मां की कहानियों में होती है प्रेरणा, हाथों में जादू, व्यस्तम जिंदगी में दोनों से ही दूर हो रहे हैं बच्चे
वैसे तो मां की किसी भी आदत व व्यवहार की बराबरी कोई नहीं कर सकता। मां हो या नानी हो या फिर दादी। तीनों ही किरदार में एक ही महिला होती है। उसके हाथों में जादू होता है तो कहानियों में प्रेरणा होती है।

मुझे अपनी मां की दो खासियत हमेशा याद रहती हैं। उनमें से एक है मां की कहानियां और दूसरी खासियत मां के हाथ से बनाया गया स्वादिष्ट खाना। उसकी कहानी में इस संसार में अच्छे-बुरे कर्म की नसीहत होती थी। साथ ही उसके हाथ में अनौखा जादू था। इसी जादू का कमाल है कि उसके हाथ का खाना मुझे हमेशा याद रहता है। वर्ष 2020 में मां भले ही हमें छोड़ गई, लेकिन उसकी दे दोनों खासियत मैं कभी नहीं भूल सकता हूं।
आज के इस दौड़भाग के दौर में हो सकता है कि कई माताओं को बच्चों के लिए समय तक न हो, लेकिन जो माताएं अपने बच्चों के लिए कुछ समय निकालती हैं, वह तो धन्य हैं। साथ ही उनकी औलाद भी धन्य हैं। बच्चों के विकास में मां की कहानियों का भी बड़ा योगदान होता है। कहानियां ही बच्चों को अच्छे व बुरे का ज्ञान कराती हैं। बचपन से ही मुझे अपनी मां से कहानी सुनने का सौभाग्य मिला। मैं और मुझसे बड़ी बहन रात को सोने के लिए मां के अगल-बगल लेट जाते थे। फिर मां को कहानी के लिए बोला जाता। तब मानों मां के पिटारे में कहानी का भंडार था। हर रोज एक नई कहानी। कहानी सुनने के बाद ही मुझे अच्छी नींद आती थी। रात को सपने में कहानी के पात्र देखा करता। मां से सुनी कहानी से मिलता जुलता सपना ही मुझे आता था। कई बार गर्मी के दिनों में घर के आंगन में चारपाई लगी होती और इस दौरान आस पड़ोस के बच्चे भी हमारी चारपाई के आसपास कहानी सुनने को बैठ जाते। कई बार मां ऐसी कहानी को सुना रही होती, जो बच्चों ने अपनी मां, नानी या दादी से सुनी होती। ऐसे में जब कभी मां कहानी भूलती तो बच्चे आगे की कहानी पूरी कर देते।
इसमें एक खास बात ये भी थी कि कहानी सुनाते समय मां बारी बारी से मेरे और बहन के सिर पर अंगुलियां फेरती थी। हो सकता है अब तो बच्चों को जूं शब्द के बारे में पता भी ना हो। उस समय बच्चों के आपस में खेलने के दौरान एक दूसरे के सिर पर जूं चढ़ जाती थी। फिर बच्चों में सिर खुजा खुजाकर बुरा हाल हो जाता था। जूं के अंडों को लीख कहा जाता था। वो भी सफेद रंग के बच्चों के सिर पर नजर आ जाते थे, यदि बारीकी से देखा जाए। अब तो ना ही छोटे बच्चों की नाक बहती है। ना ही बच्चों के सिर में जूं नजर आते हैं और ना ही दो चुटिया वाली बच्चियां भी ज्यादा दिखती हैं।
ऐसा नहीं है कि जूं अब खत्म हो गई हो। गरीब बस्तियों में हो सकता है ये अभी भी हों, लेकिन लोगों के रहन सहन में अंतर आने। तरह तरह से शैंपू का इस्तेमाल करने से ये कुछ कम जरूर हुई होंगी। पहले प्राथमिक विद्यालय में हर क्लास में कुछ बच्चे ऐसे मिल जाते थे, जिनकी नाक हमेशा बहती थी। वे हर वक्त सुड़ुक सुड़ुक करते थे। कई बार तो ऐसे बच्चों के बगल में कोई बैठने तक को तैयार नहीं होता था। एक तार के रूप में नाक काफी नीचे तक लटक जाती, फिर बच्चा बड़ी की चतुराई से उसे वापस नाक में खींच लेता था।
तब मां के पास इतना वक्त होता था कि वह बेटियों के बाल काटने की बजाय हर सुबह उनकी दो चुटिया बनाए। अब चुटिया बनाने के झंझट से छुटकारा पाने के लिए बच्चियों के बाल छोटी उम्र से ही काटकर लड़कों की तरह कर दिए जाते हैं। कहानी के साथ सिर पर फिरती मां की अंगुलियां सिर में लिख और जूं तलाश रही होती थी। कहीं हल्का सा महसूस हुआ कि फट से निकालकर या दो फेंक दिया जाता। या फिर जूं को लीख को दो हाथ के नाखून के बीच रखकर उसे दबाकर एक बहुत की छोटे प्राणी की हत्या कर दी जाती। चट की आवाज आते ही उनका काम तमाम हो जाया करता था।
