कुमाऊं का आंगन है उधमसिंह नगर, कृषि प्रधान और औद्योगिक केंद्र के रूप में है पहचान, जानिए इस जिले का इतिहास
नगरों को स्थापित करने का श्रेय कुमाऊँ के शासकों को ही जाता है। इस सुन्दर स्थान की भूमि समतल होने के कारण
ही इसे कुमाऊँ का आंगन भी कहा जाता है। कुमाऊँ के शासकों के उपरान्त सन् 1851 में यह क्षेत्र अंग्रेजों के अधिपत्य
में आ गया। अंग्रेजों ने 1862 में बतौर प्रशासनिक इकाई नैनीताल जनपद का गठन करने के दौरान वर्तमान उधमसिंह
नगर को इसमें सम्मिलित किया गया था। सन् 1996 में तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती द्वारा उधमसिंह नगर को
जनपद बनाये जाने तक पूर्व स्थिति बनी रही। इस जिले के बारे में बता रहे हैं, इतिहासकार देवकी नंदन पांडे।
भौगोलिक स्थिति
वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक इस जिले की जनसंख्या 1648908 है। इस जिले का क्षेत्रफल 2452 वर्ग किलोमीटर है। इस जिले के पूर्व में टनकपुर की ओर शारदा नदी है, जो इसको नेपाल से अलग करती है। पश्चिम में लाल
ढांग का क्षेत्र तथा फीका नदी, गढ़वाल भाबर व कुमाऊँ भाबर के मध्य में है। दक्षिण में मुरादाबाद, रामपुर, बरेली व
पीलीभीत के जिले है। उत्तर में कुमाऊँ की पर्वतमालाएँ हैं।
नदियाँ
तुमड़िया, नत्थावाली, ढेला, कोशी, धूधा, डबका, बोर, निहाल, झाकड़ा, धीमरी, बैगुल पश्चिमी, गौला, धौरा, बैगुल पूर्वी, कैलास, देवा, खाकरा, लोहिया, जगबूढ़ा और शारदा। कोशी व गैला में रेल के बड़े पुल हैं। शारदा में बनबसा के पास भारी बाँध है, जिसके ऊपर दोहरा पुल है, यह शिल्पशास्त्र का अद्भुत नमूना है।
कृषि प्रधान और औद्योगिक केंद्र
यह जिला कृषि प्रधान तथा औद्योगिक केन्द्र के रूप में प्राचीन काल से ही प्रसिद्ध रहा है। भौतिक संरचना व जल प्रवाह तंत्र के आधार पर इस क्षेत्र को तराई-भावर के नाम से पुकारा जाता है। तराई के उत्तरी भाग में भाबर 1650 फीट की ऊँचाई में स्थित है। यहीं से मैदानी भाग का सिलसिला प्रारम्भ होता है। यहाँ नदियाँ पर्वतीय भाग से मैदानों में प्रवेश करती हैं। इस क्षेत्र में नदियाँ अपने साथ पहाड़ों से अधिक मात्रा में पत्थर, लकड़ी आदि बहाकर लाती हैं, जिस कारण क्षेत्र का ढलान तीव्र हो जाता है।
भाबर के इस स्थल में समस्त नदियाँ जो पर्वतीय भागों से उतरती हुई आती हैं, भूमिगत रूप में ही प्रवाहित होती हैं। इस भाग की प्रमुख विशेषता यह है कि यहाँ भौगोलिक दशा के आधार पर वनों,खाद्य फसलों आदि का प्राचीन काल से ही भंडार रहा है। तराई, भाबर के दक्षिण में स्थित है, जो लगभग पन्द्रह किलोमीटर चौड़ी पट्टी है तथा किच्छा से लेकर काशीपुर तक का अधिकांश मैदानी भाग इसके अन्तर्गत है। यह क्षेत्र नदियों का ऊपरी स्तर में बहने वाला भाग है, जिस कारण इसे तराई क्षेत्र कहते हैं। यह क्षेत्र बारीक मिट्टी से निर्मित है तथा अतीत से ही कृषि में अग्रणी रहा है।
तराई का क्षेत्र बड़े-बड़े फार्मों तथा उद्यान केन्द्रों के रूप में दृष्टिगत होता है। प्राचीन काल में तराई का यह उर्वर प्रदेश कूर्मांचल में मध्यदेश के नाम से प्रसिद्ध था। मध्यदेश अपभ्रंश रूप में मद्येशिया आज भी प्रचलन में है। इस भाग को “मढ़ी की माल” कहा जाता था। कुछ विद्वानों ने इस “माल” शब्द को फारसी ‘महाल’ का रूपान्तर माना है। यही माल शब्द कूर्मांचल इतिहास में “नौलखिया माल” के नाम से प्रसिद्ध है।
