पहली बार मां को डोसा खिलाने ले गया रेस्टोरेंट, इच्छा रही अधूरी, इंदिरा गांधी की हत्या के बाद शटर हुए बंद, कर्फ्यू का पहला अनुभव
किसी जमाने में सरकारी नौकरी पेशा वालों का वेतन पहली तारीख को मिलता था। तब रेडियो में गाना भी सुनाई देता था कि-आज पहली तारीख है। खैर बाद में व्यवस्थाओं में परिवर्तन हुआ और वेतन महीने के अंतिम दिन मिलने लगा। तब वेतन बैंक में ट्रांसफर नहीं होता था और कर्मचारियों को वेतन वाले दिन खजांची के आगे लाइन पर खड़ा होना पड़ता था। जैसे ही पिताजी को वेतन मिलता था। घर के राशन पानी आदि सामान की लिस्ट तैयार रहती थी। मैं उनसे पैसे लेने आफिस में ही पहुंच जाता था। वह देहरादून में एनआइवीएच में कार्यरत थे। दिन था 31 अक्टूबर 1984 और मैने लिस्ट पहले ही तैयार कर ली थी। साथ ही मां से कहा कि वह भी मेरे साथ बाजार चले। वापस लौटते समय उसे मैं डोसा खिलाऊंगा। डोसे की बात सुनकर मां भी खुश हो गई। क्योंकि उसने डोसे का नाम सुना तो था, लेकिन कभी देखा तक नहीं था। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
निकल पड़े साइकिल से सामान लेने
पिताजी के दफ्तर पहुंचकर मैं सुबह करीब 11 बजे तक राशन पानी के पैसे उनसे लेकर घर पहुंच चुका था। साइकिल में दो बड़े झोले रख दिए गए। राशन पानी देहरादून में हनुमान चौक स्थित एक दुकान से लाया जाता था। मोहल्लों में तब कोई बड़ी दुकान नहीं होती थी। राशन पानी के नाम पर इस दुकान से तेल, मसाले, साबुन, दाल आदि खरीदा जाता था। चीनी, चावल और गेहूं, मिट्टी का तेल आदि हम सरकारी सस्ता गल्ला की दुकान से लेते थे। मां पूरी जवानी भर साइकिल में कभी नहीं बैठी। जब उम्र के अंतिम पड़ाव में पहुंची तो मैने उसे साइकिल पर बैठना सिखाया। चल दिए दोनों मां और बेटे करीब चार किलोमीटर से ज्यादा दूरी पर स्थित दुकान में राशन लेने। घर से लेकर बाजार तक ढलान होने के कारण साइकिल चलाने में कोई दिक्कत नहीं होती थी। बगैर पैडल मारे ही साइकिल फर्राटा भरती थी। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
राशन खरीदा और डोसा खाने पहुंचे रेस्टोरेंट
करीब आधे घंटे में राशन तुला और हम साइकिल से ही घर को चल दिए। तब साइकिल के हैंडिल के दोनों तरफ दो थैले लटके हुए थे। हम पैदल की घंटाघर, फिर गांधी पार्क से पहले उस रेस्टोरेंट तक पहुंचे, जहां डोसा मिलता था। रेस्टोरेंट का नाम शायद ‘गीता रेस्टोरेंट’ था। तब आलू से भरा हुआ मसाला डोसा करीब पांच रुपये में मिलता था। हम रेस्टोरेंट में बैठे तो मां डर रही थी। वह पहली बार किसी रेस्टोरेंट में बैठी थी। हमने दो मसाला डोसा का आर्डर दिया। तभी दुकान के बाहर शोरगुल मचने लगा। धड़ाधड़ दुकान के शटर बंद होने लगे। समझ नहीं आया कि बाजार बंद क्यों हो रहा है। रेस्टोरेंट वालों ने हाथ जोड़े और कहा कि-दुकान बंद करनी पड़ेगी। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
प्रधानमंत्री को गोली मारने की सूचना
हमारे साथ अन्य ग्राहक भी दुकान से बाहर निकल आए। हमारे बाहर निकलते ही शटर डाउन हुआ और ताला लग गया। कई लोग आपस में फुसफुसा रहे थे। मैने उनसे जानने का प्रयास किया तो बताया कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधीजी को उनके सुरक्षा कर्मियों ने ही गोली मार दी है। इनमें एक मौके पर मारा गया है और दूसरा गिरफ्तार कर लिया गया है। बेअंत सिंह मारा गया है और सतवंत सिंह गिरफ्तार है। दोनो सिख हैं। साथ ही कई लोग सिखों के प्रति गुस्सा और नफरती बातें भी उगल रहे थे। जैसे ही सारा सिख समुदाय इस घटना के लिए दोषी है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
बगैर डोसा खाए पहुंचे घर
पैदल पैदल चलकर हम घर पहुंचे। मां को इस बात की चिंता नहीं थी कि डोसा नहीं खाया। इससे ज्यादा उसे दुख इस बात का था कि इंदिरा गांधी को किसी ने गोली मारी। मां ने कई बार परेड मैदान में इंदिरा गांधी के भाषण सुने थे। ऐसे में वह इंदिरा गांधी की खासियत बताने लगी। पूरे मौहल्ले में इसी बात को लेकर चर्चा हो रही थी कि इंदिरा गांधी को किसी ने गोली मार दी। सभी भगवान से प्रार्थना कर रहे थे कि वह सकुशल रहे, तब तक किसी को पता नहीं था कि प्रधानमंत्री की मौत हो चुकी है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
