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March 10, 2025

ये है चुनाव की कहानी, जाने अनजाने में कई बन जाते हैं बलि का बकरा

सच ही तो है कि जब भी कोई किसी प्रतियोगिता में भाग्य आजमाता है तो उसे अपनी सफलता की पूरी उम्मीद होती है। दौड़ में भाग लेने से पहले हर खिलाड़ी खुद को पहले नंबर में देखता है। किसी नए बिजनेस में हाथ आजमाने वाला सफलता की पूरी उम्मीद रखता है।

बात वर्ष 2012 की है। एक सुबह मुझे एक परिचित का फोन आया। पहले में फोन करने वाले की आवाज पहचान नहीं सका। कारण कि उक्त व्यक्ति से मिले हुए मुझे करीब बीस साल हो चुके थे। बीस साल पहले हम हर दिन मिलते थे। तब एक नाट्य संस्था से दोनों जुड़े थे। तब में युवा था और वह मुझसे करीब बीस साल ज्यादा की उम्र के थे और वह रंगकर्मी होने के साथ ही ऊर्जा निगम में नौकरी कर रहे थे। साथ ही वह काफी ईमानदार व मृदुभाषी व्यक्तित्व के थे। पत्रकारिता में आने के बाद मैं नुक्कड़ नाटकों के लिए समय नहीं निकाल पाया। कारण कि समाचार पत्रों में लिखने का समय शाम को होता है और रंगकर्मी भी नौकरी आदि से छुट्टी मिलकर शाम छह बजे से ही नाटकों की रिहर्लसल करते हैं।
फोन पर परिचय देने के बाद रंगकर्मी मित्र पहले नाराज हुए कि मैं उन्हें पहचान क्यों नहीं पाया। फिर वह बड़े उत्साह के बोले कि मैं चुनाव लड़ रहा हूं, मेरा ख्याल रखना। मैने पूछा कौन सा चुनाव। इस पर उन्होंने कहा कि कैसे पत्रकार हो। कुछ पता ही नहीं कि उत्तराखंड में लोकसभा की टिहरी सीट के लिए उपचुनाव हो रहे हैं। एमपी के लिए मैं खड़ा हूं। उनके इस जवाब को सुनकर मेरे मुंह से अचानक ये शब्द निकले-बना दिया बलि का बकरा।
शायद ये शब्द रंगकर्मी मित्र नहीं सुन पाए। या फिर सुनकर उन्होंने अनसुना कर दिया। वह तो उत्साह से भरे हुए थे।
वह बता रहे थे कि एक दल ने कई दिग्गजों को चुनाव लड़ने का न्योता दिया। परिवर्तन के नाम से जुड़े नामी रंगकर्मी, साहित्यकार और एक अलग सोच रखने वाले सभी तो उनके साथ हैं। बस मुझे अपने मित्रों से प्रचार में सहयोग करा देना। फोन पर मित्र क्या कह रहे थे, यह मुझे सुनाई देना बंद हो गया। क्योंकि मैं उनकी दशा पर मनन कर रहा था। ऐसे में मुझे उनके शब्द बकरे के मिमयाने की तरह ही सुनाई दे रहे थे।
सच ही तो है कि जब भी कोई किसी प्रतियोगिता में भाग्य आजमाता है तो उसे अपनी सफलता की पूरी उम्मीद होती है। दौड़ में भाग लेने से पहले हर खिलाड़ी खुद को पहले नंबर में देखता है। किसी नए बिजनेस में हाथ आजमाने वाला सफलता की पूरी उम्मीद रखता है। इनमें से कुछ चीजें ऐसी हैं कि यदि हार गए तो कोई नुकसान नहीं होता, लेकिन बिजनेस व राजनीति दोनों की हार तो व्यक्ति को बर्बाद कर देती है। व्यक्ति अपनी जमापूंजी भी बिजनेस बन चुकी राजनीति में गंवा देता है। भले ही मेरे रंगकर्मी मित्र को अपनी जीत की पूरी उम्मीद हो। उनके पास जीत का फार्मूला भी हो, लेकिन मेरे मन में यही सवाल उठ रहा था कि नौकरी से रिटायरमेंट के बाद उन्होंने समय काटने का जो फार्मूला चुनाव में लड़ने के रूप में अपनाया, वह उनके लिए क्या ठीक रहेगा।
अब मुझे मित्र पर तरस आ रहा था और उस व्यक्ति पर गुस्सा, जिसने मित्र को चुनाव लड़ने के लिए उकसाया। क्योंकि वंशवाद की बेल समूचे देश में फैल चुकी थी। उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड हो या फिर कोई अन्य प्रदेश। नेता का बेटा नेता बन रहा है। बहू, बहन, पत्नी को नेता राजनीति में उतार रहे हैं। ये वंशवाद भी वाकई कमाल की चीज है। सिर्फ पत्रकार ही अपने बेटे को पत्रकार बनाना नहीं चाहता। कारण है कि पत्रकार न तो समय पर खा पाता है ना ही समय पर सो सकता है और न ही घर परिवार को समय दे सकता है। यदि ईमानदार हो तो सीमित वेतन में परिवार का खर्च चलाना भी मुश्किल होता है।
