मदद का सुख, लेकिन फिर दोबारा ना हो ऐसा, फिर होना पड़ेगा दुखी
बचपन से ही पढ़ाया व सिखाया जाता है कि दूसरों की मदद किया करो। मदद शब्द ही ऐसा है, जिसे साकार होते देख दो व्यक्ति को खुशी होती है। एक व्यक्ति वह होता है, जिसकी मदद हो रही है और दूसरा वह जो मदद करता है।

मदद लेने के लिए कई बार तो लोग तरह-तरह का बहाना तक बना लेते हैं। सबसे छोटा होने के कारण मुझ पर घर का राशन पानी लाने की जिम्मेदारी भी डाल दी गई। शुरूआत में मैने शौक से इस काम को किया। बाद में इस काम में फंस गया। हर माह की एक तारिख को पिताजी को वेतन मिलता था। उसके अगले दिन मुझे सामान की लिस्ट थमा दी जाती और मैं साइकिल से घर से करीब पांच किलोमीटर दूर देहरादून के पीपलमंडी स्थित परचून की दुकान पर जाकर राशन लाता था। तब मैं करीब 18 साल का था। घी, तेल, दाले, मसाला, साबुन आदि तब करीब डेढ़ से दो सौ रुपये में आ जाता था।
एक दिन मैं राशन लेकर घर की तरफ जा रहा था। रास्ते में दो स्थानों पर खड़ी चढ़ाई पढ़ती थी। तब साइकिल से उतरकर आगे बढ़ना पड़ता था। आरटीओ दफ्तर से पहले चढ़ाई पर मैं साइकिल से उतरा। तभी एक व्यक्ति मेरे पास आया। उसने मुझसे पूछा हरिद्वार कितनी दूर है, पैदल चलकर कितनी देर में पहुंच जाउंगा। उसके लिए सीधा रास्ता बताओ। देहरादन से करीब 70 किलोमीटर दूर हरिद्वार पैदल जाने की बात सुनकर मेरे मन में जिज्ञासा जगी। मैने उससे पूछा कि वह पैदल क्यों जा रहा है।
इस पर उसने बताया कि वह गुजरात का रहने वाला है। वह टेलर का काम करता है। देहरादून में नेवल हाइड्रोग्राफिक्स में काम के सिलसिले में वह आया था। काम तो मिला नहीं, लेकिन उसकी जेब कट गई। हरिद्वार उसके रिश्तेदार रहते हैं। वहां तक पैदल ही जाएगा। उसने यह भी बताया कि वह सुबह से भूखा है। इस पर मुझे उस व्यक्ति पर तरस आ गया। राशन खरीदने के बाद मेरे पास घर के पैसे बचे हुए थे। जिसका हिसाब पिताजी को देना था। यदि मैं उसकी मदद करता तो डांट के लिए मुझे तैयार रहना था। मैने उसे दस रुपये देने की कोशिश की। इस राशि से वह बस किराया भी दे सकता था और कुछ खा भी सकता था। वह ना नुकुर करता रहा। कहने लगा कि आज तक उसने किसी से पैसे नहीं लिए।
इसके बाद उसने मेरा पता पूछा। कहने लगा कि मनीआर्डर कर पैसे वापस कर देगा। मैने उसे पैसे देने के साथ ही एक कागज में अपना पता लिखकर दे दिया। उसके बाद घर जाकर मुझे झूठ बोलना पड़ा कि दस रुपये कहीं गिर गए। मैं मन ही मन खुश था कि मैने एक जरूरतमंद की मदद की। इस घटना के कई दिन बीत गए, लेकिन मुझे कोई मनिआर्डर नहीं पहुंचा। एक दिन वही व्यक्ति मुझे देहरादून में ही नजर आया। इस बार वह किसी दूसरे व्यक्ति को अपनी आपबीती सुना रहा था। उसके पास जैसे ही मैं पहुंचा तो वह मुझे पहचान गया और उसने वहां से दौड़ लगा दी। उस दिन मुझे यह दुख जरूर हुआ कि वह व्यक्ति मुझे दोबारा क्यों दिखा।
भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।