कवि सोमवारी लाल सकलानी की दो कविताएं- निशांत के लिए, बात्सल्य बढ़ सुख नहीं कोई
निशांत के लिए
शिशिर ऋतु की सीत, ज्यूं जम जाय संसार।
ग्रीष्म ऋतु का ताप, उगलता आग आकाश।
पावस ऋतु का पानी, ले आता है प्रचंड बाढ़।
निर्जन कानन के छोर पर, देख रहा निशांत।
सागर का कोहरा,पहाड़ों की नींद, शहर की धुंध,
जमीन पर पाला, चट्टानों के बीच संकरा खाला
फिर भी चल रहा संसार, लयरहित युक्त समान।
पर्वत शिखर पर बैठा, दिनकर देख रहा निशांत।
अजीब है जिंदगी ! न मरने देती है, न जीने देती।
संघर्षों है पाठ पढ़ा कर , अंक में फिर भर लेती।
नंगा जीव आता है, चला जाता है – थक कर के।
छोड़ जाता है, सीत,ताप, बाढ़, निशांत के लिए।
बात्सल्य बढ़ सुख नहीं कोई
यह तो नन्ही जान हमारी, खुशियों का दीप जलाए
घर आंगन – भीतर बाहर, चंदा- सूरज दिखलाए।
भोर समय में जग जाती, दिन दिग- दर्शन करवाए।
खग- कुल का करतब देखे, ध्यान- मग्न बन जाए।
मन कितना भी मायूस हो, यह नित उल्लास जगाती।
प्रति पल देखूं भोली छवि मैं, मै भी भोला बन जाऊं।
भूख प्यास हर देती है यह, कुदरत का रूप सुहाती।
नन्ही परी यह प्राणवायु सम, निशांत भाव भर आती।
भूल बुढ़ापा मै जाता हूं, नटखट भोला चंचलपन लख।
हृदय प्रसन्न,मन मुदित हो जाता, तुम्हें देख – देख कर।
बात्सल्य बढ़ सुख नहीं कोई, निर्मल शुचि पावन रस।
तुम्हे देख कर नन्ही दुनिया, रह नहीं सकता अपने बस।
कवि का परिचय
सोमवारी लाल सकलानी, निशांत।
सुमन कॉलोनी, चंबा, टिहरी गढ़वाल।
लोकसाक्ष्य पोर्टल पाठकों के सहयोग से चलाया जा रहा है। इसमें लेख, रचनाएं आमंत्रित हैं। शर्त है कि आपकी भेजी सामग्री पहले किसी सोशल मीडिया में न लगी हो। आप विज्ञापन व अन्य आर्थिक सहयोग भी कर सकते हैं।
वाट्सएप नंबर-9412055165
मेल आईडी-bhanubangwal@gmail.com
भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।