दून में फुटबाल की कहानी, दर्शकों में बढ़ता रहा रोमांच, रोते रहे बच्चे
तब हमने खुद को सुरक्षित महसूस किया। मैच समाप्ति पर हमें पैदल ही घर जाना पड़ा। क्योंकि चढ़ाई में कोई भी साइकिल सवार लिफ्ट नहीं देता था। घर पहुंचकर मार अलग पड़ी कि चार घंटे तक घर से कहां गायब रहे।

दुनियां में सबसे लोकप्रिय खेल समझे जाने वाला खेल फुटबाल को लेकर लोगों में उत्साह रहता है। अब तो टेलीविजन का जमाना है। खेल का चैनल लगाओ और जहां कहीं जो भी खेल चल रहा है उसका आनंद उठाओ। फुटबाल के दीवाने शाम को टेलीविजन ऑन कर इसका लुत्फ उठाते रहते हैं। भारत में इन दिनों आइपीएल चल रहा है। हर कोई क्रिकेट का दीवाना बना हुआ है। कभी मेरे शहर देहरादून की पहचान भी फुटबाल से भी थी। यहां भी बड़े टूर्नामेंट का आयोजन किया जाता था।
बात करीब वर्ष 1974 की है। उन दिनों देहरादून के पवेलियन मैदान में राष्ट्रीय स्तर के फुटबाल मैच होते थे। तब मोहन बगान कलकत्ता, जेसीटी फगवाड़ा, गोरखा ब्रिगेड देहरादून आदि के साथ ही कई नामी टीमें टूर्नामेंट में भाग लेती थी। उन दिनों देहरादून के लोगों में फुटबाल का रोमांच देखते ही बनता था। मेरी उम्र के छोटे बच्चों ने सलाह बनाई कि पवेलियन मैदान में पहुंचकर फुटबाल मैच को देखा जाए। तब मेरा घर देहरादून की राजपुर रोड स्थित राष्ट्रीय दृष्टिबाधितार्थ संस्थान परिसर में था। वहां से पवेलियन मैदान की दूरी करीब चार किलोमीटर है।
तब राजपुर रोड पर सिटी बसें चलती थी। साथ ही कभी-कभार तांगे चला करते थे। आवागमन के यही साधन थे। पूरी सड़क पर हर समय संनाटा पसरा रहता था। एक-आध स्कूटर ही नजर आते थे। कार तो कभी-कभार ही दिखती थी। सिटी बस भी आधे घंटे से एक घंटे के अंतराल मं आती थी। साइकिल ही इस सड़क पर ज्यादा दिखती थी। हम करीब पांच बच्चे शाम को खेलने के बहाने घर से निकले और राजपुर रोड पर पहुंच गए। अब कैसे पवेलियन तक पहुंचे, इसकी ही चिंता सभी को थी। किसी के पास एक पैसा तक नहीं था। उन दिनों बस किराया शायद पंद्रह पैसे था।
सड़क पर पहुंचकर हमने लिफ्ट लेने का इरादा किया। कोई भी साइकिल वाला दिखता उससे घंटाघर तक लिफ्ट देने का अनुरोध हम करते। उस स्थान से घंटाघर तक जाने के लिए काफी ढलान थी। साइकिल वालों को एक-आध स्थान पर ही पैडल मारने की जरूरत पड़ती थी। सो हमें लिफ्ट मिलने में कोई दिक्कत नहीं आई। सलाह के मुताबिक एक-एक कर लिफ्ट लेकर पांचों बच्चे निर्धारित स्थान पर मिल गए।
पवेलियन मैदान के प्रवेश द्वार पर पहुंचकर अब हमारी चिंता यह थी कि भीतर कैसे घुसा गाए। तब मैच का टिकट एक रुपये था। हमारे पास को फूटी कौड़ी तक नहीं थी। ऐसे में सभी बच्चे भीतर घुसने की जुगत लगा रहे थे। तभी हमें पता चला कि एक टिकट पर बड़े व्यक्ति के साथ बच्चा फ्री जा सकता है। ऐसे में भीतर घुसने वाले हर व्यक्ति से हम अनुरोध करते कि हमें अपने साथ भीतर ले जाए। दर्शकों की भीड़ में हमें ऐसे पांच सज्जन आसानी से मिल गए, जो पवेलियन तक जाने में हमारे मददगार साबित हुए।
