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November 21, 2024

52 गढ़ों के शासन में विभक्त था गढ़वाल, फिर ऐसे हुआ विस्तार, ब्रिटिश शासन के खिलाफ क्या रही भूमिका, पढ़िए रोचक खबर

यहां आपको उत्तराखंड में गढ़वाल के इतिहास के बारे में बताने जा रहे हैं। जिसे इतिहासकार देवकीनंदन पांडे ने लिखा है। गढ़वाल का विस्तार कैसे हुआ। गढ़वाल में कब-कब किसके आक्रमण हुए। कैसे गढ़वाल की सीमाओं का विस्तार हुआ। स्वाधीनता आंदोलन में गढ़वाल की भूमिका क्या रही। इन सबको लेखक ने एक सूत्र में पिरोकर आपके समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास किया।
गढ़वाल
सन 1803 से पूर्व समस्त गढ़वाल एक ही राजवंश के शासन में था। गढ़वाल का प्राचीन इतिहास पढ़ने से विदित होता है कि सन् 888 से पहले गढ़वाल प्रदेश बावन गढ़ों के छोटे-छोटे ठकुरी राजाओं के शासन में न्यूनाधिक क्षेत्रों में विभक्त था। सन् 888 में पंवार वंशज राजकुमार कनकपाल मालवा से बदरीनाथ यात्रा के उद्देश्य से गढ़वाल आये थे।
गढ़वाल के ऊपरी भाग चांदपुर के सूर्यवंशी राजा भानुप्रताप, जो उस काल में बावन गढ़ों के
ठाकुरी राजाओं में अधिक शक्तिशाली और बदरीनाथ का राजा होने के कारण पूज्य भी था, भेंट होने पर भानुप्रताप ने अपनी इकलौती बेटी का विवाह कनकपाल से कर दिया तथा उसे राजपाट सौंप स्वयं रानी सहित तपस्यार्थ बदरी वन को चला गया था। जहाँ वह कुछ काल तक रहकर पंचतत्व को प्राप्त हुआ।


