जानिए उत्तराखंड का इतिहास, कब किसने किया शासन, रोचक जानकारी दे रहे हैं इतिहासकार देवकीनंदन पांडे
1 min readउत्तराखण्ड की गगनचुम्बी चोटियों की उच्चता, उसकी सनातन हिमरेखाओं की निर्मल पवित्रता, गहरी घाटियों की स्वर्गीय सुखमा, घाटियों में प्रवाहित होने वाली कल-कल नादिनी स्वच्छ धाराओं की उत्तुंग तरंगें और झरने व जल प्रपातों की शोभा देशवासियों के हृदय में आदर्श जगाने की अमोघ शक्ति रखती हैं।
जिन पूर्वज आचार्य, महर्षियों तथा राजाओं ने देश में सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक संघर्षों से समय-समय पर अनेक प्रकार के क्रांतिकारी परिवर्तन करके, अपनी जाति, धर्म और देश की केवल रक्षा ही नहीं की अपितु भारत का आदर्श जीवन बनाया था। उन्होंने आरम्भ में इसी उत्तराखंड के शिखरों की छाया में उसको कलकल नादिनी निर्मल सरिताओं के संगमों में, उसके आमोदपूर्ण देवदार के सघन वनों की गम्भीर निर्जन नीरवता में, उसकी दिव्य छटामयी गहरी घाटियों की गुफाओं में, उसकी घोर गर्जना करती हुई हिमनदियों के पास बादलों से कलोल करने वाली कठोर चट्टानों में बैठकर लोकहित तपश्चर्या करके आध्यात्म बल संचय किया था।
साथ ही चुन-चुन कर अनेक संकट मोचन मुक्तिप्रद तीर्थों का उद्घाटन किया था। अनेक देवताओं की स्थापना की थी। दैवी शक्ति सम्पन्न उन आदर्श महापुरूषों ने जो-जो लोकहित कार्य किये हैं, उनसे देश के इतिहास के पृष्ठ खाली नहीं है, अपितु यह कहना उचित ही होगा कि वह आदर्श पुरूष-महिलायें देश के इतिहास के प्राण हैं।
आधुनिक परिपेक्ष्य में उत्तराखंड का अभिप्राय गढ़वाल मण्डल के छ: (चमोली, रूद्रप्रयाग, पौड़ी, उत्तरकाशी, टिहरी, देहरादून), कुमाऊँ मण्डल के छ: (पिथौरागढ़, चम्पावत, बागेश्वर, अल्मोड़ा, नैनीताल, उधमसिंह नगर) व उत्तराखंड का प्रवेश द्वार हरिद्वार, तेरह जिलों को मिलाकर बने भौगोलिक क्षेत्र से है।
प्रागैतिहासिक काल
उत्तराखंड में मानव इतिहास, मानव संस्कृति के उपाकाल से ही दृष्टिगत किया जा सकता है, जिसकी पुष्टि पुरातात्विक खोजों से होती है। गढ़वाल एवं कुमाऊँ के कुछ स्थलों पर चित्रित शैलाश्रय प्राप्त हुए हैं और इन्हीं के साथ कुछ स्थानों पर महाश्म संस्कृति के अवशेष भी प्राप्त हो चुके हैं।
वैदिक और महाभारत काल
प्राचीन काल से उत्तराखंड धार्मिक दृष्टिकोण से महत्व का रहा है परिणामत: तत्कालीन ग्रंथों – वेद, पुराण, महाभारत, वाराह संहिता आदि में केदारखंड, मानसखंड, हिमवन्त आदि नामों के द्वारा उत्तराखंड से प्रथम परिचय होता है। ऋग्वेदिक काल में आर्य लोग पाँच प्रमुख दलों में विभक्त थे। उनमें से त्रित्सु नामक एक दल उत्तराखंड में आया और यहाँ की जंगली जातियों को परास्त कर तथा बाहर खदेड़ कर उसने पांचाल नाम से अपना राज्य स्थापित किया। इतिहासकार इस घटना को ईसा से 2500 वर्ष पूर्व ही बताते हैं।
आदि-ऐतिहासिक काल
