युवा कवयित्री अंजली चंद की कविता- वक्त कैसा भी हो गुज़र ही जाता है
वक्त कैसा भी हो गुज़र ही जाता है
दर्द कैसा भी हो रह ही जाता है,
ज़ख्म कैसा भी हो भर ही जाता है
घाव कैसा भी हो रह ही जाता है,
साथ कैसा भी हो छूट ही जाता है
लगाव कैसा भी हो रह ही जाता है,
अच्छा कितना भी हो भूल ही जाता है
बुरा कितना भी हो रह ही जाता है, (कविता जारी, अगले पैरे में देखिए)
मोह कैसा भी हो चले ही जाता है
त्याग कैसा भी हो रह ही जाता है,
जरूरी जो भी हो मिल ही जाता है
जरूरत जो भी हो रह ही जाता है,
धड़कन, सांसे थम ही जाती हैं
व्यक्तित्व जो भी हो रह ही जाता है,
सत्य जो भी हो छिप जाता है
मिथ जो भी हो छप जाता है, (कविता जारी, अगले पैरे में देखिए)
बर्दाश्त हो तो सामाजिक सम्मान बन जाता है
जुबां खुल जाए तो तमाशा बन जाता है,
बहस अर्थहीन भाषा बन जाती है
तर्क अर्थहीन भाषा को मौन करा देती है,
सच्चाई किसी कोने में छिप जाती है
अफ़वाह चटपटी सी बन मीलों सफ़र कर आती है,
भावुक इंसान की जब भावुकता कुचल दी जाती है
तरासे गए पत्थर से भी ज्यादा पत्थर आवरण ले लेती है,
कवयित्री का परिचय
नाम – अंजली चंद
खटीमा, उधमसिंह नगर, उत्तराखंड। पढ़ाई पूरी करने के बाद सरकारी नौकरी की तैयारी कर रही हैं।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।