विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेषः वृक्षारोपण से महत्वपूर्ण प्राकृतिक वनों को बचाना- डॉ. दलीप सिंह बिष्ट
आखिर क्यों मनाया जाता है पर्यावरण दिवस
पर्यावरण की सुरक्षा और संरक्षण के लिए प्रतिवर्ष 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र की ओर से पर्यावरण के प्रति जागृति लाने हेतु 5 जून 1974 को पहला विश्व पर्यावरण दिवस मनाया गया था। पर्यावरण को संरक्षित करने और लोगों में जागरूकता पैदा करने के लिए संयुक्त राष्ट्र से संचालित विश्व पर्यावरण दिवस सबसे बड़ा आयोजन है।
आयोजित होतें हैं कार्यक्रम, छात्रों की भी होती है भागीदारी
विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर विभिन्न सरकारी एवं गैर-सरकारी संस्थाओं में सघन वृक्षारोपण कार्यक्रम जोर-शोर से चलाया जाता है। धरती को हरा-भरा बनाने के लिए तथा जन-समुदाय को वृक्षारोपण के प्रति प्रोत्साहित करने के लिए नेता, संस्थाओं के मुखिया, सामाजिक कार्यकर्ता, स्कूली छात्र-छात्राओं द्वारा हरवर्ष इस अवसर पर वृक्षारोपण कार्यक्रम किया जाता है। विशेष रूप से पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए स्कूल, कॉलज एवं महाविद्यालयों में इस अवसर पर गोष्ठियां, पोस्टर एवं वाद-विवाद प्रतियोगितायें आयोजित की जाती हैं।
पौधरोपण के बाद पनप पाते हैं गिने चुने पौध
विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर प्रतिवर्ष 5 जून को दुनिया में वृक्षारोपण कार्यक्रम चलाने के बावजूद अगर हम नजर दौड़ाये तो अपवाद को छोड़कर गिने-चुने पेड़-पौधे ही नजर आते हैं। इनमें से अधिकत्तर प्राकृतिक रूप से उगे पेड़-पौधे होते है। 1974 से आज तक यदि इन संस्थाओं में प्रतिवर्ष एक पेड़ भी जीवित रहता तो शायद आज किसी भी संस्थान में वृक्षारोपण की आवश्यकता नहीं पड़ती। इससे स्पष्ट हो जाता है कि पर्यावरण दिवस एक औपचारिकता या यूं कहें कि मात्र फोटों खीचवाने तक सिमटकर रह गया है।
प्राचीनकाल से ही उत्तराखंड की महत्वपूर्ण भूमिका
प्राचीन काल से ही उत्तराखंड अपने वनों व पर्यावरण के लिए महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यहां के जनजीवन में वनों के प्रति जो अगाध प्रेम आदिकाल से चला आ रहा था। वह समय के साथ धीरे-धीरे खत्म हो रहा है। चिपको तथा मैती जैसे विश्व प्रसिद्ध पर्यावरण आंदोलन की भूमि में पर्यावरण के प्रति उदासीनता के पीछे कई कारण रहे हैं। जिनमें वन विभाग की उपेक्षा पूर्व नीति एवं विकास योजनाओं का पर्यावरण सम्मत न होना प्रमुख है।
जीवन में वन का महत्व
जीवन के लिए भूमि, जल एवं हवा के साथ-साथ वनस्पतियों व जीवधारियों का भी बहुत अधिक महत्व है। छोटे-छोटे जीवों से लेकर भीमकाय जीव और छोटी-छोटी बनस्पतियों से बड़े-बड़े वृक्षो से मिलकर पर्यावरण का निर्माण होता है। यदि प्रकृति से एक भी जीव या वनस्पति नष्ट हो जाती है तो अन्य तत्व इससे प्रभावित हुए बिना नही रह सकते हैं। इसके कारण पर्यावरण असन्तुलन की समस्या पैदा हो जाती है, जो वर्तमान समय की सबसे विकट समस्या है। वन पर्यावरण का सबसे प्रमुख घटक है, जिसमें उत्पादक से लेकर अन्तिम उपभोक्ता और अपघटक तक शामिल होते हैं। लेकिन वनों के नष्ट होने से पारिस्थितिकी तंत्र लगातार गड़बड़ा रहा है और वनों पर सबसे अधिक प्रभाव आग का पड़ता है।
हर साल गर्मियों में अग्नि की भेंट चढ़ते हैं जंगल
प्रत्येक वर्ष गर्मियों का मौसम शुरू होते ही जंगलों में आग लगनी या लगाने की घटनायें बड़ी तेजी से शुरू हो जाती है। यहां तक कि अब किसी भी मौसम में जंगलों में आग लगने की घटनायें नजर आ जाती हैं। यहां समस्या किसी क्षेत्र या देश विशेश की नहीं है, अपितु पूरी दुनिया में वनाग्नि से वनों की तबाही का मंजर हर जगह नजर आ जाता है। वनों को आग से बचाने के लिए चाहे कोई भी देश लाख दावे करे, किन्तु उनके दावे हर बार धरे के धरे रह जाते हैं और जंगल धूं-धूंकर जलते रहते हैं।
