शिक्षिका डॉ. पुष्पा खण्डूरी की कविता-वक्त का दरिया

वक्त का दरिया बहता रहता,
बहते दौर का हर इक लम्हा।
केवल यादें बन कर, ठहरा सा,
सुन्दरतं पल बस जैसे जीवन का बीता कल।
पर ये भी तिथियों में
गिन -गिन, दिन – वारों
में नित यूं ही ढल,
जाने कब कैसे यूँ ही?
देखो व्यतीत हो जाता,
कभी – कभी इक सुधि,
के तट पर आ आकर !
पल छन की लहरों के तट पर,
नित – नित, अपना सिर धुन – धुन
प्रतिध्वनि की राहें,
तक तक कर ना जाने कब ? कैसे ?
निन्द्रा -तन्द्रा के तम – घोर – निविड़ में,
जैसे मानों अपने ही निज शयन – शिविर में।
खो जाता, अतीत हो जाता॥
वक्त का दरिया बहता जाता,
इक पल भी ना कहीं ठहरता।
बहते दौर का इक – इक लम्हा,
कब कैसे?
ये व्यतीत हो जाता ॥
तिथि वार ईसवी सन्
बनकर।
वर्तमान भी नित
इतिहास बन!
कहीं गुजरकर ,
कब स्मृति पन्नों में सिमटकर।
यूंही बस नित अतीत हो जाता॥
कवयित्री का परिचय
डॉ. पुष्पा खण्डूरी
प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष हिन्दी
डी.ए.वी ( पीजी ) कालेज
देहरादून, उत्तराखंड।

लोकसाक्ष्य पोर्टल पाठकों के सहयोग से चलाया जा रहा है। इसमें लेख, रचनाएं आमंत्रित हैं। शर्त है कि आपकी भेजी सामग्री पहले किसी सोशल मीडिया में न लगी हो। आप विज्ञापन व अन्य आर्थिक सहयोग भी कर सकते हैं।
भानु बंगवाल
मेल आईडी-bhanubangwal@gmail.com
भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।