पवेलियन मैदान का नजारा मेरे लिए नया ही था। मेरी तरह अन्य बच्चों के लिए भी यह आश्चर्यचकित करने वाला था। मैदान के चारों तरफ बैठने के लिए बनी सीड़ियां खचाखच भर चुकी थी। मैदान के एक तरफ की दीवार के उस पार सिटी बस अड्डा था। बस अड्डे के आसपास की दुकानों की छतें दर्शकों से भरी पड़ी थी। कई लोग सिटी बसों की छतों में भी बैठकर मैदान की तरफ नजर गढ़ाए थे। मैदान की एक दीवार से सटा गांधी पार्क था। इस दीवार के पीछे पार्क में जितने भी ऊंचे पेड़ थे। वहां से फ्री में फुटबाल देखने वाले जान जोखिम में डालकर पेड़ की डाल पर बैठे थे।
मैदान में इतनी भीड़ देखकर मैं डर गया। सच कहो तो पवेलियन मैदान में तब ही मैने पहली बार इतनी भीड़ देखी थी। इसके बाद दो और बार इस मैदान में मैने भीड़ देखी। ऐसी भीड़ दोबारा दारा सिंह के साथ हॉंगकांग के माइटी मंगोल की कुश्ती के दौरान देखी। तीसरी बार ऐसी भीड़ मैने यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री हेमवंती नंदन बहुगुणा की जनसभा में देखी। अब पवेलियन में मेरा और अन्य बच्चों का ध्यान खुद को सुरक्षित रखने में ही केंद्रित हो गया। भीड़ में कहीं हम खो ना जाएं, या फिर चोट न लग आए, यही चिंता हमें सता रही थी।
मैदान में ड्रैस से सजे दो टीम के खिलाड़ी उतरे। खिलाड़ी भी मुझे दूर से रामलीला के पात्रों की तरह नजर आए। क्योंकि, तब बचपन में रामलाली के पात्रों की ड्रैस मुझे प्रभावित करती थी। या फिर उस वक्त फुटबाल के खिलाड़ियों की रंगीन ड्रैस मुझे काफी अच्छी लगी। मैच शुरू हुआ। मैदान के चारों तरफ शोर बढ़ने लगा। शोर बढ़ने के साथ ही बच्चों की धड़कन भी तेज होती चली गई। बिना टिकट मैदान में दीवार फांद कर घुसने की चेष्टा कर रहे लोगों को पुलिस और वालिंटियर लठिया रहे थे। मैदान के हर छोर पर मैच बढ़ने के साथ ही हुड़दंग भी बढ़ रहा था। कहीं हल्की भगदड़ होती और वहां स्थिति शांत की जाती, तो तभी दूसरे छोर में हंगामा हो जाता।
इसके विपरीत इस हुड़दंग के अनजान होकर खिलाड़ी खेल में मशगूल थे। किसने बॉल पास की। किसे दी, किसने गोल मारा, किसने बचाने का प्रयास किया, किसे रेड कार्ड दिखाया। यह कुछ भी मेरे समझ नहीं आया। मैं तो भीड़ के हुड़दंग से अपने साथियों का हाथ पकड़कर खुद को सुरक्षित रखने का प्रयास कर रहा था। जब मैच रोमांच में पहुंच गया और हुड़दंग भी बढ़ गया तो मुझे घर की याद सताने लगी। बार-बार मां का चेहरा याद आता। मैं रोने लगा। मेरी देखादेखी अन्य बच्चे भी रोने लगे। पर इस भीड़ में किसका ध्यान हमारी तरफ होता। सभी अपने में मस्त थे। शोर बढ़ता गया और हम रोते चले गए।
अचानक मेरे साथी देव सिंह के बड़े भाई नंदन बिष्ट की नजर हम पर पड़ी। वह हमसे करीब दस साल बड़े थे, जो अपने मित्रों के साथ फुटबाल मैच देखने पवेलियन आए थे। उन्होंने पहले हमें डांटा कि तुम क्यों आए। फिर हम सब बच्चों को अपने साथ ही रखा। तब हमने खुद को सुरक्षित महसूस किया। मैच समाप्ति पर हमें पैदल ही घर जाना पड़ा। क्योंकि चढ़ाई में कोई भी साइकिल सवार लिफ्ट नहीं देता था। घर पहुंचकर मार अलग पड़ी कि चार घंटे तक घर से कहां गायब रहे।
भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।