साहित्यकार सोमवारी लाल सकलानी की कविता- इस चमकीली दुनिया से अच्छा तो
इस चमकीली दुनिया से अच्छा तो
बिस्तर पर मरने से अच्छा, तो सरहद पर ही मरना था,
पर भाग्य में यही लिखा था, जीवन भर पानी भरना था।
यदि कर्म का फल ही मिलता, तो कुर्सी पर ही मरना था,
दुनिया के इन दुष्चक्रों से अच्छा, पर्वत पर ही बसना था।
शिक्षक बनने से बेहतर, शिक्षार्थी रहना ही उत्तम था।
ज्ञानी बनने से अच्छा तो, विद्यार्थी बनना ही अच्छा था।
शहरी कहलाने से अच्छा, तो ग्रामीण होना ही सच्चा था।
शाही- पनीर, दाल- मखनी से अच्छा, राई का ही पत्ता था।
सड़क किनारे बसने से अच्छा, तो अपना प्यारा ही घर था।
पॉलिश वाले शब्दों से बेहतर, तो बेबाक शब्द ही अच्छा था।
रेशम के कुर्ते से सुंदर, तो अपना फटा पुराना ही कॉलर था।
इस चमकीली दुनिया से अच्छा, तो अपना कलावन ही था।
कंक्रीटों के साए में रहने से अच्छा, गांव छान मरोड़ा था।
समतल इस धरती से सुंदर, तो अपना बीहड़ पर्वत ही था।
बनावटी दुनिया से अच्छा, तो नैसर्गिक जंगल जीवन था।
प्रयोजनवादी संसार से अच्छा, तो आध्यात्म का डेरा था।
कवि का परिचय
सोमवारी लाल सकलानी, निशांत।
सुमन कॉलोनी, चंबा, टिहरी गढ़वाल।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।