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August 2, 2025

चिता की चिंता, आज तक नहीं भूला वो दृष्य, विपरीत परिस्थितियों में नश्वर शरीर को राख में बदलने के हो रहे थे प्रयास

ये प्रकृति भी अजीबोगरीब खेल दिखाती है। कहीं सुख का अहसास कराती है, तो कभी इसका दुख रूपी ऐसा रूप देखने को मिलता है कि भी शायद उसे देखकर हर कोई डर जाए।

ये प्रकृति भी अजीबोगरीब खेल दिखाती है। कहीं सुख का अहसास कराती है, तो कभी इसका दुख रूपी ऐसा रूप देखने को मिलता है कि भी शायद उसे देखकर हर कोई डर जाए। वैसे तो इंसान के जीवन में सुख और दुख आते और जाते रहते हैं। कभी व्यक्ति इतना खुश रहता है कि लगता है सारे जीवन की खुशियां उसे मिल गई हो। वहीं, कभी व्यक्ति पर दुख की झड़ियां लग जाती हैं। इससे उबरना ही व्यक्ति के लिए कड़ी चुनौती होता है। कई दुख का तो निवारण होता है, लेकिन कई का कोई हल नहीं होता। सिर्फ हिम्मत से ही व्यक्ति अपने दुखों के अहसास को कम कर सकता है।
छुट्टी के दिन एक सुबह मैं बिस्तर से उठने ही जा रहा था कि मोबाइल की घंटी बजने लगी। मैने काल रिसीव की तो पता चला कि मित्र की पत्नी चल बसी। यह सूचना मेरे लिए अप्रत्याशित नहीं थी। क्योंकि मित्र की पत्नी काफी दिनों से, या कह लो कि काफी साल से बीमार थी। उसे कैंसर था। पहले मित्र अपने बीमार पिता की सेवा कर रहे थे। कई साल तक उनके पिता बिस्तर पर रहे और एक दिन चल बसे।
इसके बाद भी मित्र के दुख कम नहीं हुए। उनकी पत्नी बीमार रहने लगी। पहले चिकित्सकों को बीमारी का पता नहीं चला। सभी अपने हिसाब से इलाज करते। बाद में जब बीमारी पता चली तो तब तक केंसर काफी बढ़ चुका था। कई साल तक मित्र पत्नी का इलाज कराते रहे। इलाज के लिए उन्हें हर माह कुछ दिन के लिए चंडीगढ़ भी जाना पड़ता। जब भी उनसे कोई पत्नी के बारे में पूछता तो वह यही जवाब देते कि हालत में सुधार है। फिर एक दिन ऐसा आया कि चिकित्सकों ने कहा कि सब कुछ सामान्य हो गया। अब उनकी पत्नी को कोई बीमारी नहीं है। इलाज से पूरा केंसर ही कंट्रोल हो गया। मित्र भी खुश थे कि उनकी सेवा काम आई।
एक दिन अचानक उनकी पत्नी की तबीयत फिर से बिगड़ी और जब चिकित्सकों को दिखाया तो पता चला कि फिर से वही बीमारी लौट आई। इस बार केंसर ने ज्यादा खतरनाक रूप ले लिया। फिर दोबारा से वही इलाज शुरू किया गया, जो करीब पांच साल पहले हुआ था। ज्यादातर उनकी पत्नी अस्पताल में ही भर्ती रहने लगी। फिर उस दिन उसने इस दुनियां को अलविदा कह दिया।
मैं बिस्तर से उठकर जल्द तैयार हुआ और मित्र के घर चल दिया। वहां पता चला कि अतिम संस्कार हरिद्वार में होगा। देहरादून में किसी की मौत होने पर अमूमन लोग हरिद्वार ही अंतिम संस्कार करते हैं। देहरादून से हरिद्वार के लिए बस की व्यवस्था की हुई थी। मेरे अन्य मित्र भी हरिद्वार जा रहे थे। कई के पास अपनी कार थी। ऐसे में मैं भी एक दूसरे मित्र की कार में बैठ गया। इस दौरान हल्की बूंदाबांदी भी शुरू हो गई। जब हरिद्वार पहुंचे तो वहां पहले बारिश हो चुकी थी, जो थम गई थी।
हरिद्वार के खड़खड़ी स्थित श्मशानघाट में टिन शेड के नीचे करीब पांच शव जल रहे थे। ऐसे में वहां शव के दाह संस्कार के लिए हमें इंतजार करना पड़ता। इस पर यह तय हुआ कि गंगा के तट पर खुले में ही दाह संस्कार किया जाए। वहां पहले से दो चिताएं जल रही थी। बीच में एक स्थान पर मित्र की पत्नी की शवयात्रा पर आए लोगों ने लकड़ियां रखनी शुरू कर दी। खैर चिता तैयार हुई। घाट स्थित टाल से लकड़ियां भीगी मिलने पर चिता को जलाने में भी काफी मशक्कत करनी पड़ी।
