में लोगों को बढ़े हुए वेतन भत्ते आदि दिए जा सकते हैं।
भारत में विभागों के ढांचे को छोटा करने, सरकारी कर्मचारियों की संख्या घटाने के पक्ष में बहुत सारे तर्क दिए जाते हैं, लेकिन उस वक्त यह बात छिपा ली जाती है कि भारत दुनिया के उन देशों में है जहां औसत के लिहाज से सरकारी कर्मचारियों की संख्या कम है। यदि अमेरिका की तुलना में देखें तो प्रति एक लाख आबादी पर भारत में एक चौथाई से भी कम कर्मचारी काम करते हैं।
चीन की तुलना में भी भारत में सरकारी कार्मिकों की संख्या आधे से कम है और वैश्विक स्तर पर भी भारत बहुत पीछे है। यह बात भी कही जाती है कि जब मेडिकल, शिक्षा, सुरक्षा, परिवहन, नागरिक आपूर्ति आदि विभागों में संख्या से कम कार्मिक होंगे तो वहां भ्रष्टाचार बढ़ेगा ही बढ़ेगा।
इन तमाम आंकड़ों को देखकर कई बार ऐसा लगता है कि सरकार रोजगार के ऊपर कुंडली मारकर बैठी हुई है। बड़े राज्यों की बात तो छोड़िए उत्तराखंड, हिमाचल, जम्मू कश्मीर जैसे छोटे राज्यों में भी हजारों की संख्या में पद खाली हैं। रोजगार के लिहाज से बीते 2 साल भारत के लिए बहुत चुनौतीपूर्ण रहे हैं। तमाम तरह की सरकारी और गैर सरकारी रिपोर्टों में यह बताया गया कि केवल केंद्रीय स्तर पर ही नहीं, बल्कि राज्यों के स्तर पर भी रोजगार उपलब्ध कराने की गति बेहद धीमी रही है।
एक तरफ हम इस बात पर खुश होते हैं कि बीते डेढ़ दशक में भारत का विदेशी मुद्रा भंडार लगभग 3 गुना होने की तरफ बढ़ रहा है और दूसरी तरफ हम देखते हैं की आम लोगों से जुड़े तमाम विभाग कर्मचारियों से या तो खाली पड़े हैं या वहां पद ही स्वीकृत नहीं किए गए हैं अथवा रिक्त पदों पर भर्ती नहीं की जा रही है। ऐसा लग रहा है कि पदों को न भरना ही सर्वाधिक रचनात्मक और जरूरी कार्य है।
एक और भ्रम व्यापक पैमाने पर फैलाया गया है कि नई तकनीक के आने के बाद लोगों की जरूरत अब वैसी नहीं रह गई है जैसे कि अब से 30 साल पहले थी। इस भ्रम का जवाब यह है कि यदि भारत जैसे 135 करोड़ की आबादी के देश में लोगों के रोजगार की कीमत पर नई तकनीक की आमद हो रही है तो फिर हमें इस पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि नई मशीनें लगाने और नई तकनीक का इस्तेमाल करने से भर यदि विकास हो रहा है तो वह बांझ विकास है। जिस औद्योगिकीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण से लोगों को रोजगार ना मिलता हो तो फिर ऐसे विकास का औचित्य ही क्या है ?
मौजूदा कोरोना काल में भारत सरकार ने 20 लाख करोड़ से अधिक का पैकेज घोषित किया। इस पैकेज से कंपनियों के खजाने भरे, लेकिन अर्थशास्त्र के क्षेत्र में बहुत गंभीर कार्य कर रहे लोगों के पास भी शायद ही ऐसा कोई आंकड़ा उपलब्ध हो, जिससे पता चल सके कि 20 लाख करोड़ खर्च करने के बाद वास्तव में कितने लोगों को रोजगार मिल पाए।
प्राइवेट सेक्टर किस तरह से कार्य करता है, उसकी सच्चाई उन लोगों को बहुत अच्छे से पता है जो छोटी-मोटी प्राइवेट नौकरियां करते हैं। विगत फरवरी में 8 घंटे की जिस प्राइवेट नौकरी के लिए 15 से 20 हजार प्रतिमाह मिल रहै थे, उसी नौकरी के लिए अब 12 घंटे काम करना होता है और वेतन 12 से 15 हजार के बीच आ गया है। अब खुद समझ लीजिए कि यहां कौन सा अर्थशास्त्र काम करता है। और जब इस मुद्दे पर बात उठाई जाती है तो उसे वामपंथी झुकाव कहकर खारिज कर दिया जाता है।
राजनीतिक मुद्दों पर हम लोग इतने भावुक हो जाते हैं कि रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा, खाद्य आपूर्ति, आवास आदि के प्रश्न गौण हो जाते हैं। चाहे आम लोग हों, मीडिया हो या विपक्ष हो, उनके द्वारा रोजगार से जुड़े सीधे सवाल पूछते दिखना दुर्लभ दृश्य की तरह है। जब लोग तरक्की की बात करते हैं तो वह ऐसा दिखता है जैसे ओशो रजनीश का वह कथन,जिसमें वे कहते हैं कि एक व्यक्ति का एक पांव 100 डिग्री और दूसरा जीरो डिग्री पर रखिए। तब औसत निकालकर कहिए कि यह व्यक्ति 50 डिग्री के तापमान पर खड़ा है। इसलिए इस व्यक्ति का यह कहना कि इसके पांव जल रहे हैं, गलत है।
वैसा ही हमारा विकास है, जहां औसत के हिसाब से बताया जाता है कि हमारी आय अच्छी है, लेकिन तब यह नहीं बताया जाता कि देश के 100 सुपर रिच लोगों की आय कितनी बढ़ी है और उनकी इस बढ़ी हुई आय से सबसे नीचे पायदान पर खड़े हुए व्यक्ति की आय का औसत किस तरह से बढ़ गया है। जो लोग थोड़े भी जागरूक हैं, उनके मन में यह सवाल हमेशा ही आएगा कि आखिर सरकारों की नीतियां किसके पक्ष में है!
आखिर में, एक और छोटी-सी बात। भारत दुनिया के उन देशों में शामिल है, जहां इनकम टैक्स की दरें बहुत ऊंची हैं। इनकम टैक्स पर भी सरकार सेस लगाकर वसूली करती है। यदि सरकार को लगता है कि इन पदों को भरने में पैसा ही एकमात्र बाधा है तो अच्छा होगा कि टैक्स की मौजूदा दरों में एक-आध प्रतिशत की बढ़ोतरी और कर दी जाए ताकि मौजूदा सरकारी पद भरे जा सकें। बढ़े हुए टैक्स में राज्यों को भी हिस्सा मिले ताकि वे भी खाली पदों को भर सकें।
वैसे, सरकारी नौकरी देने से देश में कोई राज्य आर्थिक रूप से कोई डूब गया हो, ऐसा कोई उदाहरण मेरी जानकारी में नहीं है। इसके उलट उदाहरण जरूर मौजूद हैं। अपने कर्मचारियों को सबसे कम वेतन-भत्ते देने वाले पश्चिम बंगाल और सर्वाधिक वेतन-भत्ते देने वाले दिल्ली की स्थिति की तुलना करके देख सकते हैं।
लेखक का परिचय
डॉ. सुशील उपाध्याय
प्रोफेसर एवं पत्रकार
हरिद्वार, उत्तराखंड।
9997998050
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।