सरकार की यही कहानी, लोकार्पण करो और भूल जाओ, नहीं बचा सीनियर सिटीजन के चलने का रास्ता
उत्तराखंड में भी अन्य राज्यों की सरकारों की तरह ही काम हो रहे हैं। लोकार्पण करो और भूल जाओ। फिर मुढ़कर न देखो। ये भी न देखो को हमने जिस काम के लिए तालियां बजवाई, क्या उसका लाभ लोगों को नियमित मिल रहा है। या फिर मकसद सिर्फ नाम के पत्थर लगाना रह गया है। यहां तो सीनियर सिटीजन पार्क की हालत देखकर ऐसा ही नजर आ रहा है। तीन साल पहले जिस उत्साह के साथ पार्क का उद्घाटन किया गया, अब वहां फुटपाथ में बुजुर्गों के चलने लायक जगह तक नहीं बची है। ये तो उदाहरण मात्र है। अमूमन पार्कों की स्थिति ऐसी ही है।बात कर रहे हैं देहरादून में चिड़ोवाली की। यदि हम फ्लैश बैक में जाएंगे तो चिड़ौवाली में वर्ष 90 से पहले तक किसी पार्क की जरुरत नहीं थी। चिड़ोवाली और इससे लगे गांव कंडोली व सोंदोवाली की पहचान खेती के रूप में थी। चारों तरफ खेत थे। 24 घंटे लोगों को शुद्ध हवा मिलती थी। कंडोली में तो युवाओं ने एक मैदान तक मेनटेन किया हुआ था। इसमें क्रिकेट मैच होते थे। दूसरे मोहल्लों की टीमें भी टूर्नामेंट में प्रतिभाग करती थी। पूरे गांव के लोग मैदान के निकट ही एक ऊंची ढांग वाले स्थान पर दर्शकों की भांति बैठकर मैच का आनंद उठाते थे।
वर्ष 90 के बाद से यहां विकास के नाम पर तेजी से कालोनियों का निर्माण हुआ। खेत गायब हो गए और कंक्रीट की फसल उग गई। अब शुद्ध हवा की जगह तक नहीं बची तो यहां भी सुबह और शाम को बुजुर्गों के टहलने की जरूरत महसूस की गई। करीब तीन साल पहले क्षेत्रीय विधायक गणेश जोशी ने यहां सीनियर सिटीजन पार्क का उद्घाटन किया। उद्घाटन का पत्थर लगाकर मसूरी विधायक भी इसे भूल गए। अब स्थिति ये है कि पूरा पार्क झाड़यों से भर गया है। फुटपाथ तक में झाड़ियां उग आई हैं। ऐसे में बुजुर्गों के लिए चलने तक का रास्ता नहीं बचा है।
एक पार्क के लिए रास्ता भी पुलिस के आवासीय परिसर से होकर गुजरता है। ऐसे में स्थानीय युवा और बुजुर्ग सुबह इस पार्क में जाने से परहेज करते हैं। उनका कहना होता है कि सुबह सुबह लोगों के घरों के बीच से होकर पार्क तक जाने से ऐसा लगता है कि जैसे किसी की स्वतंत्रता में दखल दिया जा रहा हो। खैर इस पर भी जो बुजुर्ग पार्क जाते थे, अब उन्हें भी वहां जाने से डर सताने लगा है। कारण ये है कि झाड़ियां इतनी है कि पता भी नहीं चले कि कहां सांप है या फिर गुलदार छिपा है।
क्षेत्रवासी बताते हैं कि शुरू में तो पार्क की खूबसूरती देखते ही बनती थी। इलाके के बूढ़े बुजुर्ग इस पार्क में टहलते थे। आज अनदेखी से ये पार्क बदहाली की कगार पर है। पार्क के एंट्री में जंक लगे बोर्ड को देखकर इसकी स्थिति का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। अंदर उगी घनी झाड़ियां, जगह जगह पड़ा कचरा, जंक लगे बोर्ड आदि को देखकर ये पार्क कम, जंगल अधिक दिखाई देता है। लोगो ने पार्क के एक तरफ पालतू जानवर बांधने भी शुरू कर दिए और एक कोने पर तो निर्माण कार्य भी कर दिया है। वहीं, नगर निगम प्रशासन गहरी नींद सोया है।
अभिव्यक्ति सोसाइटी के लक्ष्मी मिश्रा के मुताबिक यह उत्तराखंड का दुर्भाग्य कहें कि जब राजधानी के पार्को की कोई सुध नही है, तो सुदूर गांवों में स्थित अन्य प्राकृतिक पार्क, पर्यटक स्थलों के क्या हाल होंगे। पार्क बनाकर एमडीजीए ने भी अपनी आंखे बंद कर ली। नालियां बनाकर नगर निगम ने भी सुध लेनी बंद कर दी। सड़कें बनाकर पीडब्लूडी भी इसे भूल गया। वहीं, आम आदमी से हर वर्ष टैक्स लेना कोई नही भूलता।





