जब चीनी अधिकारी का मानसरोवर झील में भारतीय प्रोफेसर से हुआ तैराकी का मुकाबला, जानिए फिर क्या हुआ
प्रो. धीरेंद्र शर्मा लिखित प्रकाशित पुस्कत UNCHARTED LIFE’S JOURNEY से एक अंश। प्रो. धीरेंद्र शर्मा जेएनयू से सेवानिवृत्त हैं। इस वक्त वह 91 साल के हैं। इस उम्र में उनकी किताब UNCHARTED LIFE’S JOURNEY हाल ही में प्रकाशित हुई। इसका अनुवाद मुकुन्द नीलकण्ठ जोशी कर रहे हैं। यहां प्रोफेसर धीरेंद्र शर्मा के संबंध में ये भी बताना होगा कि वे जेएनयू में विज्ञान नीति के प्रोफेसर रहे। इससे पहले वह अमेरिका में प्रोफेसर थे। पीएचडी उन्होंने इंग्लैंड में की। यहां देहरादून में वह निवासरत हैं। लिखना उन्होंने नहीं छोड़ा। अब तक उनकी कई पुस्तक प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी किताब के कुछ अंश यहां मुकुन्द नीलकण्ठ जोशी की ओर से प्रस्तुत है-
जब मैं मानसरोवर में तैरा
कैलाश पर्वत के नीचे लगभग 100 किमी तक फैला एक विस्तृत ऊबड़ खाबड़ क्षेत्र है जो चन्द्रमा पर की धूल भरी मिट्टी जैसा लगता है। आज के उत्तराखंड में लगभग 20 दिन की लंबी पदयात्रा के बाद हमने 18000 फीट की उँचाई पर लेपुलेख दर्रे को पार किया और 60 किमी फैले तिब्बती मानव रहित क्षेत्र में पहुँचे। हिमालयीय पठार की इतनी थकावट भरी यात्रा के बाद हम कैलाश पर्वत के ऊँचे शिखर के दर्शन करते हुए उस धूल भरी ठंडी मिट्टी पर अपने को किसी तरह खींचते से जा रहे थे। फिर हम स्फटिक के समान निर्मल सुप्रसिद्ध मानस सरोवर के पश्चिमी तट पर बनाये गये दो तम्बुओं के अस्थायी आधार शिविर में पहुँचे। संध्याकाल का समय था और सूर्य बड़ी शीघ्रता से हिमालय की ऊँची चोटियों के पीछे ओझल हो रहा था।
बचपन से मैं भगवान शिव के निवास हिमालय में स्थित मानसरोवर के बारे में कथायें पढ़ता और सुनता आया था। वहाँ हिमालय की पुत्री गौरी ने ब्रह्मा की योजना के अनुसार ही शिव को प्राप्त करने के लिये तपस्या की थी और वहाँ कथाओं में वर्णित सुवर्णकांति युक्त हंस रक्त एवं श्वेत कमलों की पंखुड़ियों का आस्वाद लेते हुए प्रणय क्रीड़ारत रहते थे। आज वास्तव में मैं अपने बचपन के सपने में देखे हुए स्वर्गीय सरोवर मानस के सामने प्रत्यक्ष खड़ा था। यद्यपि थकावट से चूर अवश्य था पर सामने प्रकृति ने जो अत्यन्त आल्हादकारी, मनोरम सौन्दर्य राशि का कोष उन्मुक्त रूप से उलेड़ दिया था, उसने सारी थकान समाप्त कर दी थी और मन नूतन उत्साह एवं उमंग से खिल उठा था।
मैं तंबू में गया और तैरने की पोशाक में सरोवर में कूद पड़ने के इरादे से बाहर आया। मेरे लगभग दर्जन भर सहयात्री मानस सरोवर के किनारे पर बैठे शोभा निहार रहे थे। अधिकांश की तो उस हिमजल को स्पर्श करने की भी हिम्मत नहीं हो रही थी। कुछ अधिक साहसी अपने पर और एक-दूसरे पर मार्जन कर अर्थात् केवल छींटे उड़ा कर ही सन्तुष्ट हो रहे थे।
लेकिन मैं तो आज दुःसाहसी बना हुआ था। आव देखा न ताव और कूद ही तो गया उस अति शीत बर्फीले पानी में। लगभग पन्द्रह हाथ मार कर आगे पहुँचा, एक डुबकी लगाई मानो उस अथाह सरोवर की गहराई नापने का विचार हो। कुछ फीट ही नीचे उस जलगर्भ में गया हूँगा कि मेरा सारा बदन भयानक ठंढ से काँपने लगा। जैसे तैसे मैंने सिर पानी से बाहर निकाला पर अभी तो पन्द्रह हाथ मार कर वापस आना शेष था। कैसे मुझे समझ में नहीं आ रहा था।
मैं पार्वती के उस स्वर्गीय गृह में मरना नहीं चाहता था यह निश्चित था। न जाने कैसे पर किसी न किसी प्रकार मेरे हाथ चले और मैं किनारे की बालू तक पहुँच ही तो गया। बालू पर शरीर को घसीटते हुए तंबू तक पहुँचा। काफी मालिश और रगड़ कर शरीर को गर्म किया, सुखाया और अपनी भारी भरकम स्लीपिंग बैग में घुस गया।