तराई-भाबर को इस क्षेत्र के 84 कोस लम्बा होने पर इसे “चौरासी माल ” कहा जाता था। इस भू-भाग से नौ लाख रूपया लगान प्राप्त होने से इसे “नौलखिया” कहा गया। इस चौरासी कोस व नौलखिया माल की पूर्वी सीमा पूरनपुर, जिला पीलीभीत की शारदा नदी तक तथा पश्चिम सीमा जिला नदी के पास राचपुर थी। इसका उत्तरी भाग पथरीला तथा दक्षिण भाग समतल मैदान का है।
अनेक वंश के राजाओं ने किया राज
इस क्षेत्र पर विभिन्न समयों में अनेकों वंश के राजाओं ने राज्य किया। यहाँ पर हैहयवंशी कार्यवीर्य के वंशजों ने लम्बे समय तक (ईसा की लगभग चौथी सदी से दसवीं सदी तक) राज्य किया। इसी वंश के शासनकाल के दौरान चीनी यात्री हवेनसांग 634 में यहाँ पहुँचा। उसने तराई-भाबर को राज्य के रुप में वर्णित किया था। वह थानेश्वर से वर्तमान सहारनपुर होते हुए बिजनौर के समीप मड़ाबूण पहुँचा। उसके पश्चात् हरिद्वार जो मायापुर के नाम से प्रसिद्ध था और फिर ब्रह्मपुर होते हुए गोविषाण पहुँचा। हवेनसांग ने गोविषाण राज्य का वर्णन किया है।
भगवान बुद्ध ने दिए थे उपदेश
कनिंघम ने गोविषाण राज्य को वर्तमान काशीपुर के निकट द्रोणसागर स्थित बताया है। गोविषाण राज्य के अन्तर्गत ही उस समय समस्त तराई का भाग आता था। ऐटकिन्सन ने गोविषाण राज्य को काशीपुर से 22 मील दूरी ढिकुली के पास बताया है। पुरातत्व सम्बन्धी अन्वेषणों के आधार पर तराई भाग अत्याधिक महत्वपूर्ण है। चीनी यात्री हवेनसांग ने लिखा था कि गोविषाण नगर के मध्य बौद्ध मठ थे, जिनमें एक सौ भिक्षू अध्ययनरत थे। एक देवमंदिर था और नगर के समीप सम्राट अशोक द्वारा निर्मित स्तूप था। कहा जाता है कि अशोक ने यह स्मारक इसलिए बनवाया था कि यहाँ पर स्वयं ही भगवान बुद्ध ने एक माह तक धर्मोपदेश दिए थे।
चीनी यात्री के विवरण अनुसार गोविषाण नगर एक उच्च स्थान पर स्थित है, इसके चारों ओर लता कुंज तथा नौ सरोवर हैं। उस काल में यहाँ पर सघन आबादी थी, जिसमें ब्राह्मणों की संख्या अधिक थी। यहीं पर वह स्थान भी है जहाँ शाक्य मुनि से पूर्व चार बौद्ध रहते थे। इसी स्थान पर दो स्तूप भी है, जहाँ से भगवान बुद्ध केनाखून व बालों के अवशेष उत्खनन द्वारा प्राप्त हुए हैं। इन्हीं अवशेषों में रामनगर के ढिकुली के अवशेष भी प्रसिद्ध हैं। ढिकुली का प्राचीन नाम विराट नगर था। इस नगर के अवशेष पश्चिम की ओर लालढाक चौक पर पाण्डुवाल में प्राप्त हुए हैं। काशीपुर में उझियानी के निकट मौर्य एवं कुषाण युगीन अवशेष प्राप्त हुए हैं। उझियानी के पास स्थित द्रोणसागर का नाम गुरू द्रोणाचार्य के नाम पर पड़ा है। इस तरह इतिहास की सामग्री से ज्ञात होता है कि हैह्यवंश के शासन काल में यह क्षेत्र वास्तव में अत्याधिक सम्पन्न था। दसवीं शताब्दी में इस क्षेत्र का हैवंशी इतिहास समाप्त हो गया।
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लेखक का परिचय
लेखक देवकी नंदन पांडे जाने माने इतिहासकार हैं। वह देहरादून में टैगोर कालोनी में रहते हैं। उनकी इतिहास से संबंधित जानकारी की करीब 17 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कुमाऊं के निवासी पांडे लंबे समय से देहरादून में रह रहे हैं।
सभी फोटोः साभार सोशल मीडिया
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।