सेवा का अंदाज निराला, जब वे दफ्तर को निकलते तो पीछे पीछे चलते बेजुबान, रात को घर के आगे डाले रहते पहरा
मोहल्ले के नुक्कड़ में परचून की दुकान। इस दुकान के आगे आबारा कुत्तों की भीड़। हर सुबह करीब साढ़े नौ बजे दूर से दिनकर जी के दिखाई देते ही कुत्तों की बेचैनी बढ़ जाती है।

पहले कई सालों तक यह सीन हर सुबह मुझे अक्सर अपने मोहल्ले में दिख जाता था। वहीं, वर्ष 2012 में जब कुछ माह से दिनकर जी मुझे मोहल्ले की उस दुकान में सुबह के समय दिखाई नहीं दे रहे थे और न ही कुत्ते। ऐसे में मेरी जिज्ञासा बढ़ी कि आखिर दिनकर जी कहां चले गए। मोहल्ले में किसी व्यक्ति की जन्मपत्री बांचनी हो, तो वहां के दुकानदार, धोबी या कामवाली ही काम आते हैं। हर व्यक्ति के बारे में उन्हें इतना पता होता है कि, शायद उस व्यक्ति को भी इतना पता न हो, जिसके बारे में बताया जा रहा है। खैर मैं यही सोच रहा था कि कुत्तों को एक समय का भोजन अब कहां से मिलेगा। दिनकर जी दिखाई नहीं देते। मेरी जेब इतनी भारी नहीं है कि मैं करीब पंद्रह कुत्तों को हर सुबह नाश्ता करा सकूं।
मोहल्ले का दुकानदार लाला ही मेरे काम आया। मैं उसके पास गया और पूछा कि दिनकरजी कहां चले गए। सुबह दिखाई नहीं देते। ऐसे में कुत्ते भी सुबह आपकी दुकान के आगे उनके इंतजार में खड़े नहीं रहते हैं। लालाजी ने बताया कि दिनकर जी सरकारी नौकरी से रिटायर्ड हो गए हैं। अब वह घर से कम ही बाहर निकलते हैं। कुत्तों को चिंता नहीं है। अब उन्होंने दिनकरजी के घर के बाहर ही डेरा जमा लिया है। वहीं उन्हें खाने को मिलता है।
सचमुच सेवा का मजा ही कुछ और है। सेवा का कोई क्षेत्र भी नहीं होता। किसी भी रूप में प्राणी की सेवा की जा सकती है। सेवा करने वाला दूसरों के साथ उपकार तो करता है। साथ ही उसे भी सच्चे आनंद की अनुभूति होती है। यही आनंद शायद की अनुभूति दिनकरजी को होती रही। पशु प्रेम ही नहीं, वह तो वात्सल्य से भी ओतप्रोत हैं। करीब 30 साल पहले उनके घर के पास झाड़ियों में एक नजजात बच्ची को कोई फेंक गया। मौके पर भीड़ जमा हो गई। सलाह देने वालों की भी कमी नहीं थी। कोई कहता पुलिस को बुलाओ, तो कोई कुछ और सलाह देता। बच्ची को बचाने का कोई प्रयास नहीं कर रहा था। ऐसे में दिनकर जी ने बच्ची को उठाकर सीधे नर्सिंग होम पहुंचाया। वहां अपने खर्चे से उसका उपचार कराया। इसके बाद ही पुलिस को भी सूचना दी। फिर कानूनी कार्रवाई चली और एक दंपती को बच्ची गोद दे दी गई।
दिनकरजी अब नौकरी से रिटायर्ड हो गए। आफिस में उनकी सीट पर शायद कोई दूसरा बैठा मिल जाएगा। गली में लाला की दुकान के आगे सुबह कुत्तों के चिल्लाने की आवाज नहीं सुनाई देती हो, लेकिन दिनकरजी ने तो सेवा का कर्म नहीं छोड़ा। इसके गवाह हैं उनके घर के आगे सड़क पर आराम फरमाने वाले मोहल्ले के कुत्ते। चाहे कोरोनाकाल रहा हो, फिर भी कुत्तों को उनके हाथ से भरपेट भोजन मिलता रहा।
भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।