इस काल के सबसे महत्त्वपूर्ण पुरावशेष में गंगा घाटी के ताम्रसंचय निधि से सम्बन्धित ताम्र-मानवाकृति हैं। कालक्रम के संदर्भ में इनका समय द्वितीय सहस्त्राब्दि ईसवी पूर्व ठहराया जा सकता है। ताम्र-मानवाकृतिया को प्राप्ति उत्तराखंड के सुदूर ग्राम बनकोट (पिथौरागढ़) में हुई है। आर्यावर्त की इस सबसे प्राचीन ताम्र संस्कृतिक पश्चिमी तथा पूर्वी हिन्दुस्तान पर विजय प्राप्त की। परिणामतः इतिहासविदा के अनुसार समुद्रगुप्त उत्तराखण्ड निर्माण में उत्तराखंड का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।
प्राय-ऐतिहासिक काल
उत्तराखंड में प्राप्त विचित्र धूसर मृदभाण्डों का सम्बन्ध लौहयुगीन संस्कृति के साथ जोड़ा जाता है। धूसर मृदभाण्ड गढ़वाल में पुरोला तथा कुमाऊँ मण्डल में काशीपुर एवं चम्पावत से प्राप्त हुए हैं।
ऐतिहासिक काल
काले ओमदार मृदभाण्ड, जिनके अवशेष कुमाऊँ एवं गढ़वाल मण्डल से प्राप्त हुए हैं, इनका काल बौद्धना से मौर्ययुग तक निश्चित किया जा सकता है। मौर्य युग से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण पुरावशेष के रूप में काला (देहरादून) से प्राप्त अशोक का शिलालेख है। गढ़वाल में कई स्थानों पर बुद्धकालीन विहारों के खण्डहर हैं। साता शबाब्दी में शंकराचार्य द्वारा गढ़वाल से बौद्ध मठ को उखाड़ फेंकने के सफल प्रयत्न के कई दृष्टान्त मिलते हैं। इसके अतिरिक्त उत्तरकाशी का शिलालेख भी इस युग की पुष्टि करता है।
कुषाण एवं कुणिन्द काल
सन् 1972 में मुनि की रेती के पास शिवानन्द आश्रम की खुदाई में कुषाण सम्राटों की 45 स्वर्ण मुद्रायें कुछ आभूषणों के साथ प्राप्त हुई थीं। महान शक्तिशाली एवं समृद्ध कुषाण राज्य का 243 ईसी से 250 ईसर्वी के मध्य किसी समय लोप हो गया। इसकी पुष्टि इस अवधि के पश्चात् की कुषाण मुद्रायें उत्तराखंड में न मिलने से होती है।
कुणिन्द राजाओं ने 290 ईसवीं तक उत्तराखंड के दक्षिणी पर्वतीय ढालों, भावर प्रदेश और मैदानी पट्टी पर शासन किया था। उनके राज्य में भैड़गाँव, पाण्डवाला तथा द्रोणी (दून) में महत्त्वपूर्ण बस्तियाँ थी। देहरादून में 1956 में उत्खनन के दौरान कुणिन्दकाल की 164 ताम्र मुद्रायें प्राप्त हुई थी। अभिलेख आदि से विदित होता है कि उत्तराखंड पर गुप्त सम्राटों (340-375) का शासन था। 1973 में रूद्रपुर के पास रामपुर नाम गाँव की खुदाई में गुप्त सम्राटों की मुद्रायें प्राप्त हुई। उत्तराखंड के प्राचीनतम मन्दिर जागेश्वर, आदिबदरी और तपोवन गुप्त शासन में ही निर्मित किये गये थे।
कनिष्क और समुद्रगुप्त
शालिवाहन शकाब्द और विक्रमी संवत् से निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि कनिष्क का प्रया
उत्तराखंड पर था। इतिहास से पता लगता है कि ईसा को चौथी शताब्दी में समुद्रगुप्त ने नेपाल तथा समस्त उत्तरी, पश्चिमी तथा पूर्वी हिंदुस्तान पर विजय प्राप्त की। इतिहासविदों के अनुसार समुद्रगुप्त उत्तराखंड का स्वामी था।
