बढ़ रही है मांगने वालों की भीड़, फिर क्यों कहा जाए-मांगने से मरना भला
बचपन में एक कविता पढ़ी थी। उसका भाव यही था कि व्यक्ति के जीवन में सबसे उत्तम काम खेती है। बीच का काम व्यापार है और तीसरी श्रेणी का काम नौकरी है। सबसे घटिया काम जो है, वह भीख मांगना है।
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मांगने से मरना भला, यही सच्चा लेखा है,
बीड़ी पीने वालों का अजब यह धंधा देखा है,
कितने ही लखपतियों को बीड़ी माचिस मांगते देखा है।
यानी आज से करीब चालीस साल पहले तक मांगने वालों को घृणा की दृष्टि से देखा जाता था, जो आज देखा जाता है। ऐसे में इस घृणा का पात्र बनने से बचने के लिए मांगने वालों ने मांगने का अंदाज बदल दिया और मांगने वालों की दो श्रेणी हो गई। इनमें एक श्रेणी तो वही है, जो बचपन से मैं देखता आ रहा हूं। यानी लोगों के घर जाकर, मंदिर, गुरुद्वारे, गिरजाघर के बाहर खड़े होकर, सड़क किनारे बैठकर या फिर किसी चौक पर खड़े होकर सड़क चलते लोगो से भीख मांगना। दूसरी श्रेणी के लोग भी वही हैं, जो कभी बीड़ी माचिस मांगते फिरते थे। ऐसे लोग दिखने में तो पैसे वाले कहलाते हैं, लेकिन उनकी मांगने की आदत नहीं गई।
वैसे तो कहीं न कहीं मांगने वाले दिख जाएंगे। नेता जनता से वोट मांगता है, जीतने के बाद वह जनता का खून चूसने लगता है। पुलिस अपराधी से रिश्वत मांगती है। घूसखोर बाबू या अफसर आम व्यक्ति से छोटे-छोटे काम की एवज में घूस मांगता है। ईमानदार व लाचार व्यक्ति सच्चाई का साथ मांगता है। फिर ऐसे रिश्वतखोर के सामने सच्चाई दम तोड़ने लगती है। जाने अनजाने में ईमानदार भी कई बार खुद के काम को निकालने के लिए बेईमानों का साथ देता नजर आतैा है।
ये मांगने वाले भी कलाकार होते हैं। झूठ को ऐसे बोलते हैं कि हर कोई उनकी बात पर यकीं कर लेता है। एक पुरानी बात का यहां जिक्र कर रहा हूं। उस दौरान मेरे एक परिचित तो जब भी मुझे मिलते, तो उनके स्कूटर में पेट्रोल खत्म हो जाता। फिर वह पेट्रोल मांगते फिरते हैं। बाद में मुझे पता चला कि वह तो पेट्रोल मांगने के लिए स्कूटर की डिग्गी में खाली बोतल व पाइप भी रखते हैं। इसी तरह कई लोगों के पड़ोसी ऐसे होते हैं, जो कभी चीनी, चायपत्ती, दूध, प्याज, टमाटर आदि मांगने घर में धमक जाते हैं।
वैसे मोहल्लों में महिलाओं की कटोरेबाजी का चलन भी काफी पुराना है। जो अब इसलिए कम होता जा रहा है, क्योंकि अब मोहल्ले में ही एक पड़ोसी दूसरे को पहचानता नहीं है। सब अपने में बिजी होने लगे हैं। फिर भी पुराने मोहल्लों और गांवों में ये चलन आज भी हो सकता है। अपने घर की दाल या सब्जी या फिर कोई नई डिश बनाकर पड़ोस के घर पहुंचाने और वहां से उनके घर की दाल अपने घर लाने का चलन। कहावत तो ये भी है कि घर का दाल स्वाद नहीं लगती। हो सकता है कि ये चलन इसी कारण से बना हो। अब दाल व सब्जी का जमाना भी कमजोर पड़ता जा रहा है। मांगने वालों का अंदाज हाईटेक होने लगा है। ये हाईटेक दौर भी करीब 15 साल से अपनी पहचान बनाने लगा है।
