आजादी का 75वां साल, सौ में सत्तर आदमी पूछते फिर रहे ये सवाल
सचमुच कितना आनंद है इस दिन में। कामकाजी इसलिए खुश हैं कि दफ्तरों की छुट्टी होती है, वहीं बच्चे इसलिए खुश होते हैं कि अधिकांश स्कूल नहीं जाते। फिलहाल कोरोनाकाल में तो वैसे भी स्कूल बंद हैं। जिस राज्य में खुले हैं, वहां भी बच्चों की उपस्थिति ना के बराबर हैं। ये अलग बात है कि जब मैं छटी जमात में था तो इस दिन स्कूल न जाने पर अगले दिन सुबह प्रार्थना के समय सभी बच्चों को सजा के तौर पर मुर्गा बना दिया गया था। फिर भी हर कोई आजाद है।
जहां तक हम दूसरों की आजादी को बाधित नहीं करते, वहां तक तो हम आजाद ही हैं। हरएक को अपनी बात कहने की आजादी है। आंदोलन की आजादी। राजनीति में आने की आजादी। बचपन में मैं घर के आंगन में तिरंगा फहराता था। तब इस लोकतांत्रिक देश में झंडे जी की जय बोलो, डंडे जी की जय बोलो के साथ ही सांस रोककर खड़े-खड़े मुझे अधिनायक की जय बोलना भी अच्छा लगता था। अब झंडा तो मैं नहीं फहराता, लेकिन मन में इसके प्रति सम्मान जरूर है।
आजादी का पर्व सभी अपने-अपने अंदाज से मनाते हैं। समाचार पत्रों के कार्यालयों में भी छुट्टी होने की वजह से मेरे कई पत्रकार मित्र तो इस दिन पूरे आजाद नजर आते हैं। कहीं पिकनिक प्लान की जाती है। शराब की दुकाने बंद रहती हैं, तो एक दिन पहले से ही जुगाड़ कर लिया जाता है। इस दिन वे भी पीने की आजादी मनाते हैं। खैर जो भी हो, जिस गली या मोहल्ले में निकल जाओ, वहां का वातावरण देशभक्तिमय नजर आता है। सड़क पर भीड़ नहीं रहेगी, यह सोचकर मैं भी बेटे की साइकिल उठाकर घर से शहर की परिक्रमा को निकल पड़ा। लंबे अर्से के बाद साइकिल में हाथ लगाने पर शुरुआत में मैं डरा भी, लेकिन कुछ देर बार ही मुझे लगा कि जैसे रोज चलाता हूं।
घर से कुछ आगे मंदिर के प्रागंण पर भी ध्वजारोहण की तैयारी चल रही थी। नेताजी ने आना था। वहां भी डाल-डाल पर सोने की चिड़िया… का रिकार्ड बज रहा था। अब घर मैं गौरेया तक दिखाई नहीं देती, सोने की चिड़िया तो दूर की बात हो गई। वैसे मैने गौरेया के लिए एक लकड़ी का डिब्बा घर में लगाया है। कभी कभार उसमें गौरेया अंडे देने जरूर आती है। बच्चे होने और उनके उड़ने के बाद वह भी फुर्र हो जाती है। ये क्रम कई साल से चल रहा है। फिर भी कंक्रीट के जंगलों ने अधिकांश घर के आंगने से पेड़ गायब कर दिए। ऐसे में सुबह सुबह चिड़ियों के चहचहाट भी कम ही सुनने को मिलती है। खैर मेरे यहां गेट पर ही एक छोटा अमरूद का पेड़ है। जो अधिकांश समय फल देता रहता है।
मेरी साइकिल आगे बढ़ रही थी। आगे एक स्कूल के प्रांगण में गिने चुने बच्चे सांस्कृतिक कार्यक्रम कार्यक्रम में भाग ले रहे थे। अंगुली में गिनने लायक बच्चे थे। हो सकता है कोरोना की वजह से स्कूल वालों के परिवार के ही बच्चे हों। जो स्वाधीनता दिवस के उपलक्ष्य में प्रतीकात्मक तौर पर कार्यक्रम कर रहे हों। बालक व बालिकाएं देशभक्ति गीत पर नृत्य कर रहे थे। बेचारी मासूम बालिकाएं सचमुच कितनी आजाद नजर आईं। वह भी आजादी का जश्न मना रही हैं। भले ही घर में उसे भाई की अपेक्षा कम महत्व दिया जाता है। कई का घर में चोका व बर्तन इंतजार कर रहे होते हैं।
अब तो माता-पिता भी मनचाही औलाद के लिए आजाद नजर आते हैं। गर्भ में ही बालिका की हत्या कर दी जाती है। फिर भी इस दिन तो सारा देश मस्त है। झूम रहा है। आजादी का जश्न मना रहा है। ऐसा मुझे सुबह से ही प्रतीत हो रहा था। हर सरकारी कार्यालय विशेष रूप से सजाए गए। घर-घर में टेलीविजन व रेडियो या फिर डेक पर देशभक्ति गीत सुनाई देने से मैं प्रफुल्लित हो रहा था। फिर करीब एक घंटे से ऊपर पीएम का भाषण हर चैनल में चलने लगा। कहीं कहीं घर से भाषण की आवाज सुनाई दे रही थी। एक घर के बगल से जब मैं गुजरा तो वहां जो गीत बज रहा था, उसे सुनकर मैं चौंक पड़ा। गीत के बोल थे-सौ में सत्तर आदमी….।