अब मुझे अहसास हुआ कि मैं क्या कर बैठा था। मैं 14000 फीट की उँचाई पर मानसरोवर की गहराई में। जहाँ ठंड से जकड़े मृत देह के लिये किसी प्रकार की फर्स्ट एड भी नसीब नहीं होनी थी, अपनी ठिठुरन मृत्यु को छू कर लौट आया था।
दूसरे दिन हमने कैलास पर्वत की परिक्रमा की। अगले तीन दिन हम हिमालय के उस भू भाग में विचरण करते रहे, जहाँ कहा जाता है कि कभी पाँच हजार वर्ष पूर्व कुरुक्षेत्र में महाभारत के युद्ध में अपने बन्धु बान्धवों की मृत्यु के कारण शोकमग्न पाँचों पाण्डवों ने भी यात्रा की थी और शान्ति प्राप्त की थी।
कैलाश जी से लौट कर हम एक बार पुनः मानसरोवर के तट पर रात्रि विश्राम के लिये पहुँचे। हुआ कुछ ऐसा कि उसी शाम को एक ऊंचा चीनी विदेश मंत्रालय का अधिकारी हमें विदाई देने के लिये वहाँ आया। वह उस क्षेत्र में लगभग दो वर्ष से नियुक्त था। यद्यपि वह एक अच्छा तैराक था और विशाल यांग त्से नदी में बहुत तैर चुका था। फिर भी उसने कभी मानसरोवर के पानी में घुसने की हिम्मत नहीं दिखाई थी।
चूँकि भारतीयों के लिये मानसरोवर के जल में डुबकी लगाना अत्यन्त पवित्र कार्य माना जाता है, इसलिए उसने जानना चाहा कि हममें से कौन कौन उसमें नहाया। हमारे किसी सहयात्री ने उत्तर दिया कि तुम डुबकी लगाने की क्या बात करते हो हमारे प्रोफेसर शर्मा तो इसमें तैर कर भी आ गये।
असम्भव! चीनी अधिकारी बोल पड़ा। मैं चुनौती देता हूँ कि कोई इस झील में तैर कर दिखाये। हाँ, मैं तैर सकता हूँ, क्योंकि मैं जमी हुई यांग त्से में भी कई बार तैर चुका हूँ। चलो, हो जाय भारत चीन मुकाबला। सारा भारतीय दल भी मुझे पानी पर चढ़ाने लगा। मैं फिर से कपड़े उतार कर उस बर्फीले पानी में उतरने के लिये बिलकुल तैयार नहीं था। पहले मैं गया था अपने आनन्द के लिये। पर अब यह मूर्खतापूर्ण देशभक्ति मुझे निरर्थक लग रही थी। लेकिन तब तक उस चीनी ने तो अपने कपड़े उतार भी दिये थे और भारतीय मुख्य भूमि से आये हुए 52 साल के एक प्रोफेसर को चुनौती दे रहा था। अब पीछे हटना सम्भव नहीं था।
मैंने गीता का “कर्मण्येवाधिकारस्ते” श्लोक पढ़ा और बस एक बूढ़ा प्रोफेसर एक लम्बे चीनी के साथ मानसरोवर के बर्फ में उतरने के लिये प्रस्तुत हो गया। हम दोनों ने बालू को छुआ और छलांग लगाने की स्थिति में आ गये। सारा भारतीय दल भारत की जीत की प्रार्थना करने लगा। एक, दो, तीन और मैं एक बार फिर कूद गया और “शिवोऽहम्, शिवोऽहम्” कहते हुए अपनी शक्ति भर हाथ पैर चला कर पुनः यमराज के घर से वापस आ गया। ठिठुरन से जकड़ा हुआ। कैसे तो भी साँस लेता हुआ। देखता क्या हूँ कि वह चीनी भैया तो वहीं बालू पर बैठा अपने शरीर की मालिश कर रहा था। वह पानी में उतरा तो था पर खतरा भाँप कर तुरंत वापस आ गया। मेरे सारे भारतीय मित्रों के जयघोष से वातावरण गूंज उठा।
क्या मैंने तैराकी का कोई रिकॉर्ड तोड़ा था? क्या मैंने गिनीज बुक के लायक कोई काम किया था? मुझे नहीं पता लेकिन उस शाम हमने मानसरोवर के रम्य तट पर हिन्दी-चीनी भाई भाई की भावना को मनाया अवश्य।
[ प्रोफ़ेसर धीरेंद्र शर्मा सन् 1982 में कैलाश मानसरोवर यात्रा पर गये थे।]
अनुवादक का परिचय
नाम: मुकुन्द नीलकण्ठ जोशी
शिक्षा: एम.एससी., भूविज्ञान (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय), पीएचडी. (हे.न.ब.गढ़वाल विश्वविद्यालय)
व्यावसायिक कार्य: डीबीएस. स्नातकोत्तर महाविद्यालय, देहरादून में भूविज्ञान अध्यापन।
मेल— mukund13joshi@rediffmail.com
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।
जोशी जी को हार्दिक बधाई, एक उत्तराखण्डी ही यह कर सकता है. शाबाश
बहुत ही रोचक और अद्भुत ?