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February 12, 2025

उस तोते को तो पिंजरा ही पसंद था, कैद में उसे रहता सुरक्षा का अहसास

किसी चैनल में खबर देख रहा था कि एक सज्जन ऐसे लोगों के घर जाते हैं, जो तोता पाल रहे हैं। फिर उन्हें समझाते हैं कि कैद किसी को पसंद नहीं। ऐसे में पक्षी को क्यों कैद किया हुआ है। इन सज्जन के समझाने के बाद तोता पालने वाले मान जाते हैं और पिंजरे से बाहर निकालकर तोते को खुली हवा में सांस लेने के लिए आजाद कर देते हैं। इन सज्जन की मुहिम रंग ला रही है और वो कई तोते आजाद करा चुके हैं। क्या आप जानते हैं कि यदि कोई तोता आजाद होना ही नहीं चाहे तो क्या करें। जी हां, ये भी एक सच्ची घटना है। जिसका जिक्र मैं यहां कर रहा हूं। मेरे जीवन में एक ऐसा तोता भी आया, जिसे पिंजरे के बाहर की दुनियां से डर लगता था। आज ऐसे ही तोते की कहानी बताने जा रहा हूं।
बचपन में पाला तोता
वैसे तो बचपन में हर बच्चा ही शायद तोता पालने की जिद करता हो। मेरे यहां भी एक तोता मेरा भाई कहीं से पकड़ कर लाया। कई दिनों तक तोता हमारे यहां रहा। उसके लिए बाकायदा पिंजरा भी खिड़की में लगाने वाली जाली से बनाया गया। चौरस पिंजरा। पिंजरे में एक ढक्कन टिन के टुकड़े का लगाया गया। उस पर तार लगाकर एक हुक लगाया गया, जिससे ढक्कन को बंद किया जा सके।
तब दृष्टिबाधितार्थ को सुनाई जाती थी पढ़कर किताबें
तब हम एनसीबी (नेशनल सेंटर फार द ब्लाइंड) ये संस्थान का तत्कालीन नाम था, परिसर में रहते थे। देहरादून के राजपुर रोड स्थित इस संस्थान में दृष्टिबाधितार्थ को प्रशिक्षण दिया जाता था। साथ ही वे पढ़ाई भी करते थे। जो किताब ब्रेल लिपि में नहीं होती, यानी सामान्य व्यक्ति की किताब, उसे दृष्टिबाधितार्थ व्यक्ति किसी दूसरे सामान्य व्यक्ति से पढ़ाते थे। सुनकर ही वो अपना पाठ याद करते थे। ऐसे काम में मेरी बहने खुद की पढ़ाई के साथ ही दृष्टिबाधितार्थ लोगों की मदद करती थी। उन्हें किताब सुनाकर। बात करीब चालीस साल पुरानी होगी।
खेल ही खेल में उड़ा दिया तोता
शिवकुमार नाम के भाई साहब भी बहन से किताब पढ़वाने के लिए घर आते थे। तब तक हमारा तोता हल्की फुल्की नकल उतारना भी सीख गया था। जब मैं रोता तो वो भी रोने लगता। मिट्ठू बोलना तो वह जल्दी सीख गया था। शिवकुमार भाई साहब ने भाई से कहा कि तोते को मुझे हाथ में दो। मैं भी महसूस कर सकूं कि वह कैसा है।
इस पर मेरे बड़े भाई ने उन्हें पिंजरे से बाहर निकालकर तोता थमा दिया। उन्होंने तोते से खेलते हुए हवा में उछाल दिया। तोता फुर्र से दरवाजे के पास एक खूंटी में जा बैठा। भाई उसे पकड़ने को लपका। तो वह कमरे से बाहर निकलकर सामने दीवार कालोनी की के ऊपर कंटीली तार पर बैठ गया। इसके बाद उसने लंबी उड़ान भरी और एक बड़े तून के पैड़ पर जा बैठा। पेड़ इतना ऊंचा था कि वहां से तोता पकड़कर वापस नहीं लाया जा सकता था। कुछ दिन आस रही कि तोता वापस आएगा, लेकिन वह नहीं आया और पिंजरा घर पर ही रहा।
दस साल बाद भी खाली था पिंजरा
तोता पालने और उसके घर छोड़कर उड़ने की घटना के दस साल गुजर गए। पिंजरा अब भी हमारे घर में खाली था। इतना जरूर था कि उसका स्थान बदलता रहता था। कभी इस कौने तो कभी उस कौने पर। तोता पालने की चाहत तो थी, लेकिन पहले तोते के अनुभव ने तोते के प्रति कुछ मन खट्टा कर दिया था। कहावत थी कि तोता कभी घर में टिकता नहीं है। पंडित के घर तो तोता कभी रहता ही नहीं। ऐसे में तोता पालने का विचार मन से हट सा गया था।
तोते की फितरत
पिंजरे में कैद होकर शायद ही कोई रहना चाहता है। किसी तोते को पिंजरे में बंद कर दिया जाए तो वह पिंजरे का दरवाजा खुलते ही फुर्र होने में देरी नहीं लगाता। वह जब तक पिंजरे में रहता है, तब तक अपनी नटखट बोली से सबको आकर्षित करता रहता है। ऐसा लगता है कि मानो वह पिंजरे को छोड़कर कहीं नहीं भागेगा, लेकिन मौका मिलते ही वह अपनी अलग दुनियां में, खुली हवा में भाग खड़ा हो जाता है। फिर पेट की आग बुझाने के लिए उसे संघर्ष करना पड़ता है।
बाहर की दुनिया में कौन दुश्मन या कौन दोस्त
मैने सुना है कि पिंजरे से आजाद होने के बाद तोता ज्यादा दिन नहीं जी पाता। इसका कारण यह है कि उसे पिंजरे में ही दाना-पानी मिल जाता है। यानी वह दाना- पानी के लिए व्यक्ति पर निर्भर हो जाता है। पिंजरे से बाहरी दुनियां में निकलकर उसे भोजन तलाशना नहीं आता है। कई बार उसे अन्य पक्षी भी हमला कर मार डालते हैं। क्योंकि उसे इसका ज्ञान ही नहीं रह पाता है कि कौन उसका दुश्मन है और कौन दोस्त।
ऐसे मिला कैद पसंद तोता
मैं यह बात सुनी सुनाई बातों पर नहीं कह रहा हूं। मैंने इसे तब अनुभव किया जब मैने फिर से एक तोता पाला। पहली घटना के करीब सात साल बाद। मैं देहरादून में राजपुर रोड पर सेंट्रल ब्रेल प्रेस के निकट खड़ा सिटी बस का इंतजार कर रहा था। तभी सपीप ही लैंटाना की झाड़ियों से मुझे तोते की आवाज सुनाई दी। मैने उस ओर देखा तो एक टहनी पर तोता बैठा हुआ था। वह कुछ घायल भी था और उसकी टांग व अन्य स्थानों पर खून के धब्बे भी थे। मैने तोते को पकड़ने का प्रयास किया। बगैर किसी परेशानी के वह मेरी पकड़ में आ गया। उसने मुझे काटने का प्रयास भी नहीं किया। इससे मुझे अंदाजा हुआ कि उक्त तोता शायद किसी का पाला हुआ था, जो पिंजरा खुलते ही उड़ गया होगा और अन्य पक्षियों के हमले में वह घायल हो गया।
अब शुरू हुई तोते की ट्रेनिंग
मैं तोते को लेकर घर पहुंच गया। मैने उसके घाव पर कुछ दिन दवा लगाई तो वह ठीक हो गया। तोते को घर के कौने में पहले से उपेक्षित पड़े पिंजरे में रख दिया गया। तोता भी काफी चंचल था। धीरे-धीरे वह मिट्ठू, रोटी आदि कुछ शब्द बोलना भी सीख गया। फिर ये तोता घर में सबका लाडला हो गया। आस पड़ोस के बच्चे भी उससे मस्ती करने पहुंच जाते थे।
जब पिंजरे का दरवाजा खुला और तोते ने किया हैरान
एक दिन मैने देखा कि पिंजरे का दरवाजा खुला है और तोता चोंच से उसे बंद करने का प्रयास कर रहा है। वह काफी डरा हुआ भी लग रहा था। वह चोंच से टिन के दरवाजे का पल्ला खींचता, लेकिन बंद होने से पहले वह उसकी चोंच से छूटकर फिर खुल जाता। मैने दरवाजा बंद कर दिया, तो तोते ने राहत महसूस की और चुपचाप बैठ गया। उस दिन के बाद से मेरा यह खेल बन गया। मैं पिंजरे का दरवाजा खोलता और तोता उसे बंद करने की कोशिश करता। साथ ही डर के मारे चिल्लाता भी, जैसे कोई उस पर झपट्टा न मार ले। यह तोता मेरे पास कई साल तक रहा। बाद में मेरा भांजा उसे अपने घर ले गया। एक दिन वह भी पिंजरा खोलने का खेल किसी को दिखा रहा था। तोता पहले दरवाजा बंद करता रहा, फिर बाहर आया और उड़ गया।

