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December 15, 2024

भगवान बदरी विशाल के कपाट शीतकाल के लिए बंद, जानिए बदरीनाथ धाम की ऐतिहासिकता और पौराणिकता

करोड़ों हिंदुओं की आस्था का केंद्र विश्व प्रसिद्ध बदरीनाथ धाम मंदिर के कपाट कर विधि विधान और पूजा पाठ के साथ गुरुवार की शाम 3.35 मिनट पर बंद कर दिए गए। इसके साथ ही चारधाम यात्रा का समापन हो गया। आगामी छह माह तक शीतकालीन पूजा योगध्यान बदरी मंदिर पांडुकेश्वर एवं श्री नृसिंह मंदिर जोशीमठ में होगी। कपाट बंद होने से पहले धाम में विशेष पूजाओं का आयोजन किया गया। साथ ही मंदिर को फूलों से सजाया गया है। बदरीनाथ धाम में कल रात ही दस हजार से अधिक श्रद्धालु पहुंच गए थे।

आज मंदिर प्रांगण में लोगों की भीड़ कपाटबंदी के मौके पर बदरी विशाल के जयघोष लगाती रही। वहीं, सेना के बैंड की धुन पर भक्ति संगीत ने माहौल पूरी तरह से भक्तिमय बना दिया। लोगों में गजब का उत्साह देखा गया। पूरी बदरीशनगरी बदरी विशाल के नारों से गूंजायमान रही। वेदपाठियों, तीर्थ पुरोहितों, हकहकूकधारियों व मंदिर समिति के पदाधिकारियों की उपस्थिति में नियत समय पर मंदिर के कपाट बंद कर दिए गए।
इस बार कोरोनाकाल और लॉकडाउन ने भी चारधाम यात्रा को प्रभावित किया। जहां पहले एक दिन में हजारों श्रद्धालु पहुंचते थे, इस साल पूरे यात्रा सीजन में बदरीनाथ धाम में 1 लाख 38 हजार तीर्थयात्री पहुंचे। वहीं, चारोधाम में कुल तीर्थयात्रियों की संख्या 3.15 लाख रही।
कल रात विशेष पूजन में महालक्ष्मीजी का पूजन किया गया। महालक्ष्मीजी का मंदिर बदरीविशाल मंदिर परिसर में है। रात को भगवान बदरीविशाल के सारे गहने उतार लिए गए।
आज सुबह सुबह पांच बजे से भगवान का महाअभिषेक किया गया। इसके बाद उनका फूलों से श्रृंगार किया गया। दोपहर दो बजे से महाआरती शुरू की गई। साथ ही श्रृंगार के रूप में लगाए गए फूलों को उतारकर उन्हें प्रसाद के रूप में बांटा गया। इसके बाद भगवान बदरीविशाल को कुंआरी कन्याओं के हाथों से तैयार किए गए कंबल (घृतकंबल) को वस्त्र के रूप में पहनाया गया। साथ ही मंदिर परिसर से माता लक्ष्मीजी की मूर्ति को बदरीनाथ मंदिर में प्रवेश कराया गया। भगवान बदरी विशाल के साथ उन्हें विराजमान किया गया।