ऐसे पड़ा था गढ़वाल का नाम
कनकपाल तथा उसके वंशज राजाओं ने समय-समय पर अन्य ठकुरी राजाओं को विजय करते हुए उनके क्षेत्रों को अपने राज्य में मिलाने का क्रम जारी रखा। यहाँ तक कि पंवार वंश के सैंतीसवें राजा अजयपाल के समय तक बावन गढ़ों के राज्य पंवार वंश के राज्य में सम्मिलित होकर एक सुविस्तीर्ण राज्य का स्वरूप धारण कर चुके थे तथा राज्य का नाम अनेक गढ़ों के होने से गढ़वाल रखा गया।
अजयपाल ने बाद में चांदपुर से राजधानी हटाकर अलकनन्दा के बायें किनारे पर श्रीनगर के नाम से बसाई थी। उस समय गढ़वाल राज्य का क्षेत्रफल 16,800 वर्ग किलोमीटर था ओर उसकी सीमा उत्तर में तिब्बत, दक्षिण में जिला सहारनुपर व बिजनौर, पूर्व में कुमाऊँ, पश्चिम में शिमला थी। यही नहीं एक समय तो राजा ललितशाह ने कुमाऊँ को भी विजय करके गढ़वाल में सम्मिलित कर दिया था, परन्तु यह विजय उसकी अधिक समय तक ठहर न सकी, क्योंकि शीघ्र ही गोरखा का आक्रमण गढ़वाल पर हुआ था।
गोरखाओं के आक्रमण
सन् 888 से 1803 तक अर्थात् 915 वर्ष तक इस विस्तीर्ण गढ़वाल पर पंवार वंशज राजाओं का एकछत्र राज्य रहा। उन्नीस: शब्ताब्दी के आरम्भ में महाराज ललित शाह के पुत्र प्रद्युम्न शाह के राज्यकाल में अर्थात् 1801 में नेपाल सरकार की विजय लालसा इस ओर बढ़ने के लिए प्रबल हो उठी। गोरखा फौज के पहले आक्रमण को बड़ी वीरता से रोककर उन्हें गढ़वाल की सीमा से बाहर कर दिया गया। परन्तु दूसरा आक्रमण जो सन् 1803 में हुआ वह बदले की भावना से था।
परिणामस्वरूप घरेलू कलह की निर्बलता के कारण न रूक सका। फलतः महाराज प्रद्युम्न
शाह देहरादून में शत्रु की गोली से मृत्यु को प्राप्त हुए। प्रद्युम्न शाह के लघु भ्राता कुंवर प्रीतम शाह शत्रु की कैद में आ गये। पराक्रम शाह नानागदा को भाग गये उत्तराधिकारी युवराज सुदर्शन शाह, जो नाबालिग थे, उनको उनके चतुर साथी (सेवक) ज्वालापुर ले गये। जहाँ वह शत्रुओं से सुरक्षित रखे गये थे। युवराज सुदर्शन शाह ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी से समझौता करके कम्पनी की सहायता से गोरखा शासन से कुमाऊँ-गढ़वाल को निजात दिलायी।
ईस्ट इंडिया कंपनी ने बड़ा हिस्सा लिया अधिकार में
गढ़वाल-कुमाऊँ में शान्ति स्थापित हो जाने पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने सहायता करने के बदले में सम्पूर्ण कुमाऊँ, देहरादून तथा पूर्वी गढ़वाल ब्रिटिश राज्य में मिलाकर अपने अधिकार में ले लिया। पश्चिमी गढ़वाल (टिहरी) महाराज सुदर्शन शाह के लिए छोड़ दिया था।
ऐसे मिली राजा को शाह की पदवी
अजय पाल के पश्चात् बलभद्र शाह का ही नाम विशेष उल्लेखनीय रहा। उसी के राज्यकाल में गढ़वाल के राजा, पाल के स्थान पर ‘शाह’ का प्रयोग करने लगे। कहा जाता है कि बहादुर खाँ लोदी के राज्यकाल में दिल्ली से एक शहजादा गढ़वाल आया था। शहजादा ने दिल्ली लौटकर गढ़वाल राजा द्वारा किये गये स्वागत-सत्कार का समाचार जब बहादुर खाँ लोदी से कहा तो उसने गढ़वाल राजा को “शाह” की पदवी दी। अंग्रेज इतिहासकार वाल्टन इस घटना को 1483 की मानते हैं, जबकि डॉ. पातीराम के अनुसार यह घटना सन् 1465 में घटित हुई थी।