पौरव वंश
छठी शताब्दी के उत्तरार्द्ध से सातवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध तक राज्य करने वाली पौरव वंशी वर्मन नरेशों की जानकारी मिलती है। चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा विवरण एवं तालेश्वर तामपत्रों से ब्रह्मपुर नामक राज्य की विस्तृत जानकारी मिलती है। इस ब्रह्मपुर राज्य को ताम्रपत्रों में पर्वताकार राज्य कहा गया है। अत: निश्चित रूप से कुमाऊँ-गढ़वाल के विभिन्न अंचलों में फैला यह विस्तृत राज्य रहा होगा।
कत्यूरी राजवंश
सतवीं सदी के उत्तरार्द्ध में उत्तराखण्ड में कत्यूरी राजवंश का अभ्युदय हुआ, जिसने कि यहाँ बारहवीं शताब्दी तक एकछत्र राज्य किया। कत्यूरियों के समय में ही जगद्गुरू शंकराचार्य का आगमन भी इस प्रदेश में हुआ। कत्यूरी शासन के पतन के समय (बारहवीं शताब्दी) उत्तराखण्ड में छोटे-छोटे रजवाड़ों का अभ्युदय हो चुका था।
पालवंश-कनकपाल
सन् 698 में मालवा का चंद वंशज, कनकपाल गढ़वाल में आया। उस समय सोनपाल पश्चिमी गढ़वाल का राजा था, उसने कनकपाल को अपना उत्तराधिकारी चुना।
चन्द तथा पंवार राजवंश
सोलहवीं शताब्दी से कुमाऊँ में चन्द राजवंश तथा गढ़वाल में पंवार राजवंश सर्वाधिक शक्तिशाली एवं प्रभावशाली शासकों के रूप में उभरे। इन दोनों राजवशों को क्रमशः कुमाऊँ एवं गढ़वाल में अपना एकछत्र शासन सदियों तक बनाये रखने में सफलता प्राप्त हुई। सन् 1790 तथा 1803 में गोरखा अतिक्रमण को रोक पाने में असफल रहने के कारण इनका सदियों का शासन ध्वस्त हो गया तथा दोनों का राज्य गोरखा शासकों के अधीन हो गया।
ब्रिटिश शासन
कुमाऊँ तथा गढ़वाल में राज्य कर रहे स्थानीय राजवंशों को सत्ताच्युत कर गोरखा शासक भी अधिक समय तक शासन करने में सफल नहीं रहे। सन् 1814-15 में गोरखा शासकों के अत्याचारपूर्ण व्यवहार ने अंग्रेजों के सफल आगमन हेतु उत्तराखंड के द्वार खोल दिए। परिणामस्वरूप ब्रिटिश शासक, गोरखों को उत्तराखण्ड से सत्ताच्युत कर, इस समूचे पर्वतीय क्षेत्र को ब्रिटिश भारत का अंग बनाने में सफल रहे। ब्रिटिश शासकों की नीति के तहत टिहरी को एक स्वतंत्र रियासत का दर्जा देकर शेष उत्तराखण्ड को एक राजनीतिक इकाई मान कुमाऊँ कमिश्नरी में बदल दिया गया।
सन् 1877 में उत्तर-पश्चिम प्रदेश के लेफ्टिनेन्ट गवर्नर का पद तथा अवध के चीफ कमिश्नर का पद एक ही कर देने के पश्चात् उत्तराखंड को उत्तर-पश्चिमी प्रदेश आगरा और अवध के साथ जोड़ दिया गया। सन् 1902 आगरा और अवध संयुक्त प्रान्त नाम के साथ उत्तराखंड के अस्तित्व को भी विलीन कर दिया गया। सन् 1937 में इसका नाम संक्षिप्त कर संयुक्त प्रान्त कर दिया गया।
