प्रकृति पूजन और पर्यावरण संरक्षण का पर्व है सारू सरै, बीमारियों को दूर करने लिए होती है तंत्र मंत्र से पूजा

आज भले ही विज्ञान ने असाध्य रोगों के निदान के उपाय खोज लिये हों, परन्तु भूतकाल में जब चिकित्सा विज्ञान इतना विकसित और उन्नत नहीं था, तो तब जन-सामान्य साध्य व असाध्य रोगों की रोकथाम के लिए तन्त्र-मन्त्र और जड़ी-बूटियों को ही मानने के लिए विवश था। गाहे बगाहे पूरे विश्व के एक बड़े भूभाग जिसमें विकसित देशों का एक बड़ा क्षेत्र भी सम्मिलित है में आज भी रोगों के रोकथाम की ये पद्धति प्रचलित है। शिक्षा व विज्ञान के प्रसार के साथ भले ही तौर तरीकों में परिवर्तन आया हो, परन्तु विश्व के एक बड़े भूभाग में तन्त्र मन्त्र के इन तौर तरीकों का एक परम्परा के रूप में आज भी रीति रिवाजों की तरह निर्वहन किया जाता है।
देवभूमि के नाम से जाने जाना वाले उत्तराखंड के पहाड़ी अञ्चल के एक बड़े भू भाग के गांवों में विभिन्न अवसरों पर रोग-व्याधि की रोकथाम और यहाँ तक कि उपचार के लिए भी विभिन्न तन्त्र-मन्त्र के उपाय आज भी प्रचलित हैं। इन्हीं प्रचलित परम्पराओं में से एक है-पुराने समय में हैजा जैसी महामारी की रोकथाम के लिए ज्येष्ठ मास (जून माह) में की जाने वाली रश्म (पूजा)। इसे स्थानीय भाषा में सारु सरै कहा जाता है।
क्या है यह परम्परा
इस परम्परा में सेवित ग्राम के प्रत्येक परिवार से सात प्रकार के मोटे अनाज, तेल, आटा, गुड़ व कुछ धन राशि एकत्र की जाती है। सामग्री को एकत्र कर गाँव की मानव बस्ती से बाहर, जंगल में जाकर सामवेद में वर्णित 12 योग माया (वन देवियों), नव दुर्गाओं (9बैणीं आछरी), और 64 योगनियों की विभिन्न अनाजों10 दिग्पालों (दसों दिशाओं के अधिपति देवताओं),दस महाविद्याओं, 11रूद्रों का पूजन अर्चन किया जाता है।
मूर्ति बनाकर किया जाता है पूजन
स्थानीय अनाजों, पुष्पों, रंगों और रोलियों से उपरोक्त देवी-देवताओं के पिण्ड रूपी मूर्तियाँ बनाकर पूजन किया जाता है। पूजन में सेवित क्षेत्र के मानव व पशुओं व पेड़ पौधों की सलामती व खुशहाली की कामना की जाती है। पूजन के इस विधान में लाल-पीले रूमाल के आकार के कपड़ों से रिंगाल से बने आयताकार या वर्गाकार लगभग दो फीट के धरातल पर एक डोली तैयार की जाती है। इसमें प्रत्येक घर से प्राप्त सात साबुत मिश्रित अनाजों से लड्डू के आकार की 12 योगमाया देवियों की स्थापना की जाती है। इन्हीं 12 योगमायाओं के साथ 64 योगनियों की स्थापना अलग-अलग अनाज के दानों द्वारा की जाती है। तन्त्र शास्त्र और सामवेद में वर्णित विधि विधान से इस डोली और इसमें स्थापित देवियों की पूजा की जाती है।
पूजा में पांच व्यक्ति होते हैं यजमान
पूजा में सामान्यतः गांव समाज द्वारा चयनित पांच व्यक्तियों को यजमान के रूप में बिठाकर ब्राह्मण आचार्य (पुरोहित) द्वारा पूजा सम्पादित की जाती है। घरों से प्राप्त खाद्य सामग्री या इकट्ठा की गई धनराशि से खरीदी गई सामग्री से पूजन के लिए भोग बनाया जाता है। दसों दिशाओं के रक्षपाल भैरवों के लिए मण्डुवे के आटे का रोट और उड़द व चावल की खिचड़ी तैयार की जाती है।