सम्राट अकबर का भी रहा प्रभुत्व, एक ऊंट से बचाया टैक्स
सम्राट अकबर का प्रभुत्व गढ़वाल राज्य पर भी रहा। इतिहासकार कहते गढ़वाल राजा से जब अकबर ने गढ़वाल की खेती की आय का हिसाब मांगा। गढ़वाल राजा ने यह दर्शाने के लिए कि ऊँची-नीची जगह पर खेती नहीं के बराबर होती है, एक ऊँट सम्राट अकबर के सम्मुख लाकर खड़ा कर दिया। इस ऊँट की ऊँचाई तथा पीठ की बनावट ने सम्राट को खेतों की वास्तविक स्थिति से परिचय करा दिया। परिणामस्वरूप अकबर ने गढ़वाल से कर लेना बन्द कर दिया। गढ़वाली चित्रकला के प्रमुख चित्रकार मोलाराम के चित्रों में मुगल कला की झलक से प्रतीत
होता है कि मुगल साम्राज्य के सम्पर्क में गढ़वाल अवश्य रहा होगा।
औरंगजेब का भतीजा भी आया था गढ़वाल
औरंगजेब का भतीजा सुलेमान शिकोह भी भागकर गढ़वाल ही आया तथा एक लम्बे समय तक श्रीनगर में रहा। डॉ. ईश्वरी प्रसाद का मत है कि गढ़वाल राजा ने सुलेमान शिकोह को औरंगजेब को लौटाने से अस्वीकार कर दिया था, लेकिन उसके उत्तराधिकारी ने औरंगजेब के आदेश को मानते हुए सुलेमान को लौटा दिया था। अतएव यह माना जा सकता है कि सुलेमान शिकोह ने राजा मेदनी शाह की शरण ली और राजा फतेह शाह ने 1659 में उसे औरंगजेब को लौटा दिया।
राज्य विस्तार को आपस में लड़ते रहे गढ़वाल और कुमाऊं
सत्रहवीं शताब्दी के अन्तिम दौर में गढ़वाल और कुमाऊँ के राजाओं में राज्य-विस्तार के लिए समय-समय पर आपस में आक्रमण होते रहे। सन् 1745 में रोहिलों ने कुमाऊँ पर चढ़ाई की। गढ़वाल राजा ने कुमाऊँ के राजा कल्याण चन्द की ओर से तीन लाख रूपया देकर रोहिला आक्रमण का अन्त किया। इस प्रकार कुमाऊँ पर गढ़वाल का अधिकार हो गया। यहाँ तक कि सन् 1759 में ललित शाह ने अपने पुत्र प्रदीप शाह को प्रद्युम्न चन्द के नाम से कुमाऊँ की गद्दी पर बिठाया। ललित शाह की मृत्यु के बाद जयकृत शाह गढ़वाल का राजा बना, लेकिन जयकृतऔर प्रद्युम्न चंद में आपस में ठन गयी। परिणामस्वरूप युद्ध में जयकृत शाह मृत्यु को प्राप्त हुआ।
प्रद्युम्न चंद (शाह) गढ़वाल का राजा हो गया और कुमाऊँ फिर से चन्द शासकों के हाथ में चला गया। सिक्ख व मराठा के भी हमले गढ़वाल पर होते रहे। सन् 1815 में अंग्रेजों ने अपने राज्य का विस्तार एवं पर्वतीय क्षेत्रों को अपनी आवास स्थली के रूप में विकसित करने के उद्देश्य से गोरखों को पराजित कर कुमाऊँ-गढ़वाल के क्षेत्र को अपने अधिकार में ले लिया।

ब्रिटिश सरकार ने गंगा नदी के बायें तट पर स्थित आधे गढ़वाल को ब्रिटिश गढ़वाल के नाम से अपने शासन के अधीन कुमाऊँ कमिश्नरी के अन्तर्गत रखा तथा गंगा नदी के दायें तट पर स्थित गढ़वाल को टिहरी राज्य के नाम से प्रद्युम्न शाह के पुत्र सुदर्शन शाह को सौंप दिया। कुमाऊँ, का कमिश्नर टिहरी राज्य के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा नियुक्त राजनैतिक प्रतिनिधि भी होता था।

गढ़वाल और कुमाऊं जिलों में बंटी कमिश्नरी
1839 में कुमाऊँ कमिश्नरी, कुमाऊँ और गढ़वाल नामक दो जिलों में विभक्त हो गयी थी। 1842 में तराई नाम से तीसरा जिला भी उसमें बनाया गया। सन् 1892 में कुमाऊँ कमिश्नरी अल्मोड़ा, नैनीताल और ब्रिटिश गढ़वाल जिलों में विभक्त कर दी गयी। गोरखों ने अपने अल्पकालीन शासन में कुमाऊँ गढ़वाल में अनेक अत्याचार किये।
अंग्रेजों ने किए कई सुधार
1815 में इस क्षेत्र पर अधिकार कर लेने के पश्चात् अंग्रेजों ने अपने शासन के प्रारम्भिक वर्षों में कुमाऊँ- गढ़वाल में अनेक सुधार किये। सुधारक के रूप में कुमाऊँ कमिश्नर ट्रेल, बैटन और सर हेनरी रामजे का नाम उल्लेखनीय है। यद्यपि ब्रिटिशकाल में कुमाऊँ, तेईस कमिश्नरों का कार्य क्षेत्र रहा तथापि रामजे ही सर्वाधिक लोकप्रिय हो पाये। इस प्रकार गोरखों की अत्याचारी नीति की कटु स्मृति तथा अंग्रेजों की सुधारवादी नीति के कारण अपने शासन के लगभर एक सौ वर्षों तक यहाँ ब्रिटिश सरकार को जनसाधारण के किसी भी विरोध का सामना नहीं करना पड़ा।


