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March 12, 2025

सादगी की पाठशाला था सुकवि सुमित्रा नन्दन पंत का जीवन (जन्मदिवस पर विशेष)

प्रकृति की सुरम्य रंगस्थली अल्मोड़ा के कौसानी में चाय बागान के व्यवस्थापक गंगा दत्त पंत के घर में 20 मई सन 1900 को जिस बालक का जन्म हुआ, उसे गुसाईदत्त नाम दिया गया।

प्रकृति की सुरम्य रंगस्थली अल्मोड़ा के कौसानी में चाय बागान के व्यवस्थापक गंगा दत्त पंत के घर में 20 मई सन 1900 को जिस बालक का जन्म हुआ, उसे गुसाईदत्त नाम दिया गया। मां तो पुत्र को जन्म देने के छः घण्टे बाद ही दिवंगत हो गई। लालन-पालन बुआ ने किया और अन्ततः मिली प्रकृति की विराट गोद।
बालक गुसाई दत्त की शिक्षा का प्रारम्भ सन् 1905 में कौसानी के वर्नाक्यूलर स्कूल में हुआ, जहां से उन्होंने चौथी कक्षा उत्तीर्ण की। तदुपरान्त सन् 1911 में गवर्नमेन्ट हाईस्कूल अल्मोड़ा में प्रवेश लिया। इसी बीच उनकी सुघड़ सांस्कृतिक-साहित्यिक चेतना ने उनका नाम गुसाई दत्त से परिवर्तित कर सुमित्रा नन्दन पंत कर दिया। सम्भवत: इसी सुघड़ता के फलस्वरूप उन्होंने 1912 में अपनी केशराशि बढ़ाने, संजोकर रखने का व्रत लिया। जो जीवन पर्यन्त अक्षुण्ण रहा।
भौतिक रूप में सुमित्रा नन्दन पंत को भले ही नैपोलियन के चित्र ने प्रभावित किया हो, लेकिन अमूर्त रूप में यह उनकी अन्तश्चेतनावृत्ति का ही परिणाम माना जाना चाहिए। बाद में तो पंत जी ने स्वयं कुछ कदम आगे बढ़कर कहा-
घने लहरे रेशम के बाल
धरा है सिर मैं मैंने देवि।
तुम्हारा यह स्वर्णिम श्रृंगार
स्वर्ण का सुरभित भार।
पंतजी ने भले ही अपना नाम परिवर्तित कर लिया हो, लेकिन अल्मोड़ा में अपने समवयस्क साथियों के मध्य वे ‘सैंदा’ नाम से ही पुकारे जाते थे। अर्थात गुसाई दत्त दाज्यू। यह उनकी लोकप्रियता थी। बालक पंत की प्रतिभा कौसानी से ही जाग्रत होने लगी थी। सन् 1907-1909 के मध्य अल्पायु में ही अमरकोश, चाणक्य नीति, मेघदूत एवं रामरक्षा स्त्रोत आदि संस्कृत ग्रन्थों का अध्ययन प्रारम्भ कर दिया था। उनके जीवन निर्माण में पिता की धर्मनिष्ठा, आस्तिकी वृत्ति, सौम्यता, उदारता, सम्वेदनशीलता आदि गुणों का विशेष स्थान रहा है।
साहित्य सृजन
पंत जी ने सन् 1915 से स्थायी रूप से साहित्य सृजन करना प्रारम्भ कर दिया। अल्मोड़ा से प्रकाशित होने वाली हस्तलिखित पत्रिका ‘सुधाकर’ में वे नियमित रूप से लिखने लगे। सन 1917 से ‘अल्मोड़ा अखबार’ साप्ताहिक एवं ‘मर्यादा’ मासिक पत्र में भी लिखने लगे। अपनी इस रूचि के परिष्कार हेतु उन्होंने ‘नन्दन पुस्तकालय’ नाम से एक व्यक्तिगत पुस्तकालय भी बना डाला था। सन् 1918 में वे काशी चले गये, जहां जयनारायण हाईस्कूल से एण्ट्रैस परीक्षा उत्तीर्ण की। यहीं पर उन्हें प्रथम बार कवीन्द्र रवीन्द्र के दर्शन करने का अवसर मिला।
असहयोग आंदोन में कूदे, रास नहीं आई राजनीति की जमीन
सन् 1920 में उन्होंने म्योर सैंट्रल कालेज प्रयाग में प्रवेश लिया, परन्तु प्रयाग में उनका अध्ययन क्रम स्वतंत्रता की लहरों के कारण आगे न बढ़ सका और सन् 1921 में वे असहयोग आन्दोलन में कूद पड़े। कोमल-कमनीय भावनाओं के चितेरे पंत को राजनीति की भूमि रास नहीं आयी और वे राजनीति से वापस लौट आये। फिर एक बार स्वाध्याय से अंग्रेजी, बंगला एवं संस्कृत साहित्य का ज्ञान प्राप्त किया। यह क्रम कालाकांकार में सजीव गति से चला, जहां वे 1931-34 एवं 1936-40 तक रहे। यहीं पर 1938 में उन्होंने ‘रूपाभ’ पत्रिका का सम्पादन किया।
सन 1933 का वर्ष उनके लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था। इसी वर्ष अल्मोड़ा में कवीन्द्र रवीन्द्र के आगमन पर उनसे व्यक्तिगत परिचय हुआ। रानीखेत में रवीन्द्र के नागरिक अभिनन्दन समारोह में उनका परिचय पंत जी ने ही दिया था। अल्मोड़ा के पश्चात शान्ति निकेतन में दो साहित्यिक युग पुरुषों का पुनः मिलन हुआ। 1934 में पंत जी, गांधी जी के सान्निध्य में रहे, जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव उनके साहित्य पर पड़ा।