कुबेरजी और उद्धव जी की डोली ने किया प्रस्थान
फिर बदरीविशाल के साथ स्थापित कुबेरजी और उद्धजी की डोली को मंदिर से बाहर लाया गया। साथ ही मंदिर के कपाट को शीतकाल के लिए अपराह्न करीब 3.35 मिनट पर बंद कर दिए गए। उद्धवजी की डोली रात को रावल निवास और कुबेरजी की डोली बामणी गांव स्थित नंदा देवी मंदिर में विश्राम करेंगी।
20 नवंबर
सुबह करीब साढ़े नौ बजे उद्धवजी और श्री कुबेरजी की डोली के साथ ही शंकराचार्यजी की गद्दी बदरीनाथ धाम के प्रस्थान करेंगी। पांडुकेश्वर स्थित योगध्यान बदरी मंदिर में कुबेरजी और उद्धवजी को प्रतिष्ठापित किया जाएगा। वहीं शंकराचार्य जी की गद्दी भी रात्रि विश्राम यहीं करेगी।
21 नवंबर
सुबह 10 बजे श्री योग ध्यान बदरी मंदिर पांडुकेश्वर से आदि गुरू शंकराचार्य जी की गद्दी श्री नृसिंह मंदिर जोशीमठ के लिए रवाना होगी। इसे नृसिंह मंदिर पहुंचने पर प्रतिष्ठापित कर दिया जाएगा। इसी मंदिर में रावल भी शीतकाल तक रहेंगे।
बदरीनाथ धामः यहां नर व नारायण ने की थी तपस्या
बदरीनाथ धाम हरिद्वार से बदरीनाथ की दूरी 324 किलोमीटर है। यह पावन स्थान सागर तट से 10230 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। नर नारायण की तपोभूमि तथा भगवान विष्णु का पुण्य धाम बदरीवन, बदरीकाश्रम, बदरीनारायण व बदरीनाथ के नाम से सुविख्यात है। कहते हैं कि नर और नारायण ने बदरीवन में तपस्या की थी। यही नर व नारायण द्वापर युग में अर्जुन और कृष्ण के रूप में अवतरित हुए थे। इसी बदरीकाश्रम में बदरीनारायण का मन्दिर स्थित है। जिसमें भगवान विष्णु की पंचायत, मूर्ति रूप में विराजमान है।
श्री बदरीनाथ जी की मूर्ति शालिग्राम शिला में बनी ध्यानमग्न चतुर्भुज मूर्ति है। कहा जाता है कि पहली बार यह मूर्ति देवताओं ने अलकनन्दा में नारद कुण्ड से निकालकार स्थापित की थी। देवर्षि नारद उसके प्रधान अर्चक हुए। उसके बाद जब बौद्धों का प्रभाव हुआ। तब इस मन्दिर पर उनका अधिकार हो गया।
भगवान की मूर्ति की कहानी
उन्होंने बदरीनाथ की मूर्ति को बुद्ध मूर्ति मानकर पूजा करना जारी रखा। जब आदि शंकराचार्य ने बौद्धों को इस क्षेत्र से बाहर किया तो वे तिब्बत भागते समय मूर्ति को अलकनन्दा में फेंक गये। शंकराचार्य ने जब मन्दिर खाली देखा तो ध्यान कर अपने योगबल से मूर्ति की स्थिति जानी तथा अलकनन्दा से मूर्ति निकलवाकर मन्दिर में प्रतिष्ठित करवाई। तीसरी बार मन्दिर के पुजारी ने ही मूर्ति को तप्तकुण्ड में फेंक दिया और वहाँ से चला गया। क्योंकि यात्री आते नहीं थे, जिससे उसे सूखे चावल भी भोजन के लिए नहीं मिल पाते थे। उस समय पाण्डुकेश्वर में किसी को घन्टाकरण का आवेश हुआ और उसने बताया कि भगवान का श्री विग्रह तप्तकुण्ड में पड़ा है। इस बार मूर्ति तप्तकुण्ड से निकालकर श्री रामानुजाचार्य द्वारा प्रतिष्ठित की गयी।
कुबेर व उद्धवजी
श्री बदरीनाथ जी के दाहिने अष्ट धातु की कुबेर की मूर्ति है, उनके सामने उद्वव जी हैं। तथा बदरीनाथ जी की उत्सव मूर्ति है। यह उत्सव मूर्ति शीतकाल में जोशीमठ में रहती है। उद्वव जी के पास ही चरण पादुकायें हैं। बायीं ओर नर नारायण की मूर्ति है। इनके समीप ही श्रीदेवी और भूदेवी हैं। मुख्य मन्दिर के बाहर मन्दिर के प्रांगण में ही शंकराचार्य जी की गद्दी है तथा मन्दिर समिति का कार्यालय है। एक स्थान पर घण्टा लटका है, वहाँ बिना धड़ की घण्टाकरण की मूर्ति है। परिक्रमा में भोगमण्डी के पास लक्ष्मीजी का मन्दिर है।
