कानूनी दांव पेंच, शातिराना अंदाज, अदालत में चक्कर खाते रह जाओगे
कई बार झगड़े का कोई बड़ा कारण नहीं होता और न चाहते हुए विवाद हो जाता है। विवाद इतना बढ़ता है कि न्यायालय तक पहुंच जाता है। न्यायालय तक विवाद पहुंचने पर अक्सर मामले लंबे खींचते हैं।

बात कई साल पहले की है। मैं घर से आफिस को मोटरसाइकिल से निकला। रास्ते में एक मकान के आगे कार खड़ी थी। बगल में एक नर्सिंग होम भी था। कार से पूरा रास्ता अवरुद्ध हो रखा था। इससे सड़क के दोनों तरफ वाहनों की कतार लगने लगी। कार के भीतर बैठे लोगों से सड़क पर खड़े कुछ लोग बात कर रहे थे। मैं भी अन्य लोगों की तरह वहां पर रुका और कुछ देर इंतजार किया। फिर कार से एक व्यक्ति उतरा और बाहर खड़े लोगों ने बात करने लगा।
करीब दो-तीन मिनट होने पर मैने टोका कि कार आगे करके बात कर लो। रास्ता क्यों रोका हुआ है। इस पर मौके पर खड़े उनके एक साथी को गुस्सा आ गया और वह मुझे धमकाने लगा। जब मैने पूछा कि मैने क्या गलत कहा तो कार में सवार व्यक्तियों के साथ ही सड़क पर खड़े लोगों ने मुझ पर हमला कर दिया। वे मुझ पर ऐसे लात-घूंसे बरसा रहे थे, जैसे कि मैं कोई अपराधी हूं। काफी देर मारपीट करने पर ही उन्हें चैन आया। मुझसे रहा नहीं गया। मैने मारपीट का कारण पूछा। इस पर हमलावरों से एक ने मुझे बताया कि नर्सिंग होम में भर्ती एक बच्चे की मौत हो गई। उसे ही कार में लेकर जा रहे थे।
मैं मौके पर कुछ नहीं बोला। मुझे बच्चे की मौत की घटना पता नहीं थी। साथ ही यह दुख भी हुआ कि यदि मौत का पता होता तो मैं कार हटाने को नहीं टोकता। काफी देर तक मनन करने के बाद मैने तय किया कि गलती दूसरे पक्ष की है। उन्होंने कानून हाथ में लिया और हमला किया। मारपीट करने वालों को मैं जानता नहीं था। इसलिए मैने कार नंबर के आधार पर थाने में रिपोर्ट लिखाई। पुलिस ने जांच में मारपीट करने वालों के नामों का खुलासा किया और यह मुकदमा न्यायालय तक पहुंचा।
न्यायालय में तारिख पर तारिख लगने से मैं खुद भी परेशान हो गया। हर तारीख पर दूसरा पक्ष नहीं आता और मुझे उपस्थिति रजिस्टर में हस्ताक्षर करने पड़ते। जिस कोर्ट में अक्सर मैं क्राइम रिपोर्टिंग के लिए हर दिन नियमित रूप से एक चक्कर लगाता था और वहां के हर कर्मचारी मुझे पहचानते थे, लेकिन वे मुझे देखकर ऐसे अनजान बनते जैसे वे मुझे जानते नहीं थे। इसका कारण यही था कि हर तारीख में रजिस्टर में हस्ताक्षर करने के लिए उनसे मुझे अपेक्षा होती थी। वहां महिला कलर्क थी और जब तक उसे बीस या पचास रुपये नहीं थमाए जाते, तब तक वह हस्ताक्षर नहीं कराती और अगली डेट नहीं देती। यदि पैसे नहीं दो तो अगली डेट में सुबह से अदालत में बैठे रहो और सबसे बाद नाम पुकारा जाएगा, ये मैं तब समझने लगा था।
मुकदमा लिखने के करीब दो साल बाद मेरे बयान का नंबर आया। जज ने मुझे पूरा घटनाक्रम सुनाने को कहा। मैने पूरा विवरण सुना दिया। अब मुझे पता नहीं पुलिस ने क्या लिखा था। क्योंकि हम जो कहानी बताते हैं, कई बार पुलिस उसे भी बदलकर लिख देती है। ऐसे पुलिस की ओर से दर्ज बयान और हमारी ओर से दिए गए बयानों में विरोधाभास भी लाजमी है। बयान के बाद न्यायालय में ही मुझे हमला करने वालों को पहचानने को कहा गया। मैने अपने चारों तरफ गर्दन घुमाई, लेकिन मुझे कोई हमलावर नजर नहीं आया। हमला करने वालों में दो-तीन की शक्ल मैं भूला नहीं था, लेकिन न्यायालय में मैं किसी को नहीं पहचान सका। खैर संदेह के आधार पर सभी आरोपी बरी हो गए।
बाद में मुझे पता चला कि कानूनी दांव पेंच में दूसरा पक्ष काफी शातिर निकला। वह तो पुलिस से मिला हुआ था। यहां तक उसने मेरे कुछ उन परिचितों को भी अपनी तरफ मिला लिया था, जो मामले में मेरी तरफ से गवाह थे। जब पुलिस मारपीट की विवेचना कर रही थी तो दूसरे पक्ष ने हमलावरों में उनके नाम लिखवा दिए, जो घटना वाले दिन मौके पर मौजूद ही नहीं थे। उन सभी ने न्यायालय से जमानत भी करा ली थी। जब न्यायालय में मुझे हमलावरों की शिनाख्त (पहचान) करनी थी, तो असली हमलावर वहां थे ही नहीं। उनकी जगह दूसरे खड़े थे और उन्हीं के नाम पुलिस विवेचना में हमलावरों के रूप में दर्ज थे। ऐसे में मैं तो चकरा गया और मेरी तरह से ऐसे मामलों में ना जाने कितने कोर्ट में चकरा जाते होंगे। यही आज की हकीकत है। फिर भी मुझे उस दिन ये तसल्ली हुई कि बार बार कोर्ट में चक्कर काटने से बच गया। क्योंकि हर तारीख में मुझे ऑफिस से छुट्टी लेनी पड़ती थी।
भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।