12 जनवरी 1950 को संयुक्त प्रान्त को उत्तर प्रदेश नाम दे दिया गया। तब से 8 नवम्बर संयुक्त 2000 तक उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश का अभिन्न अंग बना रहा। 9 नवम्बर, 2000 को अलग राज्य के रूप में उत्तराखंड ने स्वरूप लिया। इसके प्रथम राज्यपाल के रूप में श्री सुरजीत सिंह बरनाला तथा मुख्यमंत्री श्री नित्यानंद स्वामी ने कार्यभार सम्भाला।
सन् 1864 में उत्तराखंड में 10,954 गाँव थे। 117 वर्षों के उतार-चढ़ाव के पश्चात् सन् 1981 में गाँवों की संख्या 15,959 तक पहुँची। सन् 1919 में गाँवों की संख्या में गिरावट आयी और 15,597 दर्ज की गई। सन् 2001 में अप्रत्याशित बृद्धि हुई और 16,826 अंकित की गई।
सन 2011 की जनगणना के अनुसार उत्तराखंड राज्य की कुल जनसंख्या 1,00,86,292 है। इसमें पुरूष 51,37,773 और महिला 49,48,519 है। राज्य का क्षेत्रफल 53,483 वर्ग किलोमीटर है।
क्षेत्रफल की दृष्टिकोण से देश में इसका 18वां स्थान है। इसकी चौड़ाई (उत्तर से दक्षिण) 320 वर्ग किलोमीटर तथा लम्बाई (पूर्व से पश्चिम) 358 वर्ग किलोमीटर है। उत्तराखंड वन सांख्यिकी के अनुसार 37,999.6 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में वन सम्पदा का विस्तार है।
उत्तराखंड में विश्व विरासत
उत्तराखंड में तीन धरोहर को विश्व विरासत घोषित किया गया है। इसमें नन्दा देवी, बायोस्फीयर और विश्वप्रसिद्ध फूलों की घाटी को प्राकृतिक विरासत, तथा चमोली जनपद के
सलूड़ और डुंग्रा गांव के लोक उत्सव रम्माण को विश्व की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर की श्रेणी में
रखा गया है।
उत्तराखंड में खनिज
लाइम स्टोन, डोलोमाइट, मैग्नेसाइट, सोप स्टोन, फास्फोराइट, बेस मेटल्स, सिलिका सैण्ड, बेराइट्स, ग्रेफाइटस, मार्बल स्लेट्स।
उत्तराखंड के प्रतीक चिन्ह
राज्य पशु-कस्तूरी मृग
राज्य पुष्प-ब्रह्म कमल
राज्य पक्षी-मोनाल
राज्य वृक्ष-बुरांस
उत्तराखंड के पर्वत शिखर
नन्दादेवी (7817 मीटर)-सर्वोच्च शिखर चमोली गढ़वाल
कामेट (7756 मीटर)-चमोली गढ़वाल
नन्दा देवी पूर्व (7456 मीटर)-चमोली गढ़वाल
माणा (7272 मीटर)-चमोली गढ़वाल
चौखम्बा (7138 मीटर)-चमोली गढ़वाल
त्रिशूल (7120 मीटर)-चमोली गढ़वाल
द्रोणागिरि (7066 मीटर)-चमोली गढ़वाल
पंचाचूली (6904 मीटर)-पिथौरागढ़
नन्दा कोट (6806 मीटर)-चमोली गढ़वाल
भगीरथी (6856 मीटर)-उत्तरकाशी
नन्दा खाट (6674 मीटर)-चमोली गढ़वाल
बन्दर पूँछ (6316 मीटर)-उत्तरकाशी
प्रमुख ग्लेशियर
मिलम, नामिक, रालम (पिथौरागढ़) सुन्दरढुंगा, पिण्डारी, कफनी, मैकतोली (बागेश्वर) गोमुख, डोरियानी (उत्तरकाशी) खतलिंग (टिहरी), चौराबाड़ी (रूद्रप्रयाग) दूनागिरी, तिपराबमक (चमोली)।
लेखक का परिचय
लेखक देवकी नंदन पांडे जाने माने इतिहासकार हैं। वह देहरादून में टैगोर कालोनी में रहते हैं। उनकी इतिहास से संबंधित जानकारी की करीब 17 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कुमाऊं के निवासी पांडे लंबे समय से देहरादून में रह रहे हैं।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।