गुलदार का आतंक और तोपवालजी की बंदूक, सरसराहट की आवाज लेकर आई शामत
हथियार रखना और उसका इस्तेमाल करना दोनों अलग-अलग बात है। ठीक उसी तरह जैसे घर की आलमारी में किताबें सजाना, लेकिन उसे कभी न पढ़ना।

अब तो समाज में भेड़िये ही आदमी की खाल पहनकर घुमते हैं। ऐसे भेड़िये हर कहीं मिल जाते हैं। इन भेड़ियों की पहचान करना भी हरएक के बस की बात नहीं है। उसका शिकार बनने के बाद ही पीड़ित को शिकार होने का पता चलता है। पहाड़ के लोगों की पीड़ा भी पहाड़ जैसी होती है। यहां तो लोगों को समाज में फैले भेड़ियों के साथ ही आदमखोर से भी जूझना पड़ता है। अब एक आदमखोर के खिलाफ वन विभाग और आम ग्रामीणों की ओर से किए गए प्रयासों का यहां मैं जिक्र कर रहा हूं। घटना मेरे मित्र एवं पत्रकार सहयोगी बालम सिंह तोपवालजी ने बताई थी।
आदमखोर यानि की गुलदार। वर्ष 2002 में देहरादून के केसरवाला व मालदेवता क्षेत्र में आदमखोर गुलदार ने ग्रामीणों का सुख- चैन छीन लिया। रायपुर में पहाड़ी से सटे इस क्षेत्र में गुलदार तीन बालिकाओं को अपना निवाला बना चुका था। कई बार शिकारी दल आया, लेकिन शिकारी के जाल से ज्यादा शातिर गुलदार की चाल थी। वह एक स्थान रुकता नहीं था। अलग-अलग जगह कभी मवेशी तो कभी किसी घर में व्यक्ति पर हमला कर रहा था। तीन बेटियों को निवाला बनाने पर वन विभाग ने गुलदार को आदमखोर घोषित कर दिया। साथ ही यह घोषणा भी कर दी कि लाइसेंसी बंदूकधारी उसे अपना निशाना बना सकते हैं।
वह ऐसा दौर था कि स्थानीय समाचार पत्रों में एक संवाददाता को गुलदार की बीट तक दे दी गई थी। ऐसे रिपोर्टर भी सुबह से लेकर शाम तक रायपुर, मालदेवता क्षेत्र में डेरा डालने लगे थे। अमर उजाला में उस वक्त के साथी देवेंद्र नेगीजी को भी तब शहर में कम और ग्रामीण क्षेत्र के लोगो ज्यादा पहचाने लगे थे। क्योंकि उनकी सुबह से लेकर देर रात गुलदार की खबरों को जुटाने में निकल जाती थी। एक तरफ से सभी पत्रकार गुलदार के मूवमेंट को फालो करने का प्रयास कर रहे थे।
क्षेत्र में बंदूकधारियों की संख्या काफी है। ऐसे क्षेत्रों में ज्यादा लोग रिटायर्ड फौजी भी हैं। सभी अपने हथियार निकालकर उसकी साफ सफाई में जुट गए। मेरे एक मित्र बालम सिंह तोपवाल को भी बंदूक रखने का काफी शोक है। जब बंदूक का लाइसेंस लेने गए तो डीएम ने यही पूछा था कि तोपवाल होकर बंदूक क्यों ले रहे हो। उन्होंने कहा कि तोप मांगो तो बंदूक ही मिलती है। स्पष्टवादिता तोपवाल की खासियत है। कई बार उनके मुख से निकली बात सच में ही तोप के गोले के समान होती है। वह यह नहीं सोचते कि यह बात आगे जाकर कितना वार करेगी, लेकिन मन में छलकपट न होने के कारण उनके मुख से निकली बात का किसी को बुरा नहीं लगता।
आदमखोर को निशाना बनाने की तोपवाल ने भी तैयारी कर ली। अपने कुछ बंदूकधारी साथियों को लेकर वह भी रात को गुलदार की खोज में निकल पड़ते। एक ग्रामीण की बकरियों पर गुलदार ने हमला किया। शोर मचने पर वह भाग गया। तोपवाल ने योजना बनाई कि गुलदार दोबारा बकरियां मारने आ सकता है। ऐसे में वह बंदूक लेकर अपने साथियों के साथ ग्रामीण के घर से कुछ आगे रास्ते पर मोर्चा संभालकर बैठ गए। गुलदार अधिकतर आदमी के चलते वाले पैदल रास्तों का ही इस्तेमाल करता है। साथ ही झाड़यों की ओट का भी सहारा लेता है। उसके चलने के दौरान एक सरसराहट सुनाई देने लगती है। ऐसा सबको पता था। इसलिए सबके कान भी चौकन्ने थे। ग्रामीण क्षेत्र में रात को इतना सन्नाटा रहता कि पेड़ पत्तों की आवाज भी डराने लगती है।
रात को बंदूकधारी दल झाड़ियों की ओंट में एक पुलिया के पास गुलदार के इंतजार में बैठा था। तभी दल को अपने बगल से सरसराट सुनाई दी। सुर्र-सुर्र की आबाज निरंतर बढ़ती जा रही थी, पर दिखाई कुछ नहीं दे रहा था। इस पर दल के सदस्यों का हौंसला जवाब दे गया और सभी ने जान बचाने के लिए दौड़ लगा दी। इस आपाधापी में वे बंदूक तक मौके पर छोड़ कर भाग निकले। आगे एक मकान के समीप पहुंचे और खुद के जिंदा होने का एहसास करते हुए सुस्ताने लगे। तभी उन्हें वहां भी वही आवाज सुनाई दी।
अब एक ने आवाज के कारण को तलाशा तो देखा कि पेयजल की पाइप लाइन से यह आवाज हो रही थी। इस पर सभी को अपनी गलती का पता चला और बंदूक लेने के लिए वापस लौटे। सही कहा गया कि जिसका काम उसी को साजे। यहां भी यही बात सामने आई। खैर बाद में एक ग्रामीण ने गुलदार को ढेर किया। उसे प्रशासन की तरफ से सम्मानित भी किया गया।
भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।
बहुत सुंदर