इसके उलट डॉक्टर, ईंजीनियर, बिजनेसमैन, दुकानदार आदि सभी अपने बेटे को अपना काम सौंपना चाहते हैं। इन सबसे आगे राजनीति के बिजनेसमैन बुढ़ापे की दहलीज में पैर रखते ही अपने परिवार के सदस्यों को राजनीति में उतार देते हैं। तभी तो उत्तराखंड के उपचुनाव में तब तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने अपनी लोकसभा की सीट खाली की तो उसमें अपने बेटे को ही कांग्रेस का टिकट दिला दिया। इस राजनीति में मेरे रंगकर्मी मित्र की स्थिति तो एक लाचार आम आदमी के समान है। वंशवाद की फैलती बेल के मक्कड़जाल में आम आदमी की कोई ओकात नहीं है। फिर भी यह उनका अपना निर्णय है, इस पर उन्हें समझाने का समय भी निकल चुका था।
अब रही बात बलि का बकरा बनाने वालों की। ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं है। वे खुद चुनाव तो नहीं लड़ते, लेकिन किसी न किसी को हर चुनाव में खड़ा करके उन्हें बलि का बकरा बना देते हैं। ऐसी ही एक घटना मुझे याद आ रही है। उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान मेरे एक परिचित नेवी की नौकरी छोड़ आंदोलन कूद गए। ये मित्र भी पूर्व सैनिकों को एकजुट करने में माहिर हैं। हर चुनाव में वह कोई न कोई तिगड़म भिड़ाकर दो विपरीत धाराओं के लोगों को एक मंच पर लाने का प्रयास भी करते हैं। इन मित्र को सैनिकों के सलाहकार के नाम से जाना जाता है।
वर्ष 96 में पौड़ी लोकसभा के चुनाव में पूर्व सैनिक संगठन से उन्होंने प्रत्याशी मैदान पर उताने की सलाह संगठन में दी। उनके प्रस्ताव पर एक सेवानिवृत्त कर्नल चुनाव लड़ने को तैयार हो गए। चुनाव के लिए पैसा कैसे आएगा, इसका भी कर्नल ने उपाय खोज लिया। उन्होंने अपना मकान, पत्नी के जेवराहत आदि गिरवी रख दिए। फिर चल दिए पौड़ी में नामांकन पत्र भरने। सलाहकार फौजी मित्र ने कर्नल के जुलूस में फौजियों को शामिल करने की तिगड़म भिड़ाई और सेना की कैंटीन में पहुंच गए। वहां दूर दराज से सामान खरीदने आए सैनिकों से उन्होंने कहा कि आपके बीच का व्यक्ति चुनाव लड़ रहा है, ऐसे में सैनिक का स्वाभिमान बचाने में उनका सहयोग करें।
फिर क्या था, कैंटीन बंद कर दी गई। सारे पूर्व सैनिक कर्नल के जुलूस में शामिल हो गए। जुलूस में कुछ पूर्व सैनिक फौजी बैंड बजा रहे थे। प्रत्याशी कर्नल को बरांडी कोट (लंबा कोट) व जंगली हेट पहनाया गया। इससे पहले वहां से मेजर जनरल भुवन चंद्र खंडूड़ी (बाद में उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री) का जुलूस भी गुजर चुका था।
साथ ही इसी दिन तिवारी कांग्रेस से सतपाल महाराज, बसपा से हरक सिंह रावत, कांग्रेस से विजय बहुगुणा भी नामांकन पर्चे भर रहे थे। ऐसे में सड़कों के किनारे तमाशबीनों की काफी भीड़ थी। सैनिक संगठन के प्रत्याशी कर्नल का जुलूस जब गुजरा तो भीड़ देखकर कर्नल साहब को अपनी जीत सुनिश्चित होती दिखाई देने लगी। तभी एक महिला कर्नल के निकट पहुंचकर जोर से गढ़वाली बोली में बोली-बणैयाल बलि कु बकरा (बना दिया बलि का बकरा)। कर्नल गढ़वाली नहीं समझते थे। ऐसे में उन्होंने सलाहकार से पूछा ये क्या कह रही है। सलाहकार ने उनसे झूठ बोल दिया और कहा कि कह रही है कि आप इस ड्रेस में नेपोलियन दिख रहे हो।
गदगद होकर कर्नल की छाती और चौड़ी हो गई। वहीं, सलाहकार को महिला के शब्द तीर की तरह चुभ गए। वह इसी सोच में पड़ गए कि कर्नल साहब चुनाव के बाद बर्बाद हो जाएंगे। ऐसे में अब उन्हें कैसे बचाया जा सकता है। बस वह इसी तिगड़म में जुट गए। नामांकन हुआ और बाद में जब नामांकन पत्रों की जांच हुई तो कर्नल का नामांकन पर्चा निरस्त हो गया। नामांकन पर्चे में सुधार का मौका नहीं मिलता। सलाहकार ने जानबूझकर कर्नल के प्रस्तावक व अनुमोदक ऐसे रख दिए कि जिनका नाम उक्त लोकसभा की मतदाता सूची में नहीं था। नामांकन निरस्त होने के बाद कर्नल सलाहकार से खफा हो गए। बाद में जब चुनाव परिणाम आया, तब उन्हें अहसास हुआ कि उनका चुनाव लड़ने का फैसला वाकई आत्मघाती था। इसके बाद से वह जब भी सलाहकार से मिलते हैं, तो यही कहते हैं कि आपने मुझे बर्बाद होने से बचा लिया।
भानु बंगवाल

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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