क्या यह कोरोना था ? या संदेह का रोना, पढ़िए कोरोना के अनावश्यक डर को लेकर लेखक का अनुभव
भारत में कोरोना की दूसरी लहर अब कुछ कम होती नजर आ रही है। इसके बावजूद अभी हम निश्चिंत होकर न बैठ जाएं। हमें कोरोना के नियमों का पालन करना होगा। ताकि हम इस बीमारी के संक्रमण को कुछ कम करने में अपनी भूमिका अदा कर सकें। इस बीच हमने इस बीमारी से अपने कई परिचितों को खोया है। कोरोना बीमारी के साथ ही एक खौफ भी लोगों के मन में बसा हुआ है। यहां उत्तराखंड के कवि, साहित्यकार, पत्रकार एवं शिक्षक सोमवारी लाल सकलानी इससे जुड़े अपने अनुभव बयां कर रहे हैं।
अस्वस्थ होना एक सामान्य जीवन प्रक्रिया
स्वास्थ्य खराब होना जीवन की सामान्य प्रक्रिया है। मनुष्य जीवन में पूर्ण रूप से स्वस्थ या पूर्ण रूप से अस्वस्थ नहीं रह सकता है। कोरोना वास्तव में महामारी है। लाखों लोग जान गवां चुके हैं। करोड़ों अभी भी संक्रमित हैं। सवा साल से कोरोना का भय इस कदर दिमाग में भर गया कि, मुझ जैसे कमजोर दिमाग के आदमी के लिए यह नरभक्षी जैसा तक बनकर बैठा है। चौबीस घंटे कोरोना का डर। कब आ जय पता नहीं। काफी अपने को समझने की कोशिश करता हूं, लेकिन दहशत से बाहर नहीं निकल पा रहा हूं। सामान्य लक्षण भी कोरोना लग रहें है।
मौसम का प्रभाव भी कारण
जलवायु परिवर्तन, मौसम के बदलने, आहार बिहार में अंतर आने, प्रकृतिजनित और मानवजनित अनेक व्याधियों के द्वारा मनुष्य कभी कभी अस्वस्थ होता है। आजकल वायरल फीवर चल रहा है। यद्यपि यह भी शायद कोरोना का ही छोटा भाई है। एक भी छींक आ गई तो लग रहा है कि क्या यह मौत की दस्तक तो नही ? और फिर बेचैनी, घबराहट, ठंडा पसीना, चक्कर, गैस, कब्ज़, अम्ल पित्त का दौर शुरू। डॉक्टर को दिखाओ तो टेस्ट – जांच, बीसों गोलियां, सीरप और एक हजार रुपये का कम से कम बिल। मजबूरी है, सब करवा रहें हैं। हम भी भीड़ मे शामिल हो जाते हैं। जब घंटों तक केमिस्ट की दुकान के बाहर पर खड़ा रहना पड़ेगा, तो स्वस्थ भी जरूर बीमार हो जायेगा। मौसम की मार ऊपर से।
बीमारियों की जड़ मस्तिष्क
बीमारियां शारीरिक विकृतियों के अलावा मानसिक विकृतियों के कारण उत्पन्न होने वाला महारोग है। कोरोना काल की दूसरी लहर में अनेक लोगों की जीवन लीला समाप्त हो चुकी हैं। समाचार पत्र, टेलीविजन और सोशल मीडिया पर दिनभर चिपके हुए रहने के कारण, हर समय न्यूज़ व्यूज़ के चक्कर में पड़ा रहा। लॉकडाउन के कारण यह लाजमी भी था।
दिमाग में प्रतिक्रिया या रिएक्शन
कभी कभी जानकर व्यक्ति बहुत बड़ी बेवकूफी कर देता है। कभी कभी अनायास ही कोई रिएक्शन दिमाग के अंदर उत्पन्न हो जाता है कि वह मौत से साक्षात्कार करवा देता है। इस महा रोग से निवृत्ति का एक ही समाधान है, मानसिक रूप से ही इसका इलाज किया जाए।
एक कटु अनुभव
7 मई 2021 टीकाकरण के अंतर्गत कोविशील्ड की दूसरी डोज ली। 2 दिन सामान्य रहा। तीसरे दिन अचानक ही सर दर्द होना शुरू हो गया । उसके तुरंत बाद बुखार आना भी शुरू हो गया। पेरासिटामोल आदि की गोलियां लेता रहा। सब सामान्य चल रहा था।
अचानक गायब हुई फिनाइल की गंध
अचानक एक दिन सुबह झाड़ू पोछा करते वक्त बरामदे में फिनायल का पोछा मार रहा था। मुंह पर मास्क लगा था। बहुत ही सर्द सुबह थी। मुंह पर मास्क का ध्यान नहीं रहा और अचानक मस्तिष्क के अंदर एक प्रतिक्रिया हुई और मुझे लगा जैसे मुझे फिनाइल की गंध नहीं आ रही है। अचानक मस्तिष्क में प्रतिक्रिया हुई और मुझे लगा कि मुझे भी कोरोना हो चुका है। क्योंकि पढ़ा था- गंध, स्वाद महसूस न होना भी कोराना का एक लक्षण हैं। यदि उस दिन टेस्ट करवाता तो निश्चित अस्पताल जाना ही था और सचमुच पॉजीटिव आ जाता।
बढ़ने लगी बेचैनी