ब्रिटिश शासन के विरूद्ध विद्रोह
कुमाऊँ कमिश्नरी के ब्रिटिश गढ़वाल जिले में गदर की अवधि में कोई महत्वपूर्ण घटना नहीं घटी। गदर के समय ( 1857) में ब्रिटिश गढ़वाल में बेकेट डिप्टी कमिश्नर था। उसने मैदानी क्षेत्रों से ब्रिटिश गढ़वाल को मिलाने वाले समस्त मार्गों को बन्द कर उनकी सुरक्षा का प्रबन्ध किया। जहाँ से तनिक भी उत्तेजना का समाचार मिलता था, बेकेट उसे दबाने के लिए तुरन्त वहाँ पहुँच जाता था।
भावर के घाटों के मार्गों से विद्रोहियों की गढ़वाल पहुँचने की सम्भावना को देखते हुए पद्मसिंह नेगी और शिवराम मिश्र नामक दो गढ़वालियों को घाटों की रक्षा करने का दायित्व अंग्रेजों ने सौंपा। पद्मसिंह उन दिनों बड़ा प्रभावशाली तथा धनी व्यक्ति था। शिवराम मिश्र और पद्मसिंह नेगी ने घाटों को विद्रोहियों की पहुंच से दूर रखा। अत: गदर के पश्चात् दोनों व्यक्तियों की उत्कृष्ट राजभक्ति को देखकर अंग्रेज अधिकारियों ने उन्हें बिजनौर जिले के कुछ गाँवों में अलग-अलग जमींदारी देकर पुरस्कृत किया।
गदर की अवधि में राजा सुदर्शन शाह ने ब्रिटिश सरकार को महत्त्वपूर्ण सहायता प्रदान की। अत: अंग्रेज अधिकारियों ने प्रसन्न होकर उन्हें बिजनौर की जागीर देना स्वीकार किया, परन्तु राजा, बिजनौर की जागीरी की अपेक्षा अपनी पैतृक राजधानी (श्रीनगर) को वापिस चाहता था, जिसका हल ढूंढना अभी बाकी ही था, कि 1859 में राजा सुदर्शन शाह की मृत्यु हो गयी।
बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दो शताब्दियों का समय ब्रिटिश गढ़वाल में सामाजिक सुधारों तथा सांस्कृतिक विकास का काल सिद्ध हुआ। यद्यपि इस अवधि तक देश में व्यापक राजनीतिक चेतना का संचार हो चुका था, तथापि ब्रिटिश गढ़वाल राजनैतिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ था। उस काल में यहाँ रायबहादुर तारादत्त गैरोला, चन्द्रमोहन रतूड़ी, धनीराम शर्मा, गिरजादत्त, जोधसिंह नेगी, डॉ. पातीराम, कुलानन्द बड़थ्वाल, विश्वम्भर दत्त चन्दोला जैसे महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों का प्रादुर्भाव हुआ। ये सभी लोग गोखले मनोवृत्ति के थे।
गढ़वाल में सामाजिक चेतना का उदय
इन नरम सुधारवादियों ने सभा तथा समाचार पत्रों के माध्यम से ब्रिटिश गढ़वाल में सामाजिक चेतना उत्पन्न कर दी। फलत: कई सामाजिक सुधार हुए, किन्तु 1919 में यहाँ भी राजनैतिक चेतना के लक्षण दृष्टिगोचर होने लगे। इसी समय मुकन्दीलाल बैरिस्टर अपनी शिक्षा पूर्ण कर
इग्लैण्ड से गढ़वाल लौट आये। 1919 में अमृतसर के कांग्रेस अधिवेशन में रौलेट एक्ट के विरोध में प्रस्ताव पारित हुआ। इस अधिवेशन में ब्रिटिश बढ़वाल के दो प्रमुख नेताओं मुकन्दीलाल और अनुसूया प्रसाद बहुगुणा ने भाग लिया।
अधिवेशन से लौटने के पश्चात् दोनों नेताओं ने ब्रिटिश गढ़वाल में भी रौलेट एक्ट के विरूद्ध आन्दोलन चलाने का निश्चय किया। यह कार्य असम्भव था, क्योंकि ब्रिटिश गढ़वाल की जनता इस समय तक गोरखा शासन के अत्याचारों को भूली नहीं थी और अंग्रेजों के प्रति कोई द्वेष उनके मन में न था। अत: इन नेताओं ने यहाँ कांग्रेस की स्थापना का कुली उतार, कुली बेगार और कुली बर्दायश नामक कुप्रथाओं को असहयोग का शस्त्र बनाकर यहाँ आन्दोलन चलाने का निश्चय किया।
एक जनवरी 1921 को मुकन्दी लाल बैरिस्टर की अध्यक्षता में कुली उतार, कुली बेगार और कुली बर्दायश नामक कुप्रथाओं के विरुद्ध आन्दोलन संचालित करने के लिए चमेठाखान में एक विशाल सभा सम्पन्न हुई। इसी सभा में आन्दोलन को सफल बनाने व जनता में कुप्रथाओं के विरूद्ध जागृति पैदा करने के लिए ईश्वरी दत्त ध्यानी और मंगतराम खंतवाल ने मालगुजार के पदों से त्यागपत्र दे दिया।