करीब 10 साल पहले की बात है। मेरे एक परिचित को ई मेल आया। ई मेल एक प्रतिष्ठित मेडिकल इंस्टीस्टूयट के ट्रस्टी की ओर से भेजा गया था। इसमें मित्र से कहा गया कि वह विदेश में कहीं फंस गए हैं। ऐसे में वह उनके एकाउंट में पचास हजार रुपये डाल दें। साथ ही एकाउंट नंबर भी दिया गया था। ऐसी मेल देखकर कोई भी व्यक्ति फंस सकता है। वह सोचेगा कि यदि उसने इस बड़े आदमी की मदद की तो वह वापस लौटने पर काम ही आएगा। साथ ही उसे दी गई राशि भी वसूल हो जाएगी। मित्र बड़े समझदार थे। मेल को पढ़कर उन्होंने सहज ही अंदाजा लगा लिया कि उक्त मेल फर्जी आइडी बनाकर भेजी गई है। सो रकम देने का सवाल ही नहीं उठा। साथ ही ट्रस्टी को उसे मदद की क्या जरूरत है। वह तो कहीं भी अपने चेलों को फोन करके रकम मंगवा सकता है।
इसी तरह का दूसरा नमूना बताता हूं। ये बात भी करीब दस साल पहले ही है। मैं फेस बुक में आनलाइन था। तभी फ्रेंड लिस्ट में शामिल पटना की एक युवती चेट पर आई। हकीकत में वह लड़की है या फिर किसी ने फर्जी आईडी बनाकर लड़की के नाम से एकाउंट खोला है, यह मैं नहीं जानता। क्योंकि उससे दो ही दिन पहले ही उक्त युवती की ओर से फ्रेंड रिक्वेस्ट आई थी। चेट पर उसने पहले देहरादून के मौसम की जानकारी ली। फिर सीधे मुझसे मदद मांगने लगी। मदद भी यह थी कि मैं उसका नेट रिचार्ज करा दूं। जान ना पहचान और पहली बार संक्षिप्त परिचय में ही मांगने लगी नेट चार्ज के लिए राशि।
कहा गया है कि जब व्यक्ति बिलकुल नीचे गिर जाता है, तब वह या तो चोरी करता है और या फिर मांगने के लिए हाथ फैलाने लगता है। ऐसा ज्यादातर उन लोगों के साथ ही होता है, जो या तो नशा करते हैं या फिर जुआ व अन्य ऐब पाले होते हैं। आजकल युवा पीढ़ी नशे की गिरफ्त में पड़ती जा रही है। ऐसे में रकम जुटाने के लिए वह कोई न कोई हथकंडे अपना रही है। यदि उक्त लड़की का मैं नेट चार्ज करा देता तो मुझे पता है कि अगली बार वह दूसरी मजबूरी बताकर अपने बैंक एकाउंट का नंबर देती। अब तो सोशल मीडिया में किसी न किसी तरह का बहाना बनाकर रकम मांगने वालों की लंबी लाइन हो गई है।
इसी बात पर मुझे लेखक, व्यंग्यकार, पत्रकार शरद जोशी की ओर से लिखित नाटक-एक था उर्फ अलादाद खां की याद आ गई है। इनमें नवाब भीड़ को देखकर ऐसा करना चाहता है कि जिससे उसरी दरियादिली को देखकर सब वाहवाही करें। नबाव सोचता है कि वह भीड़ से किसी गरीब या भिखारी को बड़ा ईनाम देगा। ऐसे में भीड़ से पूछा जाता है कि-आप लोगों में कौन भिखारी है। नवाब उत्तर की प्रतिक्षा करता है, लेकिन जवाब सुनकर उसके पैरों तले जमीन खिसक जाती है। पूरी भीड़ की कह उठती है-हम सब भिखारी हैं हुजूर। 21 मई 1931 को पैदा हुए और पांच सितंबर 1991 को इस दुनियां को अलविदा कह गए शरद जोशी ने जो अपने जीवनकाल में लिखा, तो तो आज भी हो रहा है। देश की 80 करोड़ जनता भिखारी वाली स्थिति में पहुंच गई है। जो मुफ्त राशन की लाइन में खड़ी होती है। पहले भीख मिलने पर भिखारी दुआंए देते थे, अब मुफ्त राशन की भीख मिलने पर वोट देते हैं। हालांकि उस भीड़ का अभी मैं हिस्सा नहीं हूं, लेकिन ये भी संभव है कि मेरे नाम का राशन भी किसी के घर पहुंच रहा होगा।
भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।