बस, उसके बाद क्या था। बेचैनी बढ़ने लगी। चक्कर आने लगा। बुखार बढ़ गया। छाती में भारीपन महसूस होने लगा। पूरा शरीर टूटने लगा और मुझ जैसा एक स्वस्थ व्यक्ति अचानक रुग्ण हो गया। फिर भी डॉक्टर से कुछ दवा लाया, लेकिन दवा की दुकान में खड़ा नहीं रह पा रहा था। पांव टूटने लगे। चक्कर आने लगा। घर आ करके दवा ली, लेकिन मानसिक बीमारी के लक्षण पूर्ण रुप से मस्तिष्क में प्रवेश कर चुके थे।
दवा भी बेअसर, सोचा अंत समय आ गया
दवा लेता गया और बेचैनी बढ़ती गई। सोचा, अंतिम समय आने वाला है। फिर भी कभी-कभी अपने को समझाता रहा और कोरोना के चक्कर में नहीं पड़ा, बल्कि आयुर्वेदिक अस्पताल में जाकर के डॉ. रावत जी से दवा लाया। कोई रिलीफ नहीं हुआ। हालत बिगड़ती गई । कुछ दिन बाद गैस और एसिडिटी, शरीर मे जकड़ बढ़ती गई। 2 दिन तक लगातार वोमिटिंग होती रही और उसके बाद शुरू हुआ छाती में दर्द का सिलसिला। ओसिड कैप्सूल खाने के कारण एसिडिटी कुछ कम हुई, लेकिन छाती की जकड़न बढ़ती गई। दिन तो कट जाए लेकिन रात काटने मुश्किल हो गई। रात पर बैठा रहा सोचता रहा। अपनी रुग्ण अवस्था का रोना रोता रहा। सर दर्द के कारण फटा जा रहा था। बेचैनी बढ़ती जा रही थी। चारों तरफ अंधकार दिखाई देने लगा। डर के कारण मैंने अपने को पूर्ण आइसोलेट किया था। जहां निराशा के अलावा कुछ न था।
एक किस्सा
बाल्यकाल में यह किस्सा सुना था कि किसी व्यक्ति ने चंबा में एक दिन पान मुंह के अंदर रखा और उसके बाद गाड़ी पर बैठ कर ऋषिकेश की वह चला। विचारों में मग्न हुआ बेचारा भूल गया कि उसके मुंह में पान रखा हुआ है। अचानक उसने खिड़की से बाहर थूका। पीक के छींटे खिड़की पर भी जमा हो गये। उसके दिमाग में एकदम रिएक्शन हुआ कि उसे तपेदिक हो चुका है और उसके मुंह से खून निकल रहा है। बस! उसके बाद वह धीरे धीरे रुग्ण होता गया और यह एक दिन सचमुच ही क्षय रोग का शिकार बनकर बिस्तर पर पड़ गया। काफी कोशिश करने के बावजूद भी जब उसका स्वास्थ्य नहीं सुधरा। एक दिन अचानक उसे पान चबाने का मन किया। जब अस्पताल का सेवक उसके लिए पान लाया तो एकदम उसके स्मृति के पट खुल गए और अपनी मूर्खता पर उसे बड़ा पछतावा हुआ। फिर उसने अपना मन बनाया और बीसों साल स्वस्थ जीवन यापन किया। बस ! कुछ मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ।
एक दिन अचानक
अचानक एक सुबह मुझे हाथ में बाम ( विक्स ) की गंध महसूस हुई। अरे ! मुझे गंध महसूस हो रही है। इसलिए मुझे कोरोना नहीं है। मैं खुशी से झूम उठा। मनोबल बढ़ता गया और उसी दिन से बुखार भी कम होने लगा। छाती के अकड़न भी कम होने लगी। सांस लेने की जो तकलीफ थी वो भी दूर होती गई और 03 दिन बाद मैं भला चंगा हो गया। अब खूब भोजन खाने लग गया हूं। यद्यपि अभी कमजोरी महसूस हो रही है।
संदेह लाईलाज, अस्पताल में इसका ईलाज नहीं
कभी-कभी अपनी मूर्खता पर स्वयं शर्म आती है। मेरे मानसिक डर और संदेह ने सचमुच मुझे मौत के मुंह धकेल दिया था। जोकि लाईलाज था। ईश्वर का शुक्र गुजार हूं कि उसी ने मेरे संदेह को दूर किया। व्यक्ति जानबूझकर परेशान नहीं होना चाहता। परिस्थितियों उत्पन्न हो जाती है। बस एक ही उपाय है, मानसिक रूप से मजबूत बने रहें। अकारण के बुरे विचारों से दूर रहें। चिंता चिताग्नि अस्ति:। शरीक बीमारी का ईलाज है लेकिन संदेह का किसी अस्पताल में ईलाज नही है।
यह कोरोना नहीं बल्कि संदेह का रोना था
इस प्रकार से कोरोना महामारी के दौरान , बीमारी आई और चली गई लेकिन यह कोई कोरोना नहीं था बल्कि अपने संदेह का रोना था।
लेखक का परिचय
कवि एवं साहित्यकार-सोमवारी लाल सकलानी, निशांत । सेवानिवृत शिक्षक।
स्वच्छता ब्रांड एंबेसडर, नगर पालिका परिषद चंबा, टिहरी गढ़वाल।
निवास- सुमन कॉलोनी चंबा टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।
सही विश्लेषण, यही है