मां की कहानियों में सत्य की असत्य पर जीत, मेहनत करने का फल हमेशा मीठा होता है, ईमानदारी, दूसरों की मदद आदि संदेश छिपे होते थे। कामचोर के लिए कहानी के अंत में बुरा परीणाम आता था। ऐसी ही कहानी में मुझे तीन भाई शूर, वीर और टोखण्या की कहानी तो काफी पसंद थी। इसे अक्सर मैं मां को सुनाने के लिए कहता। फिर जब कहानी याद होने लगी तो मां के साथ मैं भी बोलता चला जाता। ये कहानी कुछ इस तरह की थी।
इस कहानी में तीन भाई होते हैं। शूर व वीर काफी मेहनत करते हैं और टोखण्या कामचोर व चालाक होता है। भाई खेतों में काम करते हैं, टोखण्या दिन भर मस्ती करता है। शाम को घर पहुंचने से पहले टोखण्या मिट्टी को शरीर में पोत कर घर पहुंचता है, जिससे यह लगे कि उसने ही ज्यादा काम किया। दो भाइयों की मेहतन से फसल उगती है, लेकिन टोखण्या उस पर अपना हक जताता है। वह कहता है कि धरती माता से पूछ लिया जाए कि फसल किसकी है। टोखण्या अपनी मां को जमीन में दबा देता है। फिर मौके पर भाइयों को ले जाता है और पूछता है कि धरती माता बता फसल किसकी है।
मां को हमेश अपनी छोटी औलाद प्यारी होती है। चाहे वह रावण जैसी हो या फिर राम की तरह। मां सोचती है कि टोखण्या नायालक है। उसके मरने के बाद तो दोनों भाई मेहनत करके खा कमा लेंगे, लेकिन टोखण्या का क्या होगा। ऐसे में जमीन में दबी मां बोलती है सारी फसल टोखण्या की है। भाई फसल टोखण्या को सौंप देते हैं। जमीन पर दबाने से मां की मौत हो जाती है।
इसके बाद दोनों भाई टोखण्या को सबक सिखाने की ठानते हैं। सारी जमीन और खेत पर टोखण्या का कब्जा हो जाता है। दोनों भाई गांव छोड़कर बाहर चले जाते हैं। मेहनत करके वे काफी बकरियां लेकर गांव लोटते हैं। टोखण्या उनसे पूछता है कि कहां से बकरियां लाए। इस पर वे बताते हैं कि गंगा में एक स्थान ऐसा है, जहां छलांग लगाकर बकरियां मिलती हैं। इस पर टोखण्या गंगा में जाता है और छलांग लगा देता है। इस तरह उसके अत्याचारों से दोनों भाइयों को भी छुटकारा मिल जाता है।
मां की कहानी में गलत काम का बुरा परिणाम बताया जाता था। साथ ही मेहनत के लिए प्रेरणा भी होती थी। कुछ साल पहले तक मेरे व भाई के बच्चों को मेरी मां वही कहानी सुनाया करती, जो मुझे सुनाती थी। मां के पौता, पौती, नाती आदि सभी ने इस दादी व नानी से कहानियां सुनी। फिर जब मां की उम्र 85 साल से ऊपर हो गई है। तो वह अक्सर भूलने लगती। उसकी कहानियां एक इतिहास बन गईं थी। पत्नी जब खाना बनाने के बाद आफिस चली जाती तो उसी खाने को मां चेक करती और उसमें नमक आदि की कमी को पूरा कर एक गजब का स्वाद उसमें भर देती थी।
मां के हाथ से बनाया खाना भी मुझे हमेशा अच्छा लगता था। खाने में उसकी मेहनत, लगन व प्यार समाया रहता है, जिस कारण उसका स्वाद होना लाजमी है। बचपन में मैं कई बार मां से शिकायत करता कि दूसरों के घर का खाना ज्यादा अच्छा होता है। इसका कारण यह था कि बच्चों को हमेशा दूसरों के घर का खाना ही अच्छा लगता है। कहावत ये भी थी कि घर का दाल स्वाद नहीं लगती। बाद में जब कुछ साल घर से बाहर रहना पड़ा। होटलों में खाना खाया, तो तब अहसास हुआ कि मां के हाथ के खाने से अच्छा और कहीं खाना नहीं मिल सकता। लाख मना करने के बावजूद भी मेरी मां उम्र के आखिर पड़ाव में कभी-कभार दाल व सब्जी अपने हाथों से बनाने का प्रयास करती है।
फिर एक दिन ऐसा आया कि जब वह खाना बनाना भी भूलने लगी और हमको भी पहचाना मां ने बंद कर दिया। यानी कि जब हम बच्चे थे, तब मां ने हमें अंगुली पकड़कर चलना सिखाया। फिर ऐसा वक्त आया जब मां के हाथ पकड़ने की हमें जरूरत होती थी। और 13 अप्रैल 2020 को बैशाखी के दिन मां ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। आज घर में दाल भी वही होती है और मसाले भी वहीं, लेकिन उसमें वो स्वाद नहीं हो मां के हाथ से बने खाने का होता था। यह रहस्य मैं आज तक नहीं जान पाया। हो सकता है मेरे बच्चों को पत्नी के हाथ से बने खाने में वही स्वाद लगता हो, जो मैं मां के हाथ के खाने को खाकर अनुभव करता था। (मदर्स डे की अग्रिम बधाई एवं शुभकामनाएं)
भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।