रेडियो ही था एकमात्र सहारा
तब मैं 12वीं का छात्र था। मैं और मेरी हम उम्र के लड़कों के लिए सूचना का माध्यम रेडियो ही था। क्योंकि दूरदर्शन में शाम के समय समाचारों का वक्त फिक्स था। रेडियो में गोलीवारी की सूचना तो दी जा रही थी, लेकिन मौत की जानकारी नहीं दी जा रही थी। फिर बीबीसी की ओर से बताया गया कि इंदिरा गांधीं की मौत हो चुकी है। देर शाम तक इसकी अधिकारिक घोषणा कर दी गई। साथ ही राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ भी दिला दी गई। हालांकि, बाद में अंतिम संस्कार का लाइव टेलीकास्ट दूरदर्शन पर किया गया था। तब मेरे यहां 14 ईंची का पोर्टेबल टीवी था और उसे देखने आस पड़ोस के काफी सारे लोग घर में जमा हो जाते थे। इस टीवी के हम भाई बहनों ने आपस में चंदा मिलाकर खरीदा था, जो आज भी यादगार के तौर पर मैने रखा हुआ है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
अगला दिन एक नवंबर
प्रधानमंत्री ही हत्या के विरोध में अगले दिन एक नवंबर को कई बड़े समाचार पत्रों में संपादकीय कालम खाली छोड़ दिया गया। पूरे देश में उबाल था। तरह तरह की चर्चाएं हो रही थी। पिताजी ने मुझसे कहा कि कांग्रेस भवन में लोग जमा हो रहे होंगे। ऐसे में वहां चलकर देखते हैं। मैं साइकिल से पिताजी के साथ देहरादून में एस्लेहाल स्थित कांग्रेस भवन तक पहुंच गया। उस समय सुबह के करीब नौ या दस बजे होंगे। कांग्रेस भवन के प्रांगण में शोक सभा आयोजित की गई। हम कांग्रेस भवन के सामने सड़क के दूसरी ओर खड़े थे। शोक सभा के बाद अचानक लोग जुलूस निकालने की जिद्द करने लगे। कई वरिष्ठ नेता उन्हें हाथ की चेन बनाकर रोकने का प्रयास कर रहे थे। पिताजी समझ गए। मुझसे बोले कि दूर रहना, कुछ गड़बड़ होने वाला है। ऐसे में हम सड़क से दूर दूसरी तरफ की दुकानों की ओर जाकर खड़े हो गए। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
जीवन में पहली बार देखी लूटपाट और आगजनी
अचानक ना जाने कहां से भीड़ आई और सड़क पर पहुंची। देखते ही देखते कुछ लोग कांग्रेस भवन के सामने कपड़ों के बहुत बड़े शो रूम में पहुंचे। शायद ओसीएम शूटिंग नाम से वह दुकान थी। या हो सकता है मैं शो रूम का नाम भूल रहा हूं। इसके बगल में प्रेजीडेंट होटल था। खैर उस शो रूम के ताले टूटे, शटर खुला और देखते ही देखते लोग कपड़ों के थान लेकर भागते नजर आए। ये दुकानें इललिए लूटी गई कि उनके मालिक सिख समुदाय से थे। जिस दुकान के नाम पर पंजाब शब्द था, समझो वो तो आग के हवाले हो गई। मुझे भी लालच आया कि एक थान मैं भी उठाकर पिताजी के कंधे पर लटके थैले पर डाल दूं, लेकिन पिताजी ने मुझे साफ मना कर दिया कि ऐसी कोई भी गलती मत करना। अचानक धुआं दिखा और उस दुकान में आग लगने लगी। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
टूटते रहे ताले, होती रही आगजनी, लुटते रहे दुकानदार
फिर लोग कई जत्थों में बंट गए। कांग्रेस भवन में कुछ नेता आदि बैठे थे। वहीं, सड़कों पर जो भीड़ थी, उसका पता नहीं वो लोग कौन थे। क्योंकि शुरूआत में कांग्रेस नेता लोगों को किसी भी तरह की लूटपाट और हिंसा करने से रोक रहे थे। फिर रोडवेड बस स्टैंड के निकट पंजाब रेस्टोरेंट सहित कई ऐसी दुकानें आग की लपटों के हवाले थी, जिनके मालिक या तो सिख थे, या फिर दंगाइयों को ये अंदाजा था कि ये सिख की दुकान है। फिर तो पल्टन बाजार, धामावाला, मोती बाजार, डिस्पेंसरी रोड सहित देहरादून का कोई कोना नहीं बचा जहां सिख समुदाय की दुकानों को लक्ष्य बनाकर पहले लूटपाट की गई फिर उसमें आग लगा दी गई। लोग सिर पर टेलीविजन तक लेकर अपने घरों की तरफ दौड़ रहे थे। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