महिलाओं और छोटे बच्चे नहीं लेते भाग
साथ ही अन्य देवियों के भोग के निमित्त गुलगुले और मालपुवे तैयार किये जाते हैं। सेवित क्षेत्र की विवाहिता स्त्रियों द्वारा देवी को चूड़ी, बिन्दी व श्रृंगार सामग्री भेंट की जाती है। यह सामग्री तैयार कर लिए जाने के बाद पूजन-अर्चन का कार्य प्रारम्भ होता है, जिसमें महिलाओं व छोटे बच्चों का भाग लेना प्रतिबन्ध (निषिद्ध) होता है।
आपस में बात नहीं करते यजमान
पूजन के समय डोली को लाल-पीले रंग के कपड़ों के साथ लाल-पीले रिब्बनों से सजाया जाता है। पूजन अर्चन के बाद इस डोली को गाँव की सीमा से बाहर जाकर जंगल में परम्परागत पूर्व निर्धारित स्थान पर रख दिया जाता है। विशेषता की बात यह है कि डोली जमीन पर रखते वक्त डोली के साथ उपस्थित व्यक्ति (जिनकी संख्या 4 या 5 से अधिक नहीं होती है) आपस में कोई बातचीत नहीं करते हैं। इस समय सभी के मोबाइल फोन भी साइलेंट मोड में रहते हैं। और डोली को जमीन पर रखने के बाद सभी लोग वापस मुड़ जाते हैं और किसी भी परिस्थिति में पीछे मुड़कर नहीं देखते। ऐसा माना जाता है कि यदि किसी ने पीछे मुड़कर देखा तो पूजा निष्फल हो जाती है।

बाद में होता है सामूहिक भोज
सभी लोग चुपचाप चलते हुए हाथ-पाँव धुलने के बाद ही पूजा वाले स्थान पर पहुँचते हैं। जहांँ पर सामूहिक भोज का आयोजन होता है। भोज में ग्राम के प्रत्येक परिवार का एक सदस्य प्रतिभाग करता है। भोज की सारी खाद्य सामग्री जंगल में ही बनाई जाती है। इसी बीच जन समुदाय द्वारा जंगल का भ्रमण करते हुए पेड़-पौधों का अवलोकन किया जाता है। अगर किसी पौधे को खाद मिट्टी की आवश्यकता होती है तो उसके लिए खाद मिट्टी का प्रबन्धन किया जाता है। सूखे पेड़ों व टहनियों को उनके स्थान से हटा दिया जाता है। ताकि नये पौधे आसानी से पल्लवित हो सकें।
पूजन के पीछे क्या है मान्यता
वर्षों से इस पूजन में सम्मिलित रहे और धारकोट गाँव के 85 वर्षीय बुजुर्ग उदय सिंह रावत का कहना है कि- मेरे बुजुर्ग बताते थे कि सन 1920 के आसपास के वर्षों में हैजा जैसी महामारी से गांव के गांव महामारी की विभीषिका से समाप्त हुये थे। तब से ज्येष्ठ मास में इस पूजा का करने का महत्व बढ़ गया था, क्योंकि गर्मियों में गन्दगी से होने वाली बीमारियों की आशंका बढ़ जाती है। इसलिए ज्येष्ठ मास में अपने घरों, आसपास सहित सेवित बस्तियों में साफ सफाई का अभियान चलाया जाता है। सामाजिक सहभागिता से साफ सफाई की मानसिकता व माहौल का निर्माण करने के लिए सारू सरै का आयोजन किया जाता है।
समाजशास्त्री का कथन