सन् 1940 में कालाकांकर से लौटने पर विश्वविख्यात नर्तक श्री उदयशंकर भट्ट के संस्कृति केन्द्र से सम्बन्धित रहे। सन् 1934 में इस संस्था के वैतनिक सदस्य बने। 1944 का वर्ष उनके लिए जीवन एवं मृत्यु का भंवर में फंसने का था, जिस पर वे केवल अपनी इच्छाशक्ति के बल पर विजय पा सके। उन दिनों क्षय रोग अजेय था। उनकी आस्तिकता तथा दिल्ली के डॉ. नीलाम्बर जोशी के अध्यवसाय से पंत जी हमारे बीच बने रह सके। इसी वर्ष वे श्री अरविन्द के पांडिचेरी आश्रम के सम्पर्क में आये तथा अपनी रूग्णता के मध्य अरविन्द दर्शन का ज्ञान प्राप्त किया। जहां कवि को, उसके संस्कारों को आत्मतोष प्राप्त हुआ। शायद इसी चेतना को साकार रूप देने के लिए उन्होंने 1947 में लोकायतन नामक संस्था की स्थापना की। अपने लक्ष्य में सफल न होने पर लोकायतन महाकाव्य रचकर उसे सफल सिद्ध किया।
सादगी की पाठशाला था उनका जीवन
पंत जी का ‘आल इण्डिया रेडियो’ में प्रवेश ऐसे समय में हुआ, जब उसकी नीतियों के कारण हिन्दी जगत असंतुष्ट था तथा कोई भी अपनी सेवा देने के लिए तैयार न था। पंत जी ने इस सबकी चिन्ता किये बिना निर्विकार रूप से 1950-57 तक परामर्शदाता के रूप में कार्य करके उसे पुनः प्रतिष्ठित किया। पंत जी विश्व इतिहास, राजनीति, दर्शन और संस्कृत साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान थे। वे महाकवि थे। एक ऐसे कवि, जो शताब्दियों के बाद भी जीवित रहेंगे। जो उनके सम्पर्क में आया, वह उनको भूल नहीं पाया, क्योंकि उनका जीवन सादगी की पाठशाला थी।
इस क्रांतिकारी महान कवि ने, न केवल शरीर में एक स्वरूप पाया, अपितु वह कल्पना का एक सशरीर प्राणी था। जिसकी आत्मा ने भूत, वर्तमान और भविष्य को अपने दिव्य चक्षुओं से देखा और ऐसे विचारों का प्रसार किया। जिसने काव्य जगत में एक क्रांति पैदा कर दी तथा आधुनिक कविता के लिए जो मार्ग प्रदर्शित किया। उसके कारण ही आज हिन्दी कविता नवीन उपलब्धियों के सोपान पर बढ़ती हुई चैरेवति-चैरेवति चरितार्थ कर रही है। यही जीवन की प्रगति का मूलमंत्र है और यही वह साहित्य है सत्यं शिवं सुन्दरम।
पदमभूषण से किया सम्मानित
सन 1961 में उनके साहित्यिक कार्यों पर भारत सरकार ने उन्हें पदम्भूषण’ की उपाधि से अलंकृत किया। इसी वर्ष ‘सोवियत भारतीय मैत्री संघ की ओर से ताशकन्द, मास्को, लेनिनग्राड, पेरिस, फ्रैंकफर्ट एवं लन्दन की यात्रा की। सन् 1967 में भाषा विधेयक के विरोध में पद्मभूषण की उपाधि भारत सरकार को वापस कर दी। 1969 में साहित्य अकादमी की महत्तर सदस्यता ग्रहण की। पंत जी की उर्वर प्रतिभा, उदान्त कल्पना एवं प्रखर अनुभूति मानवता की सुख समृद्धि के लिए नूतन पथ खोजने में निरन्तर संलग्न रही है और वही इनका अतिम साध्य रहा है।
अन्ततः 28 दिसम्बर 1977 को चिरकुमार महामानव पंत पंचतत्वों में विलीन हो गये। विविध भारतीय विश्वविद्यालयों ने उनकी साहित्यिक सेवाओं पर उन्हें डी.लिट की मानद उपाधियों से विभूषित किया। सन् 1967, 1971 तथा 1976 में विक्रम, गोरखपुर, कानपुर तथा कलकत्ता विश्वविद्यालय ने उन्हें सम्मानित किया।


लेखक का परिचय
लेखक देवकी नंदन पांडे जाने माने इतिहासकार हैं। वह देहरादून में टैगोर कालोनी में रहते हैं। उनकी इतिहास से संबंधित जानकारी की करीब 17 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कुमाऊं के निवासी पांडे लंबे समय से देहरादून में रह रहे हैं।

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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