अचानक पुलिस आई हरकत में
हम बाजार में उत्पात देखकर कुछ दुखी भी हुए। क्योंकि किसी दो व्यक्तियों की गलती का दोष पूरे समाज में मढ़ना कहां का न्याय था। एक ठेली वाले से लेकर बड़ी दुकान के स्वामी सब लूट चुके थे। हम घर की ओर चल दिए पैदल-पैदल। पहले पुलिस तमाशबीन बनी रही, फिर अचानक पुलिस ने भी लाठियां फटकारी। कई लोगों से लूटा हुआ सामान छीन लिया। अफरा-तफरी के माहौल के बीच हम राजपुर रोड में एस्लेहाल से आगे तक पहुंचे कि सड़कें साफ होने लगी। पुलिस की गाड़ियां सड़क पर दौड़ रही थी। माइक से बोला जा रहा था कि शहर में कर्फ्यू लग गया है। सब अपने घरों में चले जाएं। सड़क किनारे खड़े लोगों को पुलिस लाठियां भी मार रही थी। तब तक एक दृष्टिहीन व्यक्ति भी हमें मिल गया। जो किसी कारण से बाजार आया था और उसका हाथ पकड़कर पिताजी घर के तरफ चल रहे थे। ऐसे में हम पुलिस की लाठियां खाने से बच गए और सड़क के किनारे किनारे पैदल चलकर किसी तरह घर पहुंचे। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
आरटीओ में साइकिल की दुकान
बचपन में जब मैने साइकिल चलानी सीखी तो पहले किराये की साइकिल ली गई। किराया दस पैसे घंटे के हिसाब से था। घर से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर राजपुर रोड पर आरटीओ के निकट करीब चार या पांच दुकानें थी। इनमें एक दुकान साइकिल की थी, जो एक सरदारजी की थी। इसी दुकान से मैं साइकिल किराये पर लेकर घर ले जाता था। जब साइकिल सीख गया तो पिताजी ने मुझे आफिस से लोन लेकर 306 रुपये में एवन कंपनी की साइकिल दिलाई। उसी साइकिल का हैंडिल हाथ से पकड़कर मैं पिताजी और दृष्टिहीन व्यक्ति के साथ घर जा रहा था। आरटीओ पहुंचने पर देखा कि सरदारजी की साइकिल की दुकान का शटर भी टूट चुका था। दुकान आग के हवाले कर दी गई थी। इस दिन के बाद मैने कभी ना तो उस दुकान को ही देखा और ना ही सरदारजी को। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
मोहल्लों में भी बन गए संगठित गिरोह
अगले दिन से मोहल्लों में भी रात के समय अफवाह फैलने लग जाती कि सिख समुदाय के लोग हमला करने आ रहे हैं। ऐसे में लोग संगठन होकर रात को पहरा देने लगे। इन्हीं लोगों में कई दंगाइयों ने गिरोह बना दिया। रात के समय ऐसे लोगों ने सिख समुदाय के लोगों के घरों पर हमले किए। हालांकि ऐसे घरों में रहने वाले लोग पहले ही किसी सुरक्षित स्थान पर चले गए। वहीं, हमारे मोहल्ले में कई लोगों ने सिख परिवारों को अपने घरों में शरण दी। साथ ही उनके साथ खड़े रहे। उन दिनों हमारे मोहल्ले में एक गैंगस्टर या कहें दादा भी रहता था। उसकी बातें सब मानते थे। जब उसे पता चला कि कुछ लोग घरों में जाकर लूटपाट कर रहे हैं तो उसने लोगों को डांट लगाई। साथ ही ऐसा ना करने को कहा। इस पर एनआइवीएच, बारीघाट आदि स्थानों पर कोई अप्रिय घटना नहीं हुई। कई दिनों बाद स्थिति सामान्य हुई। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
और अंत में
प्रधानमंत्री की हत्या हृदयविदारक घटना थी। जिसकी जितनी निंदा की जाए वह कम है। वहीं, इस घटना के विरोध में कई दिनों तक जो लूटपाट का तांडव चला वो तो और अधिक दिल को कचोटने वाली घटना थी। साथ ही सवाल भी खड़े करती थी कि क्या दो व्यक्तियों की गलती की सजा पूरे समाज को देने का क्या तुक है। फिर हम सजा देने वाले कौन होते हैं। क्या हम कानून से ऊपर हैं। कानून को अपना काम करने दो। कानून ने अपना काम किया भी। प्रधानमंत्री की हत्या के दोषी सतवंत सिंह को फांसी की सजा हुई और फंदे पर लटका दिया गया। इसके बावजूद जो घाव समाज ने सिख समुदाय के लोगों को दिए, ये कभी भी भरने वाले नहीं हैं। इसमें किसी भी एक दल को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। क्योंकि मैने कई ऐसे लोगों को दुकान और घरों में लूटपाट करते देखा, जो किसी एक दल के नहीं थे। यानि कि लूटपाट के लिए सब एक हो चले थे।
भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।