समाज विज्ञानी उड़ीसा निवासी और वर्षों से उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक परम्पराओं व रीति रिवाजों का अध्ययन करने वाले नमोदीप्त बेहरा का कहना है कि – तत्कालीन समय में समाज को साफ सफाई के प्रति जागरूक करना और लोगों में मनोवैज्ञानिक रूप से सकारात्मक विचार पैदा करने के लिए इस तरह की परम्पराओं का प्रादुर्भाव हुआ होगा। क्योंकि यह विज्ञान सम्मत तथ्य है कि यदि हम किसी डर /भय को मन से निकालने में सफल हुए तो फिर शरीर में सकारात्मक ऊर्जा के संचार से व्यक्ति की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है। अतः तत्कालीन समय में जब हैजा, प्लेग जैसी महामारी का कोई चिकित्सीय उपचार उपलब्ध नहीं था तो लोगों में सकारात्मक सोच पैदा करने के लिए और मनोवैज्ञानिक रूप से यह भाव पैदा करने के लिए कि अब पूजन के पश्चात देवी-देवता हमारी रक्षा करेंगे, के लिए इस प्रकार के आयोजन करने की प्रथा का प्रारम्भ हुआ होगा। जिनका निर्वहन परम्परागत रूप से आज तक भी किया जाता है।
भारत व विश्व के किन-किन भागों में होते हैं ये रश्मों-रिवाज
यों भारतीय उप महाद्वीप को इसके खान-पान,पहनावे, रीति-रिवाजों की वैविध्यता के लिए जाना ही जाता है, लेकिन विविधता में समानता भी इस उपमहाद्वीप की एक बड़ी विशेषता है।
भारत के पूर्वी प्रदेशों-सिक्किम, अरूणाचल, असम, नागालैंड सहित केरल, उड़ीसा, तमिलनाडु, महाराष्ट्र व गुजरात के समुद्र तटीय इलाकों में इसी रश्म से काफी मिलते-जुलते पर्व प्रचलन में हैं। ये पर्व अलग-अलग राज्यों और अलग-अलग देशों में अलग अलग महीनों में आयोजित होते हैं। मध्य अफ्रीकी देशों कांगों, जेयरे, गेबन के अलावा नामीबिया, तन्जानिया आदि देशों में इसी से मिलते जुलते कई लोक पर्व प्रचलित हैं।
सकारात्मक ऊर्जा और आत्मविश्वास बढ़ाने की रीति
इस प्रकार के पूजा कार्यों से आज हमारी कितनी रक्षा होती है, यह बहस का विषय तो हो सकता है, लेकिन श्रद्धा, विश्वास और आस्था से शरीर में पैदा सकारात्मक ऊर्जा और आत्मविश्वास से बड़े से बड़े रोगों पर भी मानव विजय पा लेता है। यह तथ्य विज्ञान भी मानता है। इसके उदाहरण हर रोज देखने को मिलते हैं। कोरोना जैसी महामारी के वक्त तो सकारात्मक सोच-विचार और उच्च मनोबल बनाये रखने वाले कोरोना पीड़ितों ने जिन्दगी की जंग जीत कर इस तथ्य को और भी पुष्ट किया है।
इस बार भी इस गांव में मनाया गया यह पर्व
जनपद रूद्रप्रयाग के अगस्त्यमुनि विकासखंड के ग्राम पंचायत धारकोट में लम्बे समय से चली आ रही वनदेवियों के साथ प्रकृति पूजन की परम्परा सारू सरै कोविड 19 की गाइड लाइन्स का पालन करते हुए सम्पन्न हुआ। इस बार परम्परा में भाग ले रहे युवा मयंक तिवाड़ी, सचिन तिवाड़ी, पंडित राजीव चौकियाल, वीरेन्द्र सजवाण अमित कप्रवान, विपिन खत्री, अनूप कप्रवान, पंकज राणा आदि ने बताया कि कोरोना की लहर के चलते इस बार इस कार्यक्रम में बहुत कम लोगों को ही शामिल किया गया। विगत दो वर्षों तक इस कार्यक्रम में बड़ी संख्या में गांववासी और अप्रवासी शरीक होते रहे हैं।

लेखक का परिचय
नाम- हेमंत चौकियाल
निवासी-ग्राम धारकोट, पोस्ट चोपड़ा, ब्लॉक अगस्त्यमुनि जिला रूद्रप्रयाग उत्तराखंड।
शिक्षक-राजकरीय उच्चतर प्राथमिक विद्यालय डाँगी गुनाऊँ, अगस्त्यमुनि जिला रूद्रप्रयाग उत्तराखंड।
mail-hemant.chaukiyal@gmail.com