इससे ब्रिटिश गढ़वाल में सनसनी फैल गई। ब्रिटिश गढ़वाल के कुछ छात्र, जो उच्च शिक्षा हेतु बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्यनरत थे, ने तुरन्त यहाँ पहुँचकर आन्दोलन को गतिशीलता दी। बागेश्वर में कुली उतार, कुली बेगार और कुली बर्दायश के विरूद्ध हुए सफल आन्दोलन में भाग लेने के पश्चात् ब्रिटिश गढ़वाल के लोगों ने दोगड्डा में एकत्रित होकर एक सार्वजनिक सभा आयोजित की।
सभा विसर्जन के पश्चात् प्रमुख व्यक्ति जत्थों में विभाजित होकर ब्रिटिश गढ़वाल के गाँवों में बागेश्वर में हुए आन्दोलन की सफलता का प्रचार करने के लिए गये, और जनता से दृढ़तापूर्वक कुली उतार आदि के विरूद्ध संघर्ष करने को कहा गया।

चमोली में अनुसूया प्रसाद बहुगुणा ने इस आन्दोलन का नेतृत्व किया। इस आन्दोलन में पौड़ी गढ़वाल के केशरसिंह का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने एस.डी.एम. के पेशकार के पद से त्यागपत्र देकर ब्रिटिश गढ़वाल में आन्दोलन का नेतृत्व किया। परिणामत: जनता जागरूक हुई और उन्होंने इन कुप्रथाओं का पुतला जलाकर इन्हें गैरकानूनी घोषित किया। सन् 1921 में ब्रिटिश गढ़वाल के डिप्टी कमिश्नर पी.मेसन, नौगाँवखाल से पौड़ी तक अपने कार्यालय में पहले की भाँति कुली उतार प्रथा द्वारा पहुँचना चाहते थे, किन्तु जनता ने कुली बनने से स्पष्ट रूप से इन्कार कर दिया। स्वामी सत्यदेव ने कुली उतार के विरूद्ध हुए आन्दोलन की सफलता को असहयोग की प्रथम ईंट के नाम से सम्बोधित किया।
सन् 1929 के लाहौर कांग्रेस अधिवेशन में ब्रिटिश गढ़वाल के बहुत से कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने भाग लिया। जब वे गढ़वाल लौटकर आये तो उन्होंने यहाँ भी ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध तीव्र आन्दोलन चलाने का निश्चय किया। सन् 1930 में पेशावर में गढ़वाली सैनिकों ने विद्रोह कर दिया था। इन सबका प्रभाव ब्रिटिश गढ़वाल के जनमानस पर पड़ा। 9 जून 1930 को पौड़ी में हरगोविन्द पंत के सभापतित्व में एक विशाल सभा हुई, जिसमें ब्रिटिश गढ़वाल में राजनीतिक आन्दोलन को संचालित करने की रूपरेखा तैयार की गयी।
इस काल में ब्रिटिश गढ़वाल का राजनैतिक केन्द्र दोगड्डा था, इसलिए अंग्रेज उसे ‘राजनीति का क्रीडा स्थल’ कहते थे। 1930 में आन्दोलन की तीव्रता को देखते हुए सरकार ने वहाँ धारा 144 लागू कर दी। जनता इससे नाराज हो गई उसने उत्तेजित होकर डिप्टी कमिश्नर इबटसन
को कोटद्वार तथा पौड़ी में काले झंडे दिखाये। आन्दोलन के दमन हेतु सरकार ने गिरफ्तारियाँ प्रारम्भ की।
