विनाश की पटकथा लिख रहीं हैं पर्वतीय क्षेत्रों की ये सड़केंः सोमवारी लाल सकलानी ‘निशांत’

सड़कें विकास का साधन मानी जाती हैं और यह वास्तव में हकीकत भी है। बिना सड़क सुविधाओं के हम आज भी आदिवासियों की तरह जीवन जीने के लिए मजबूर रहते हैं, लेकिन प्रश्न यह है कि सड़कें सुनियोजित ढंग से बनें। राष्ट्रीय राजमार्ग हों या लिंक रोड हों, अधिकांश देखने को आ रहा है कि यह अनियोजित ढंग से बनकर ठेकेदारी की बलि चल रही हैं। या कहें कि ये विनाश की पटकथा लिख रही हैं।
ठेकेदार लगा रहे हैं पलीता
उत्तराखंड में ऑल वेदर रोड प्रधानमंत्री मोदी जी की महत्वाकांक्षी योजनाओं मे एक है। उन पर भी ठेकेदार पलीता लगा रहे हैं। एक ही बरसात या यूं कहें कि एक ही बारिश से तवाहियों का मंजर उत्पन्न हो रहा है। इन सड़कों के कारण पर्वतीय क्षेत्रों में विनाश की लीला उत्पन्न हो चुकी है। लूज रॉक्स होने के कारण सड़कों का मलबा ठेकेदारों के द्वारा इधर -उधर डाला जाता है। इससे कि स्थानीय निवासियों, कृषकों की गुजारा करने वाली खेती का विनाश हो जाता है। जगह-जगह मलबा आने से रबाड़ हो जाते हैं। नदी- नाले अवरुद्ध हो जाते हैं। प्राकृतिक संपदा, जीव जंतुओं को क्षति पहुंचती है। जीविका के स्रोत नष्ट हो जाते हैं और दिखाई देता है केवल तबाही का मंजर!
अंग्रेजों के जमान में भी बनीं सड़कें
अंग्रेजों के जमाने भी भारत में सड़कें बनी हैं। रेलवे लाइन से पूरे देश को जोड़ना जिसका जीता- जागता उदाहरण है। सम्राट अशोक से लेकर शेरशाह सूरी तक के शासनकाल में ग्रैंड ट्रंक रोड जैसी सड़कें बनी। आज की सड़कों को बनाने का जो ढंग है, वह असंगत और सोचनीय है। अधिक पैसे कमाने के चक्कर में ठेकेदार या कंपनियां स्थानीय लोगों को किटकिड़े पर खड़ा करती हैं। चंद लोगों की शह पर जिनका राजनीतिक वर्चस्व होता है, राजनीतिक पकड़ होती है, उनको आगे खड़ा कर, क्षेत्रीय अस्मिता को नजरअंदाज करती हुई, अपने कार्य को अंजाम देते हैं।
कृषियुक्त घाटियों में मलबे के ढेर
भारी भरकम दैत्याकार मशीनों के द्वारा जब से सड़क का निर्माण शुरू हुआ तब से तबाही उत्तरोत्तर बढ़ती गई। सरकार अपनी तरफ से काफी कोशिश करती है, लेकिन स्थानीय जनप्रतिनिधि और प्रशासन की बेरुखी के कारण, खामियाजा स्थानीय जनता को भुगतना पड़ता है। पहाड़ों पर बनने वाली सड़कों का मलबा अब कहने के लिए तो डंपिंग जोनों में इकट्ठा किया जा रहा है, लेकिन यह किसी से छिपा हुआ नहीं है कि कृषि युक्त गहरी घाटियों में केवल मलबे के ढेर नजर आ रहे हैं।
होनी चाहिए निगरानी
अभी हाल की ही दो दिन के बारिश से उत्तराखंड में 64 लोगों की मृत्यु हो चुकी है। अनेकों लोग लापता हैं। कितनी हानि उत्तराखंड को हुई है, यह आज सभी को विदित है। पर्वतों में विकास हो, लेकिन उस कार्य का अनुश्रवण हो। सरकार को चाहिए कि एक अलग सेल स्थापित करें जो कि इस कार्य की निगरानी करें और वह इसके लिए उत्तरदाई भी हों। वरना ठेकेदार और निर्माण एजेंसियां हमेशा मुनाफा कमाने के चक्कर में तथा कुछ लोग मुफ्त में पाने के चक्कर में पहाड़ का विनाश करते रहेंगे।
राजनीति से हटकर करें ध्यान फोकस
मेरा पर्यावरणविदों, प्रकृति प्रेमी और विकास पुरुषों से भी निवेदन है कि वह राजनीति से हटकर जिन मुद्दों पर अपना ध्यान फोकस करें और जनहित में, इस प्रकार से सड़कों, विकास कार्यों आदि निर्माण कार्य हों, जिससे लोगों को जन-धन की हानि नहीं उठानी पड़े। प्राकृतिक संतुलन बरकरार रह सके। हमारी पारिस्थितिकी न बिगड़े और स्थानीय जनता की जान जोखिम में भी ना पड़े।
बिन बारिश दरक रहे पहाड़
ऋषिकेश- गंगोत्री राजमार्ग के बुरे हाल हैं। बिना बारिश के भी पहाड़ दरक रहे हैं। चट्टानें टूट रही हैं। बनी हुई सड़कें उखड़ रही हैं। पर्यावरणविद् आवाज उठाते हैं, लेकिन बाद में वह भी मौन हो जाते हैं। हालांकि उनकी बातों का दूरगामी प्रभाव होता है। वरना ठेकेदार तो आज लाभ के लिए डायनामाइट से पहाड़ों को उड़ा देते। पर्वतों में रहने वाले प्रत्येक निवासी का कर्तव्य है कि वह अपने हितों के लिए जागरूक रहे हैं और ऊंची सोच के साथ ठेकेदारों की इस कारगुजारी विरोध करें। प्रशासन के संज्ञान में इन तथ्यों को लाएं। शासन के संज्ञान में भी यह बातें हैं। जनप्रतिनिधि इन तथ्यों को विधानसभा में उठाकर नीति बनवायें। जिससे कि पहाड़ों का समुचित और सुनियोजित विकास हो सके। लोगों को सुविधा भी मिले। पर्यावरण की रक्षा हो। विकास और रोजगार के दरवाजे भी खुलें। इसके लिए प्रत्येक को जागरूक होने की आवश्यकता है।
लेखक का परिचय
कवि एवं साहित्यकार सोमवारी लाल सकलानी, निशांत सेवानिवृत शिक्षक हैं। वह नगर पालिका परिषद चंबा के स्वच्छता ब्रांड एंबेसडर हैं। वर्तमान में वह सुमन कॉलोनी चंबा टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड में रहते हैं। वह वर्तमान के ज्वलंत विषयों पर कविता, लेख आदि के जरिये लोगों को जागरूक करते रहते हैं।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।