युवा लेखिका किरन पुरोहित की कलम से, अलकनंदा नदी को लिखा पत्र, आप भी पढ़िए
नदी को चिट्ठी
प्रिय अलकनंदा ,
सस्नेह प्रणाम ,
कैसी हो तुम, कुछ दिन तुम्हें नहीं देखा तो तुम्हारी याद आने लगी। कई दिनों से तुम से बातचीत नहीं हुई तो सोचा तुम्हें एक पत्र लिख लूं और पूछूं कि तुम कैसी हो ? तुम्हारे तट पर रहने वाले सभी जीव कैसे हैं। छोटी छोटी चिड़िया जो कभी-कभी उड़ते हुए तुम्हारे आंचल में बिखरे उन पत्थरों पर आकर बैठ जाती वह कैसी होंगी ? इसके साथ ही दूर के गांव से गाय जो तुम्हारा जल पीने के लिए तुम्हारे तट पर आती है क्या आज कल भी आई होंगी? यह सब बातें तुम मुझे शीघ्र ही बता देना । यदि मैं शीघ्र ही घर आ जाऊं तो अपने मुंह से और यदि कुछ और समय तुम्हारे तट से दूर अपने गांव में चली जाऊं तो वहां अपनी तट की हवाओं मे संदेश को बता कर मुझ तक पहुंचा देना।
बरसात और शरद ऋतु की अवधि बीत जाने के बाद फिर पहाड़ों में ठंड आ गई है। इस समय तुम्हारे जन्म स्थान ऊंचे बद्रीनाथ क्षेत्र से आगे वसुधारा और सतोपंथ ग्लेशियर में बर्फ पड़ गई होगी । वहां चारों और चांदी जैसी चमकती बर्फ होगी जिसके बीच में तुम बह रही होंगी तुम कितनी सुंदर लगती होंगी इसका तो मैं केवल कल्पना में ही अनुमान लगा सकती हूं ।
सखी ! तुम भी इस ठंड का आनंद लो। मुझे याद आता है जब सुबह-सुबह स्कूल जाने के लिए निकलती थी तो उस झूला पुल को पार करना पड़ता था जिसके नीचे तुम अपना विशाल जल साम्राज्य लेकर बहती हो। तुम्हारी वो उफनती लहरें और असीम सुंदर आसमानी आंचल, बादलों में डूबा हुआ, ढका हुआ। ओह ! कितना मनमोहक दृश्य था।
स्कूल जाने की जल्दी में मैं उस दृश्य को जी भर देख ही नहीं पाती थी, कभी समय से जल्दी पहुंचती तो देखती तुम्हारी आसमानी और सफेद लहरों के ऊपर उड़ते पंछी जिनमें ज्यादातर बगुले भी होते थे, तुम्हारे दर्पण जैसे स्वच्छ पारदर्शी अमृत में खेलती मछलियां भी कहीं कहीं दिख जाती थी। चारों और धुंध और बादल तुम्हें घेर कर रखते थे और तुम टेढ़ी-मेढ़ी शोर मचाती इठलाती हुई। हिमालय की गोद में खेलती हुई कन्या की तरह दौड़ती जाती थी। हिमालय की गोद में तुम्हारी इस यात्रा का अंत कभी ना हो। जब तक तुम हो मानो ये ठहरे हुए पर्वत तुम्हें देखकर गति करने लगते हैं, इनका मन भी चंचन हो जाता होगा। इनकी भावनाएं भी तुम्हारी तरह उफान पर आ जाती होंगी। तुम उस घाटी को कितना जीवंत कर देती हो, जिसे सब अलकनंदा घाटी और मैं अपना घर कहती हूं।
सखी !, वसुधारा में तुम्हें देखा तो तुम एक कन्या की तरह थी किंतु एक जल रूपी देवकन्या की तरह जो – ब्रह्मा जी के कमंडल से छूटकर, भगवान विष्णु के पद से लगती हुई, महादेव जी के शीश का साज बनकर उनकी महान जटाओं से धरती पर उतर रही हो। सखी वहां वसुधारा मे तुम्हारे जल को छू पाना भी संभव नहीं था। तुम्हारा प्रवाह इतना तीव्र था पर स्नेह के वश, तुम्हारी बूंदे हवा का हाथ पकड़कर खुद ब खुद मेरे पास आ पहुंची।
मानो तुमने मुझे छू लिया और गले से लगा लिया । मेरी सहेली तुम पंच प्रयाग में अपने पांच स्वरूपों से मिलती हो पांचवे प्रयाग देवप्रयाग में भागीरथी से मिलकर तुम गंगा कहलाती हो और फिर तुम्हारा यह बालपना छूट जाता है। तुम एक देवी की तरह पर्वतों से उतर कर भारत के जल को धन्य करती हो और अपनी महान यात्रा करती हो वसुधारा से देवप्रयाग तक मैंने अलकनंदा के रूप में तुम्हें एक चंचल देवकन्या और अपने सहेली की तरह देखा है।
तुम्हें ना देखूं तो लगता है की चंचलता और जीवंतता की सरिता अपने घर ही छोड़कर कहीं और आ गई हूं। कुछ दिनों के लिए भी पर तुम्हें देखे बिना रहना संभव ही नहीं लगता। इस महीने बहुत व्व्यस्तता थी, अब जल्द ही घर आऊंगी अपनी अलकनंदा घाटी में तुम्हें मन भर देखती रहूंगी। हमेशा की तरह तुमसे बातें करूंगी। फिर तुम मुझे बताना कि और क्या-क्या हो रहा है तुम्हारी अलकनंदा घाटी में ?
तुम्हारी याद में, तुम्हारी सहेली, हिमपुत्री किरन।
लेखिका का परिचय
नाम – किरन पुरोहित “हिमपुत्री”
पिता -दीपेंद्र पुरोहित
माता -दीपा पुरोहित
जन्म – 21 अप्रैल 2003
अध्ययनरत – हेमवती नंदन बहुगुणा विश्वविद्यालय श्रीनगर मे बीए प्रथम वर्ष की छात्रा।
निवास-कर्णप्रयाग चमोली उत्तराखंड।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।
Bahut hi sunder???
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया ??
सुंदर पत्र व सवाल.
हिमपुत्रि किरन का कमाल.
आर्शीवाद.