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March 10, 2025

खंडहर होते गांवों में बुजुर्ग की मौत का रहता है इंतजार, ताकि कुछ दिन के लिए ही सही…

इस गांवों में अब तो चिड़ियों ने भी चहचहाना छोड़ दिया। पहले कभी चिड़ियों की चहचहाट से सुबह होती थी और शाम को बच्चों की चिल्लाहट व शोरगुल अक्सर सुनाई देता था।

इस गांवों में अब तो चिड़ियों ने भी चहचहाना छोड़ दिया। पहले कभी चिड़ियों की चहचहाट से सुबह होती थी और शाम को बच्चों की चिल्लाहट व शोरगुल अक्सर सुनाई देता था। आज न तो सुबह चिड़ियों की चहचहाट सुबह का अहसास कराती है और न ही बच्चों का शोर ही सुनाई देता है। चिड़ियां कहां से आएंगी। एक-एक कर युवा शहर में नौकरी को चले गए। साथ ले गए अपना परिवार। गांव में शहरों जैसी शिक्षा नहीं है। ऐसे में शहरों में नौकरी करने वाले बच्चे साथ ले गए। बच्चों को संभालने वाला कोई साथ होना चाहिए। इसलिए पत्नी भी पति के साथ ही चली गई। क्या बचा गांव में। सिर्फ बुजुर्ग महिला व पुरुष। या फिर देखभाल के अभाव में बंजर होते खेत। खेत बंजर होने से चिड़ियों ने भी अपना घोंसला कहीं ऐसे गांव में बना डाला, जहां उन्हें दाना चुगने के लिए आबाद खेत चाहिए। ये कहानी उत्तराखंड के अधिकांश गावों की कहानी बनती जा रही है।
गांव में सुबह कब होती है और शाम कब। इसका अहसास बूढ़े दंपतियों के घरों में चूल्हे से उठने वाले धुएं से होता है। सुबह से ही गांव में पसरने वाला सन्नाटा, जो शायद कभी-कभार बूढ़ों के आपस में बात करने के दौरान ही टूटता है। ऐसी है टिहरी जनपद के अंतर्गत पड़ने वाले मेरे गांव गुरछौली की कहानी। मेरे गांव की ही नहीं, बल्कि ऐसी कहानी उन सभी गांवों की है, जो पलायन की मार झेल चुके हैं।
मेरे गांव में ठाकुर व पंडित परिवारों के मकान हैं। साथ ही दलित लोग भी इस गांव में रहते हैं। सबमें आपसी प्रेम भी काफी है। इनमें पंडित और ठाकुरों के लगभग सभी परिवार शहर में शिफ्ट हो चुके हैं। सिर्फ वही बुजुर्ग गांव में रह गए हैं, जिन्हें अपनी पैतृक जमीन से मोह है। ऐसे में वे गांव छोड़ने की कल्पना तक नहीं करते हैं। भले ही उनके बच्चे शहरों में अच्छी पोजीशन में हैं और वे साथ रहने का आग्रह करते हैं। हां, इतना जरूर है कि गांव में दलित बस्ती में हमेशा रौनक रहती है। वहां अभी पलायन कम ही हुआ है।
वहीं, गांव के भीतर अब देखभाल के अभाव में लोगो के पुश्तैनी मकान भी दरकने लगे हैं। साल में एक दो चक्कर लगाने से क्या मकान बचा रह सकता है। करीब दस साल पहले मैं जब गांव गया तो देखा कि किशन चाचा का मकान तो धराशायी हो गया। वहीं तुंगेश्वर चाचा के कमरे भी गिरने की कगार पर थे। कई साल पहले मेरा अपने गांव में जाना हुआ था। मौका था मेरे चाचा की बरसी का। अब तो शादी भी शहरों में होने लगी। ऐसे में गांव आने-जाने का कारण ही नहीं बचा।
चाचा गांव में ही रहे। उनके बेटे दिल्ली में शिफ्ट हैं, लेकिन वह भी गांव का मोह नहीं छोड़ सके। चाचा की बरसी में गांव में जैसे मेला लग गया। चाचा के सभी बेटे, उनकी बेटियों के साथ ही हमारा परिवार, सभी नातेदार व रिश्तेदार आदि सभी गांव पहुंचे। मेरी पत्नी व बेटों ने भी पहली बार ही गांव देखा। गांव में भीड़ जुटने से ठंडे पड़ चुके चूल्हों में फिर से आंच लौट आई। देर रात तक बच्चों के शोरगुल से गांव में वर्षों से पसरा सन्नाटा कुछ दिन के लिए जरूर टूटा।
गजब का दृश्य था उस समय। घर के आगे आंगन में एक साथ करीब दस चूल्हे सजे थे। महिलाएं और पुरुष सब मिलकर मेहमानों के लिए रोटियां बेल रहे थे। खैर मेहमान भी सब खुद थे और मेजवान भी। क्योंकि जो कुछ दिन के लिए गांव में आया, वो इस कार्य में हाथ बंटा रहा था। बरसी से कुछ दिन पहले तक भागवत पाठ भी बैठाया गया था। ऐसे में गांव में रोनक और अधिक बढ़ गई थी।
गांव में कुछ दिनों के लिए लौटी चहल-पहल से वहां वर्षों से रह रहे बुजुर्ग भी खुश थे। एक बूढ़ी दादी मुझसे बातचीत में कहने लगी कि सभी ने घरबार छोड़ दिया है। बच्चे गांव में नहीं रहते। गांव सूना हो गया। शादियां भी गांव में नहीं होती। ऐसे में सिर्फ किसी के मरने के बाद ही गांव में भीड़ जुटती है। ऐसे दिन का भी अब बुजुर्गों को इंतजार रहता है। जब एक बुजुर्ग मरता है, तब अन्य बूढ़े यह कहते हैं कि अब किसका नंबर आएगा और फिर से गांव में चहल-पहल बढ़ेगी।

भानु बंगवाल

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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