शिक्षिका डॉ. पुष्पा खंडूरी की कविता-मेरा बुढ़ापा
मेरा बुढ़ापा
एक रोज जैसे ही हुई
मेरे द्वार पै इक आहट
निकली मैं जैसे ही बाहर
दिल में बड़ी हुई घबराहट
पूछो तो क्या देखा ?
बाहर मेरा खड़ा बुढ़ापा
धकिया कर बोला मैं हूँ
चल हट भीतर आने दे,
सेवानिवृत्त होने वाली है
अब तो बस मेरी बारी है
पहले सोचा, मेहमान है
चलो भीतर आने देती हूँ
किन्तु तभी आया ख्याल
जो एक बार यदि आया
ये तो मुश्किल ही है,
फिर कभी नहीं जाएगा
बालों में पहले बस कर,
फिर दिल में बस जाऐगा
हंसी, ठिठोली, मस्ती,
आशा और कई सखियों
संग मैंने देकर धक्का
बाहर उसको जो फेंका ।
अभिलाषा, आशा और हंसी खुशी ने
मुझको फिर अपने गले लगाया
अभी उम्र ही है क्या तेरी
मुझको ये समझाया ।
संग पा मैंने भी उनका
अपने मन के द्वार ढ़काए
और बेइमान बुढ़ापे को,
धकिया कर बाहर,
फिर जीवन से दूर भगाया ॥
देखो -देखो कैसे मैंने,
नामुमकिन को… यूँ ही
बस मुमकिन कर डाला
उम्र भले बढ़ गई है मेरी
बुढ़ापा लौट कर फिर
कभी न वापस आया।
तन से चाहे भले ही बूढ़े हो जाना तुम पर ,
देखो मन से कभी ना बूढ़े होना॥
कवयित्री की परिचय
डॉ. पुष्पा खंडूरी
प्रोफेसर
डीएवी (पीजी ) कॉलेज
देहरादून, उत्तराखंड
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भानु बंगवाल
मेल आईडी-bhanubangwal@gmail.com
भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।