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March 10, 2025

आज भी याद आती है वो लड़की, टकरा गई थी स्कूटर से, याद कर सिहर उठता हूं मैं

दुर्घटना का कारण एक नहीं होता। कई बार लापरवाही से होती है, तो कई बार अनजाने में। कई बार तो किसी की कोई गलती भी नहीं होती, बस अचनाक दुर्घटना हो जाती है।

दुर्घटना का कारण एक नहीं होता। कई बार लापरवाही से होती है, तो कई बार अनजाने में। कई बार तो किसी की कोई गलती भी नहीं होती, बस अचानक दुर्घटना हो जाती है। ऐसे में इसका अंजाम भी कई बार काफी खतरनाक हो जाता है। मसलन आपकी गाड़ी से कोई टकरा गया और यदि आपकी गलती न भी हो, तब भी दुर्घटना के बाद मौके पर जमा होने वाली भीड़ उसे ही गलत ठहराती है, जिसका वाहन हो। यदि दो वाहनों में कार व स्कूटर की टक्कर हो तो लोग स्कूटर सवार का पक्ष लेने लगते हैं।
दुर्घटना में चोटिल व्यक्ति को इलाज के लिए अस्पताल पहुंचाने में तो शायद ही कोई मदद करे, लेकिन दुर्घटना के आरोपी की पिटाई करने में भी प्रत्यक्षदर्शी पीछे नहीं रहते। ऐसे में कोई भीड़ के कोप से बच जाए, तो उसे किस्मतवाला ही कहा जाएगा। एक बार मेरे साथ भी ऐसी ही घटना घटी। बात करीब वर्ष 1996 की है। तबादला होने के कारण उन दिनों मैं सहारनपुर में रह रहा था। अक्सर मैं छुट्टी में घर आता और अगली सुबह वापस सहारनपुर चला जाता था। एक दिन मैं स्कूटर पर देहरादून से सहारनपुर जा रहा था।
बिहारीगढ़ के निकट जैसे ही मैं पहुंचा, तो वहां कुछ बस व वाहन सड़क किनारे खड़े थे। एक रुकी बस से आगे मैं बढ़ा ही था कि अचानक सामने एक करीब 13 साल की लड़की स्कूटर से टकरा गई। घबराहट के मारे मैं ब्रेक भी नहीं लगा पाया और वह काफी दूर तक स्कूटर से घिसड़ती चली गई। हालांकि मेरे स्कूटर की गति ज्यादा नहीं थी। किसी तरह मैने ब्रेक लगाए और स्कूटर को स्टैंड में खड़ा किया।
मौके पर भीड़ भी जमा हो गई। मैने सोचा कि भीड़ कहीं हमला न कर दे। इस पर मैने हेलमेट भी नहीं उतारा। मैं लड़की के पास गया और उसका हालचाल जानने लगा। मैने मौजूद लोगों से पता करना चाहा कि उसके साथ कौन है। मैं किसी अस्पताल में उसका चेकअप कराने के पक्ष में था। तभी एक व्यक्ति वहां पहुंचा और गुस्से में लड़की का हाथ खींचकर ले गया। वह इतना बोला कि बस खड़ी है, जल्दी चल। उसे न अपनी बेटी के चोट लगने की चिंता थी और न ही मेरे से कोई मतलब था। उसे तो सिर्फ वहां जाने की जल्दी थी, जहां की बस के इंतजार में वह परिवार समेत सड़क किनारे खड़ा था।
शायद वही उस लड़की का पिता था। उनका पूरा परिवार बस में बैठा और कुछ देर बाद बस भी मेरी आंखों से ओझल हो गई। एक बीच एक तमाशबीन मुझसे बोला कि आप क्यों खड़े हो। जब लड़की के पिता को कोई मतलब नहीं तो आप भी निकल लो। मैने कहा कि उसे चोट लगी होगी। पहले किसी चिकित्सक को दिखा लेना चाहिए था। इस पर वह बोला कि ज्यादा चोट लगती तो वह चल नहीं पाती। मैं खुश था कि पब्लिक के कोप से मैं बच गया, लेकिन मुझे उसे किसी चिकित्सक को दिखाने का मलाल भी था। क्योंकि ताजा चोट लगने पर उसका दर्द बाद में ही होता है। उस दिन सिर्फ एक मलाल था कि कहीं लड़की को ज्यादा चोट तो नहीं आई। उसका क्या हुआ होगा। यही बात मुझे आज तक कचोटती है और हमेशा कचोटती रहेगी।
भानु बंगवाल

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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