शिक्षिका डॉ. पुष्पा खण्डूरी की कविता-कान्हा की बांसुरी
कान्हा की बांसुरी
ओ कान्हा फिर से सुना दे बांसुरी।
जो वंशी तूने वंशीवट में बजाई।
जो वंशी तूने यमुना जी को सुनाई॥
ओ कान्हा! फिर से सुना दे बांसुरी,
जिस वंशी की धुन पर तूने, रास रचाई।
रास रचाई, तूने प्यारे राधा रिझाई॥
ओ कान्हा ! फिर से सुना दे बांसुरी
जिस वंशी से तूने गैयैं चराई।
गैयें चराई कान्हा, गोपी नचाई॥
ओ कान्हा ! फिर से सुना दे बांसुरी ‘
कान्हा जी बोले – ‘सुन ले ओ दीवानी !
वंशी तो छोड़ी मैंने कब से बजानी,
राधा की प्यारी वंशी प्यारी राधा बजाए।
वंशी राधा को दे कान्हा मथुरा आए।
वहाँ आ के कान्हा अब ‘कंसारी ‘ कहाये॥
कान्हा की वंशी तो राधा को प्यारी,
वंशी कान्हा की प्यारी राधा बजाए।
बिन राधा मुझे तो कुछ न सुहाए ॥
ओ कान्हा ! फिर से सुना दे बांसुरी’
ओ कान्हा ,वृन्दावन की इन गलियों में।
मैंने आज फिर तेरी वंशी सुनी है।
वंशी छोड़ दी मैंने युमुना किनारे,
वंशी छोड़ दी मैंने राधा सहारे।
वंशी मेरी राधे -राधे ही पुकारे॥
अब तो जमाना मुझे ‘द्वारकाधीश’ पुकारे॥
ओ कान्हा ! फिर से बजा दे बांसुरी,
ब्रज की गलियों में, तेरी वंशी बसी है।
‘वंशी ‘ तेरी राधा के उर बसी है,
ओ कान्हा !फिर से बजा दे बांसुरी,
वृन्दावन की इन गलियों में,
मैंने आज फिर तेरी वंशी सुनी है।
ब्रज की गलियों में तेरी वंशी बसी है।
वंशी तेरी राधा के उर बसी है॥
ओ कान्हा ! हमें फिर से सुना दे बांसुरी,
वंशी तेरी अग -जग बसी है,
गोकुल की कुंजों में,
यमुना जी की लहरों में।
धड़कन बनी में वंशी
मेरे दिल में बसी है॥
राधे संग, तेरे भक्तों के कानों में समाई।
ये कैसी धुन, प्यारे तूने बजाई।
तीनों लोकों में जो आज भी गूंज रही है।
आज भी लाखों ‘मीराएं राधा बन झूम रही हैं।
रसखानों की कविता में गूंज रही है॥
ओ कान्हा फिर से सुना दे बांसुरी ॥
कवयित्री का परिचय
प्रोफेसर, डॉ. पुष्पा खण्डूरी
डी.ए.वी ( पीजी ) कालेज
देहरादून, उत्तराखंड।
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भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।