शंकराचार्य मंदिर
श्री बदरीनाथ मन्दिर के सिंहद्वार से कुछ सीढ़ी उतरकर शंकराचार्य मन्दिर है। इसमें लिंगमूर्ति है। बदरीनाथ से नीचे तप्तकुंड है। इसे अग्नितीर्थ कहा जाता है। तप्तकुंड के नीचे पंचशिला है। गरूड़शिला वह शिला है जो बदरीनाथ मन्दिर को अलकनन्दा की ओर से रोके खड़ी है। इसी से नीचे होकर जल तप्तकुण्ड में आता है। तप्तकुंड के अलकनंदा की ओर एक बड़ी शिला है। जिसे नारद शिला कहते हैं। इसके नीचे अलकनंदा में नारदकुंड है। इस स्थान पर नारदजी ने दीर्घकाल तक तप किया था।
मारकंडेय शिला
नारदकुण्ड के समीप अलकनन्दा की धारा में मारकण्डेय शिला है। इस पर मारकण्डेय जी ने भगवान की अराधना की थी। नारद कुण्ड के ऊपर जल में एक सिंहाकार शिला हैं। हिरण्यकश्यप वध के उपरान्त नृसिंह भगवान यहाँ पधारे थे। अलकनन्दा के जल में एक अन्य शिला है जिसे वाराही शिला कहते हैं। पाताल से पृथ्वी का उद्धार करके हिरण्याक्ष वध के पश्चात् वाराह भगवान यहाँ शिलारूप में उपस्थित हुए। यहाँ प्रहलाद कुण्ड, कर्मधारा और लक्ष्मीधारा तीर्थ है।
ब्रह्माकपाल तीर्थ
तप्तकुण्ड से मार्ग पर आ जाने पर कुछ ही दूरी के पश्चात् अलकनन्दा के किनारे एक शिला, ब्रह्मकपाल तीर्थ कहलाती है। यहीं यात्री पिण्डदान करते हैं। इस ब्रह्मकपाल तीर्थ के नीचे ही ब्रह्मकुण्ड है। यहाँ ब्रह्माजी ने तप किया था। ब्रह्मकुण्ड से अलकनन्दा के किनारे ऊपर की ओर जहाँ अलकनन्दा मुड़ती है। वहाँ अत्रि-अनुसूया तीर्थ है। इस स्थान से माणा सड़क पर चलने पर इन्द्रधारा नामक श्वेत झरना मिलता है। यहाँ इन्द्र ने तप किया था।
चरणपादुकाः यहां भगवान नारायण ने उर्वशी को किया था प्रकट
श्री बदरीनाथ जी के मन्दिर के पीछे पर्वत पर सीधे चढ़ने पर चरणपादुका का स्थान आता है। यहीं से बदरीनाथ मन्दिर में पाइप द्वारा पानी लाया जाता है। चरणपादुका से ऊपर उर्वशी कुण्ड है। जहाँ भगवान नारायण ने उर्वशी को अपनी जंघा से प्रकट किया था। यहाँ का मार्ग अत्यन्त कठिन है। इसी पर्वत पर आगे कूर्मतीर्थ, तैमिगिल तीर्थ तथा नर-नारायण हैं। यदि कोई इस पर्वत की सीधी चढ़ाई चढ़ सके तो इसी पर्वत के ऊपर से सत्यपथ पहुँच जायेगा। परन्तु यह मार्ग दुर्गम है।
कर्मकांडों का संचालन डिमरी ब्राह्मणों के हाथ में
बदरीनाथ मन्दिर में धार्मिक कर्मकाण्डों का संचालन बहुगुणा जाति के ब्राह्मण करते हैं। भोग पकाने का कार्य डिमरी जाति के ब्राह्मण करते हैं। वे लक्ष्मी मन्दिर के पुजारी भी हैं। वे मन्दिर के अन्दर मुख्य पुजारी के सहायक का कार्य भी करते हैं। रामानुज कोट के पुजारी रामानुज वैष्णव सम्प्रदाय के होते हैं। बदरीनाथ जी अंगार के वस्त्र-आभूषणों का प्रबन्ध करने से वे श्रृंगारी महन्त भी कहे जाते हैं। श्रृंगार की मालायें बनाने का कार्य ठंगूणी ग्राम के निवासी माल्या जाति के ब्राह्मण करते हैं। परिचारकों में दुरियाल लोग भण्डार की व्यवस्था करते हैं। चढ़ावे का प्रबन्ध, पूजा के बर्तनों की देखरेख, धूप और आरती का प्रबन्ध तथा रसोई की लकड़ी आदि का बन्दोबस्त व कपाट बन्द होने पर सुरक्षा की जिम्मेवारी इन्हीं पर होती है। माणा गाँव के मार्छ घृतकमल को एक दिन में बुनकर, कपाट बन्द होते समय भगवान की मूर्ति को आच्छादित करते हैं। वर्तमान में मन्दिर का प्रबन्ध मनोनीत समिति की देखरेख में सम्पन्न होता है।

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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