चिता की आग को तेज करने के लिए उस पर राल (साल के पेड़ से निकलने वाला गोंद) डाली जाती है। राल पेट्रोल की तरह आग पकड़ती है। लकड़ी गीली होने पर एक पैकेट की बजाय राल के तीन पैकेट लग गए। किसी तरह चिता ने आग पकड़ी। तभी बारिश शुरू हो गई। आसमान से पानी बरस रहा था और धरती पर चिता जल रही थी। लगातार बारिश से चिता की आग बुझना तय था। आसमान से गिरते पानी से लड़कर चिता को आग को कायम रखना आसान काम नहीं था। क्योंकि बारिश थमने की बजाय तेज होती जा रही थी।
वहीं, गंगा भी भयानक रूप लेती जा रही थी। उसमें टूटे पेड़ बह रहे थे। धीरे धीरे पानी तट की तरफ बढ़ता जा रहा था। लगातार बारिश से चिता की आग को बनाए रखने की चिंता थी, साथ ही ये डर भी था कि कहीं गंगा गा पानी तट तक चिता के पास न पहुंच जाए। अब हमारे साथ जितने लोग थे, उनमें कुछ युवकों ने चिता की आग को न बुझने देने के प्रयास शुरू किए। इस प्रयास में राल के पैकेट के पैकेट खरीदे गए और एक दो युवक उसे चिता में डालते रहे।
नदी तट पर पहले से जो दो चिता जल रही थी, उनकी आग भी बुझने से बचाने के वे लोग प्रयास कर रहे थे, जिनके परिचितों की चिता जल रही थी। कोई भाग कर दुकानों से वाहनों के पुराने टायर खरीद कर ला रहा था, ताकी चिता में डालकर आग तो न बुझने दिया जाए, तो कोई दूसरे उपाय कर रहा था। इस दौरान एक और चिता लगा दी गई थी, लेकिन वह तो शुरूआती दौर पर ही जल नहीं पाई। नदी के तट पर चार चिताओं में से तीन ही धूं-धूं कर जल रही थी। जैसे ही आग बुझने लगती, तो उस पर राल डाल दी जाती।
समीप ही एक चिता की आग बुझी तो उसे जलाने वाले किसी दुकान से साइकिल के पुराने टायर लाए और उससे चिता में डाला। माना जाता है कि चिता में आग लगने के बाद उसे बुझने नहीं दिया जाता। बुझने की स्थिति में दोबारा से उस पर आग नही लगाई जाती। उसी के अंगारों को ही दोबारा भभकाया जाता है। बारिश लगातार बढ़ रही थी, लेकिन लोगों के प्रयास से चिताएं भी जल रही थी। जीवन में मैने पहली बार ऐसा नजारा देखा कि बारिश में भी चिता जल सकती है। उसे जलता रहने के लिए विपरीत परिस्थितियों में मानव प्रकृति से संघर्ष कर रहा था। इसमें मानव के प्रयास ही जीतते नजर आए। क्योंकि यदि व्यक्ति कुछ भी ठान ले तो वह कर सकता है, ये अहसास उस दिन मुझे हुआ। सभी की एक ही चिंता, बस किसी तरह चिता जलती रहे। क्योंकि चिता को तब तक जलते रहना है, जब तक ये नश्वर शरीर राख में नहीं बदल जाता।
यहां एक बात ये भी समझ आई कि ये प्रयास सामूहिक हो रहे थे, तभी इसमें सफल हुए। यदि गरीबी से लड़ने के भी सामूहिक प्रयास होते तो देश की तस्वीर आज बदल चुकी होती। जिस तरह चिता में सब मिलकर लगातार राल डाल रहे थे, यदि उसी तरह विकास और तरक्की को लेकर लगातार सामूहिक प्रयास करते तो शायद देश में 80 करोड़ लोगों को मुफ्त का राशन लेने की नौबत नहीं आती। क्योंकि जो गिर रहा है, वो नीचे ही गिरता जा रहा है। उसे सहारा देने वाला कोई नहीं। बस सिर्फ चंद लोग ही ऊपर की ओर उठ रहे हैं।
भानु बंगवाल

Bhanu Bangwal

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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