बाहर की दुनिया पिंजरे से भयावाह
अब महसूस करता हूं कि तोते ने बाहर की जो दुनियां देखी, वह उसे पिंजरे से भयानक लगी। पिंजरे से बाहर तो उस पर हर किसी ने हमला किया। उसे दोस्त व दुश्मन की पहचान तक नहीं थी। वह बाहरी दुनियां में खुद को असुरक्षित महसूस करने लगा। ऐसे में उसने तो पिंजरे में ही अपनी सुरक्षा समझी। तभी वह उसका दरवाजा बंद करने का प्रयास करता रहता। धीरे-धीरे वह पहले वाली बात को भूल गया और उसने फिर पिंजरे से बाहर जाने का साहस दिखाया।

तोता और इंसान
उस तोते और इंसान में भी मुझे ज्यादा फर्क नजर नहीं आता। कई बार एक जगह रहकर, एक जैसा काम करते-करते इंसान भी पिंजरे वाले तोते की तरह बन जाते हैं। उनमें पिंजरे वाले तोते के समान छटपटाहट तो होती है, लेकिन वे चाहकर भी दूसरे स्थान पर जाने, कुछ नया करने का रिस्क नहीं उठा पाते हैं। जो इस पिंजरे से बाहर निकलता है, उसे नए सिरे से संघर्ष करना पड़ता है। इसमें कई सफल हो जाते हैं और कई वापस अपने पिंजरे में लौट जाते हैं।
भानु बंगवाल

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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