पाँच और छ: मई 1938 को श्रीनगर में एक राजनीतिक सम्मेलन सम्पन्न हुआ, इसमें जवाहर लाल नेहरू और विजयलक्ष्मी पंडित ने भाग लिया। इस सम्मेलन में गढ़वाल के युवा नेता श्रीदेव सुमन ने एक प्रभावशाली भाषण देते हुए दोनों गढ़वालों (ब्रिटिश गढ़वाल और टिहरी गढ़वाल) की अखण्डता पर जोर दिया। इस सम्मेलन में ब्रिटिश गढ़वाल में मोटर सड़क के निर्माण तथा तैतीस प्रतिशत बढ़े लगान के विरोध में प्रस्ताव पारित हुए। 23 फरवरी 1947 को लैंसडॉन में गढ़वाल के प्रमुख व्यक्तियों ने सभा का आयोजन कर डोला-पालकी कुप्रथा को पूर्णतया समाप्त करने का प्रस्ताव पारित किया। इस प्रस्ताव के पारित होने से समस्त पिछड़ी जाति के लोगों में नये उत्साह का संचार हुआ।
भारत छोड़ो आंदोलन में अग्रणीय भूमिका
सन् 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में ब्रिटिश गढ़वाल ने अग्रणीय भूमिका निभायी। वहाँ के नवयुवकों ने विध्वंसक कार्यों को अपनाकर ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध अपना तीव्र असंतोष व्यक्त किया। इस आन्दोलन में छात्रों ने भी एक विशाल जुलूस निकाला। इस जुलूस में सरकारी कर्मचारियों के पुत्र एवं गणमान्य व्यक्ति भी सम्मिलित हुए। इस जुलूस की विशेषता यह थी कि इसका नेतृत्व एक रायबहादुर का पुत्र कर रहा था। छात्रों के जुलूस ने अदालत पर राष्ट्रीय झंडा
तिरंगा फहरा दिया। जनता में फैली जागृति को देखकर ब्रिटिश सरकार ने दमन नीति का आश्रय लिया।
कई स्थानों पर गोलियां चलायी, जिसमें चार व्यक्ति मारे गये। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन की सक्रियता से ब्रिटिश गढ़वाल में अंग्रेजों के हाथ-पैर फूल गये और उन्होंने कई पूर्व पारित प्रस्ताव, जो लागू नहीं किये गये थे, उन्हें लागू कर जनता का विश्वास जीतने का प्रयास किया। किन्तु जनता अंग्रेजों की दासता से मुक्ति पाने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ था।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस द्वारा संगठित आजाद हिन्द फौज’ ने देश की आजादी का मार्ग प्रशस्त कर उसे कई वर्ष पूर्व ही स्वतंत्रता प्रदान कर दी। ब्रिटिश गढ़वाल के निवासी, नेताजी की राष्ट्रीय भावनाओं एवं असाधारण व्यक्तित्व से अत्यधिक प्रभावित थे। अत: यहाँ के निवासी काफी संख्या में आजाद हिन्द फौज में भर्ती हुए और कुछ मलवाले वीरों ने रणक्षेत्र में उत्साह तथा साहस के साथ कुशल रणनीति का परिचय देते हुए मित्र राष्ट्रों को शक्तिशाली सेना के दाँत खट्टे कर दिये और देश को पराधीनता की बेड़ी से मुक्त करने के लिए सहर्ष मृत्यु का आलिंगन किया।

लेखक का परिचय
लेखक देवकी नंदन पांडे जाने माने इतिहासकार हैं। वह देहरादून में टैगोर कालोनी में रहते हैं। उनकी इतिहास से संबंधित जानकारी की करीब 17 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कुमाऊं के निवासी पांडे लंबे समय से देहरादून में रह रहे हैं।

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