करोड़ों खर्च, फिर भी नतीजा सिफर
वनों को आग से बचानें के लिए प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये खर्च करने के बावजूद आसमानी बारीश ही एकमात्र सहारा होता है। वनों में आग लगने का अधिकत्तर समय गर्मियों का मौसम होता है जो विभिन्न पशु-पक्षियों के बच्चे या अंडे देने का समय होता है और वे इतने असहाय होते हैं कि वनों की आग से अपने आप को बचा नही सकते हैं। इस आग में बच्चों के प्रेम के कारण बड़े जीव भी जल जाते है यानि पूरी जैव-विविधता नष्ट हो जाती है। विज्ञान के इस युग में जब हम मंगल पर जीवन की खोज में लगे हुए हैं, तब जंगलों की आग बुझाने में आज भी पेड़ों की हरी टहनियों का सहारा लिया जाता है। जो कि मात्र औपचारिकता और जान जोखिम में डालना है।
ये भी हैं नुकसान
वनों में लगने वाली आग के कारण आंखों में जलन एवं श्वास से सम्बन्धित विभिन्न प्रकार की बीमारिया पैदा होने लगती है। इसलिए वनों में लगनी वाली आग को मात्र वनों के नष्ट होने की दृष्टि से ही नही देखा जाना चाहिए, बल्कि पूरी जैव-विविधता की तबाही के परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है।
कार्यक्रम करो, लेकिन वनों की सुरक्षा का भी रखें ध्यान
विश्व पर्यावरण दिवस हर वर्ष धूम-धाम से मनाया जाना चाहिए और वृक्षारोपण कार्यक्रम भी बढ़-चढ़कर किया जाना चाहिए। किन्तु उससे अधिक प्राकृतिक रूप से उग रहे वनों और उनकी सुरक्षा पर देने की आवश्यकता है। प्रतिवर्ष वृक्षारोपण कार्यक्रम के नाम पर जितना खर्च किया जाता है उतना खर्च केवल प्राकृतिक वनों को आग से बचाने में लगाया गया और यदि हम उनको बचाने में सफल हो जाते है तो शायद प्रतिवर्ष वृक्षारोपण की आवश्यकता ही न पड़े। क्योंकि प्रतिवर्ष वृक्षारोपण कार्यक्रमों में जितने पेड़-पौधे लगाये जाते हैं। विशेष रूप से सरकारी संस्थाओं में वह मात्र फोटो खिचवाने की औपचारिकता तक सिमटकर रह गये हैं।
पेड़ बचाए होते तो हर तरफ दिखती हरियाली
यदि वृक्षारोपण कार्यक्रम में पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता बरती जाती तो 1974 से अब तक प्रतिवर्ष एक भी वृक्ष जीवित रहता तो आज प्रत्येक संस्थान, सड़क के किनारें पेड़-पौधों से हरे-भरे नजर आते। इसलिए प्रतिवर्ष प्राकृतिक वनों को यदि हम केवल आग से बचाने में सफल हो जाते है तो यह पर्यावरण संरक्षण के लिए मील का पत्थर और विश्व पर्यावरण दिवस मनाना सार्थक होगा।
लेखक का परिचय
डॉ. दलीप सिंह बिष्ट
असिस्टेंट प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय अगस्त्यमुनि रुद्रप्रयाग, उत्तराखंड।
डॉ. दलीप सिंह बिष्ट मूल रूप से टिहरी जनपद में विकासखंड देवप्रयाग के अन्तर्गत त्यालनी गाँव निवासी हैं। उन्होंने विभिन्न राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में अपने शोध पत्र प्रस्तुत किए हैं। इसके अलावा विभिन्न ब्लाग, पोर्टल, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं तथा पुस्तकों में सात दर्जन से अधिक शोध लेख/लेख प्रकाशन के अलावा तीन पुस्तकें ‘हिन्दी गढ़वाली काव्य संग्रह’, ‘उत्तराखण्डः विकास और आपदायें’ एवं ‘मध्य हिमालय: पर्यावरण, विकास एवं चुनौतियां’ प्रकाशित हो चुकी हैं। भारतीय राजनीति विज्ञान परिषद् (IPSA) एवं यूनाइटेड प्रोफेसनल एण्ड स्कालर फार एक्शन (UPSA) के आजीवन सदस्य हैं।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।