चारपाई के नीचे कटता बचपन, जब अमरूद की मार से खड़ी हो गई खाट
शहरों में तो अब तो चारपाई यानि खाट देखने को भी नहीं मिलती। करीब पैंतीस साल पहले तक देहरादून में घर-घर में चारपाई नजर आती थी। तब दीवान और फोल्डिंग पलंग का प्रचलन कम था।

पहले कभी चारपाई बच्चों के खेलने का भी साधन थी। यदि खड़ी कर दी तो बच्चे उसके पाए पर लटककर करतब दिखाने की कोशिश करते। दस साल तक के बच्चे बिछी चारपाई के नीचे छिपते और खेलते थे। कई बार तो चारपाई में नीचे तक चादर लटकाकर उसके नीचे बच्चे फर्श में ही सो जाते। चारपाई इस्तेमाल हो रही है तो बिछी रहती। यदि इस्तेमाल नहीं की जा रही है तो उसे खड़ा कर दिया जाता। घर घर में कई चारपाई देखने को तब मिल जाती थी। वहीं, छोटे बच्चे इसके नीचे बच्चे एकत्र होकर घर-घर खेलने में घंटों मशगूल रहते।
हमारे घर के पास एक लालाजी रहते थे। पेशे से वह दुकानदार नहीं थे, बल्कि सरकारी दफ्तर में चौकीदार थे। इसके बावजूद उन्हें लोग लाला क्यों कहते हैं यह, मैं आज तक नहीं समझ पाया। उन्होंने भैंसे भी पाली हुई थी। जब ड्यूटी पर नहीं रहते, तब उनका समय जंगल में भैस के लिए चारा-पत्ती लाने में बीतता। इस दौरान जंगल से पके आम, अमरूद या अन्य सीजनल फल भी वह लेकर घर पहुंचते। ऐसे में लालाजी के बेटे के साथ आस पड़ोस के बच्चे हमेशा चिपके रहते कि खाने को उनके यहां फल जरूर मिलेंगे।
लालाजी की तीन बेटियों में एकलौता बेटा भोलूराम की स्कूल से शिकायत आ रही थी कि वह पढ़ाई में ध्यान नहीं दे रहा है। इस पर एक दिन भोलूराम को पढ़ाई के लिए बैठाकर लालाजी जंगल में घास लेने चले गए। भोलूराम दिखावे के लिए कछ देर पढ़ता रहा, लेकिन लालाजी के घर से जाते ही बच्चों को एकत्र कर घर में खेलने लगा।
उस दिन लालाजी जल्दी ही जंगल से वापस आ गए। चारा भैंस के आगे डालने के बाद वह जंगल से लाए पके अमरूद का थैला लेकर कमरे में दाखिल हुए। वहां भोलूराम उन्हें नजर नहीं आया। इस पर उन्होंने आवाज दी, लेकिन भोलूराम डर के मारे चुपचाप रहा। उससे साथ पड़ोस की एक लड़की समेत दो तीन और बच्चे थे। सभी चुपचाप रहे। लालाजी को गुस्सा आ गया। उन्होंने चारपाई के नीचे झांका और भोलूराम को देखते ही आगबबूला हो गए।
गुस्सा काबू न होने पर उन्होंने भोलूराम पर पके अमरूद बरसाने शुरू कर दिए। बच्चे घबराहट में एक-एक कर भागने लगे। पड़ोस की लड़की जो शायद उस समय आठ साल की रही होगी, अपनी फ्राक के पल्लू में अमरूद समेटने लगी। जब काफी अमरूद उसकी फ्राक में जमा हो गए। तब जाकर ही वह वहां से भागी। जो बच्चे उक्त घटना के प्रत्यक्षदर्शी नहीं थे, उसी लड़की ने सभी को पूरी घटना का विवरण सुनाया। साथ ही लालाजी के घर से जो अमरूद वह लाई, उसे बच्चों को भी खिलाया। दो दिन बाद भोलूराम का मुंह ऐसा नजर आ रहा था जैसे-कई अमरूद उग आए हों। क्योंकि अमरूद की मार से उसकी खाट खड़ी हो चुकी थी।
भानु बंगवाल
Bhanu Bangwal
लोकसाक्ष्य पोर्टल पाठकों के सहयोग से चलाया जा रहा है। इसमें लेख, रचनाएं आमंत्रित हैं। शर्त है कि आपकी भेजी सामग्री पहले किसी सोशल मीडिया में न लगी हो। आप विज्ञापन व अन्य आर्थिक सहयोग भी कर सकते हैं।
वाट्सएप नंबर-9412055165
मेल आईडी-bhanubangwal@gmail.com
भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।