इस गीत को सुनकर मैं समझ गया कि यह किसी कामरेड का घर है। कामरेड ही विपरीत धारा में तैरने का प्रयास करते हैं। आज के दिन इस गीत को बजाकर वह अलग तरीके से आजादी के मायने तलाश रहा था। मैं देहरादून का दिल कहे जाने वाले शहर के केंद्र बिंदु घंटाघर तक पहुंच गया। यहां से कुछ ही दूर गांधी पार्क का नजारा भी अलग था। कांग्रेस भवन में भी देशभक्ती गीत गूंज रहे थे। हर तरह लाउडस्पीकर के जरिये देश की धरती सोना उगल रही थी। लगा कि आजादी से पहले हमारे बाप दादा भूखों मरते थे। तब शायद किसी को काम नहीं था। सभी बेरोजगार थे। अब देश आजाद है। सामाजिक, आर्थिक दृष्टि से हर एक सुरक्षित है। कोई फटेहाल नहीं है। अब तो हर एक गरीब को मोबाइल भी मिल जाएंगे। इससे ज्यादा और क्या चाहिए एक आजाद देश के आजाद नागरिकों को।
घंटाघर के पास मेरी नजर रिड़कू पर पड़ी। वह अपनी एक दिन की नीलामी के लिए खड़ा था। रिड़कू मजदूरी करता था और काफी मेहनती भी था। घंटाघर में रिड़कू की तरह हर सुबह काफी संख्या में मजदूर खड़े होते थे। वहां ठेकेदार, या अन्य लोग मजदूरों की तलाश में पहुंचते हैं। दिहाड़ी का मोलभाव होता है और मजदूर को लेकर जरूरतमंद अपने साथ ले जाता है। इस चौक पर मजदूर अपने एक दिन के श्रम की नीलामी को खड़े होते हैं। वहां मुझे अकेला रिड़कू ही नजर आया। रिड़कू को मैं पहले से इसलिए जनाता था, क्योंकि उससे मैं भी घर में पुताई करा चुका था। मेरी उससे बात करने की इच्छा हुई। पास पहुंचने पर मैने उससे बचकाना सवाल किया, रिड़कू कैसे हो और आज यहां क्यों खड़े हो। रिड़कू बोला बाबूजी घंटाघर में मजदूरी की तलाश में ही खड़ा होता हूं। आज कोई बावूजी और ठेकेदार नहीं आया।
मैने रिड़कू को समझाया कि आज स्वाधीनता दिवस है। इस दिन देश अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हुआ था। आज कोई तूझे अपने साथ नहीं ले जाएगा। क्योंकि आज काम की छुट्टी होती है। काम कराने वाले का चालान हो सकता है। यह सुनकर रिड़कू निराश हो गया। वह बोला तभी दो घंटे से आज यहां कोई मजदूर के लिए नहीं आया। मैने उसे कहा कि आज सारा देश आजादी का जश्न मना रहा है। तुम भी मनाओ। घर जाओ बच्चों के साथ खुशी से नाचो। यह सुनकर रिड़कू बिफर गया। वह बोला कैसे मनाएं बाबूजी। एक हफ्ते से बारिश हो रही थी। ऐसे में काम ही नहीं मिला। पैसा खत्म हो गया। बनिया ने उधार देना बंद कर दिया। सुबह कनस्तर बजाकर पत्नी ने रोटियां बनाई तो बच्चों व उसके नसीब में एक-एक रोटी ही आई। आज काम नहीं मिलेगा तो शाम को चूल्हा कैसे जलेगा। जब तन ढकने को कपड़ा नहीं होगा, पेट में रोटी नहीं होगी, तो आप ही बताओ बाबूजी कैसे नाचूंगा। मैने उसे सौ का नोट देने का प्रयास किया, लेकिन स्वाभिमानी ने नहीं किया।
मुझसे बात करने के बाद रिड़कू समझ गया कि अब घंटाघर में खड़े रहने का कोई फायदा नहीं है। वह छोटे-छोटे डग भरकर घर की तरफ चल दिया और मैं भी अपने घर की तरफ। रास्ते में लाउडस्पीकर देशभक्ति के गीतों से गूंज रहे थे। इस शोर में मुझे अब कोई भी गीत स्पष्ट सुनाई नहीं दे रहा था। मेरे कान में बस वही गीत गूंज रहा था, जो मैने घर से निकलते हुए रास्ते में एक कामरेड के मकान के भीतर बज रहे डेक से सुना था। वो गीत था- सौ में सत्तर आदमी फ़िलहाल जब नाशाद हैं, दिल पर रखकर हाथ कहिए देश क्या आज़ाद है ……..।
भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।