प्राकृतिक सुंदरता का अद्भुत नजारा है रूपकुंड, झील किनारे बिखरे हैं मानव कंकाल
उत्तराखंड में रूपकुंड ऐसा स्थान है, जहां तालाब के इर्दगिर्द नर कांकाल बिखरे हुए हैं। इन नर कांकालों को लेकर कई कहानियां हैं। यह स्थान प्राकृतिक सुंदरता को अपने में समेटे हुए है, वहीं नर कंकाल किसी विपदा की कहानी भी बयां करते हैं। इन नर कंकालों को लेकर समय समय पर शोध भी हुए, जो जारी हैं। इसे लेकर कई दंतकथाएं भी हैं। हम इस स्थान तक पहुंचने का रोमांच और यहां की स्थिति के अवगत करा रहे हैं।
यहां से है रास्ता
उत्तराखंड के प्रवेश द्वार हरिद्वार से लगभग 350 किलोमीटर की दूरी पर स्थित रूपकुंड तक पहुँचने के लिए चमोली जिले के कर्णप्रयाग होते हुए बगड़गाड 222 किलोमीटर तक बस अथवा कार से पहुँचा जा सकता है। यहाँ से प्रारम्भ होती है सीधी खड़ी चढ़ाई। दुरूह पगडंडियों में सात किलोमीटर पैदल चलने के उपरान्त आता है लौहजंग नामक सुरम्य एवं पौराणिक स्थल। यहाँ मई-जून के माह में गर्म हवाओं से त्रस्त यात्री शीतल हवा के स्पर्श से अथाह आनन्द का अनुभव करता है।
पर्यटकों हो मोह लेता है यह स्थान
लौहजंग से रूपकुंड के लिए दो मार्ग जाते हैं। एक वाण से होकर, दूसरा वाक से गुजरते हुए। इस तरह नौ किलोमीटर का रास्ता तय करते हुए भैंकलताल व ब्रह्मताल नामक स्थल पर पहुँचा जाता है। सघन जंगल से बाहर निकलते ही रंग-बिरंगे चित्ताकर्षक फूलों व मखमली घास से ढके तिलाती बुग्याल (10000 फीट) की मनोरम छटा बरबस ही पर्यटकों का मन मोह लेती है। वाण होकर रूपकुंड जाने का कुछ विशेष आनन्द है।
वैतरणी ताल संस्कृति की दिव्य धरोहर
लौहजंग से पन्द्रह किलोमीटर के अन्तर पर स्थित चित्रमय गाँव धुर-उत्तर में जिला चमोली की सीमांत बस्ती है। यहाँ के निवासी चरवाहे हैं, जो ग्रीष्म ऋतु में अपने पशुओं को लेकर बेदिनी बुग्याल (12000 फीट) चले जाते हैं। लौहजंग से प्रारम्भ बांज और बुरांश के जंगल को पार
करते ही बेदिनी बुग्याल का मनमोहक दृश्य चित्त को लुभाने लगता है। मीलों तक फैली घास तथा नाना प्रकार के खूबसूरत फूलों से फूटती सुगन्ध का स्पर्श कर इठलाती हवा जैसे साँस-साँस में रम जाती है। बुग्याल के बीचों बीच में स्थित वैतरणी नाम का ताल भारतीय संस्कृति की दिव्य धरोहर बन गया। यहाँ 4×4 फीट के आकार वाले लघु मन्दिरों की श्रृंखला पर्यटक को श्रद्धा एवं भक्ति से सरोबार कर देती है।
यहां गणेश की प्रतिमा विश्व में अद्वितीय
बेदिनी के बाद चढ़ाई बिल्कुल सपाट और तीव्र हो जाती है। कहीं-कहीं तो पगडंडी के दोनों ओर हजारों फुट गहरी खाई है। रात्रि पड़ाव के लिए पाथर नचौणियाँ सर्वाधिक उपयुक्त स्थल है। यहाँ लुढ़की पड़ी तीन चट्टानों में परिलक्षित पूर्ण स्त्री आकृतियाँ रूपकुण्ड से जुड़कर उसके रहस्य को और भी अधिक गहरा देती है। पाथर नचौणियाँ के बाद प्रारम्भ होती है एकदम घुमावदार विकट चढ़ाई। जिस पर बिना पर्याप्त अनुभव के चढ़ना अत्यन्त दुष्कर है। राह में पड़ते हैं कैलो विनायक। किसी आदि कलाकार द्वारा चट्टान के निपट काले भाग को तराशकर निर्मित की गयी यह गणेश प्रतिमा, सम्भवतः विश्व में अद्वितीय है।
रूपकुंड यहां हैं मानव अस्थियां
रूपकुंड यहाँ से छ: किलोमीटर दूर है। कहते हैं कि नंदापार्वती एक बार जब इस पर्वतमाला के निर्जन क्षेत्र में शंकरजी के साथ भ्रमण कर रही थीं, तो सहसा उन्हें प्यास लगी। आस-पास में पानी का कहीं नामो-निशान तक न था, तब भगवान शंकर ने अपने त्रिशूल के प्रहार से पर्वत का सीना छेदकर रूपकुंड का निर्माण कर डाला। इस झील के किनारे पड़े मानव कंकाल आज भी देखे जा सकते हैं। बीसीं शताब्दी में कुछ विद्वानों द्वारा रूपकुंड से चुनकर लाये गये नर कंकालों का वैज्ञानिक परीक्षण किया गया था, जिसके आधार पर इन मानव अस्थियों को 750 वर्ष पूर्व की बताया गया था।
कंकालों की कहानी
एक दंतकथा बताती है कि राजा और रानी की कहानी। सदियों पुरानी इस झील के पास ही नंदा देवी का मंदिर है। पहाड़ों की देवी के दर्शन के लिए एक राजा और रानी ने पहाड़ चढ़ने की ठानी। वो अकेले नहीं गए। अपने साथ लाव-लश्कर ले कर गए। रास्ते भर धमा-चौकड़ी मचाई। राग-रंग में डूबे हुए सफर तय किया। ये देख देवी गुस्सा हो गईं। उनका क्रोध बिजली बनकर उन पर गिरा और वो वहीं मौत के मुंह में समा गए।
ये भी हैं किवदंती
कहने वाले ये भी कहते हैं कि ये किसी महामारी के शिकार लोग थे। कुछ लोग कहते थे ये आर्मी वाले लोग हैं जो बर्फ के तूफ़ान में फंस गए। इंडिया टुडे में छपी रिपोर्ट के मुताबिक़ लोगों का मानना था कि ये अस्थियां कश्मीर के जनरल जोरावर सिंह और उनके आदमियों की हैं। जो 1841 में तिब्बत के युद्ध से लौट रहे थे। 1942 में पहली बार एक ब्रिटिश फॉरेस्ट गार्ड को ये कंकाल दिखे थे। उस समय ये माना गया था कि ये जापानी सैनिकों के कंकाल हैं जो द्वितीय विश्व युद्ध में वहां के रास्ते जा रहे थे और वहीं फंस कर रह गए।
शोध में ये भी दिए गए तर्क
पहले माना गया था कि इन कंकालों में एक समूह एक परिवार का था। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक स्टडी की गई। उसकी रिपोर्ट में इन बातों का पता चला।
-71 कंकालों के टेस्ट हुए। इनमें से कुछ की कार्बन डेटिंग हुई। कुछ का डीएनए जांचा गया। कार्बन डेटिंग एक टेस्ट है जिससे पता चलता है कि कोई भी अवशेष कितना पुराना है।
-पता चला कि ये सब कंकाल एक समय के नहीं हैं। अलग-अलग नस्लों के हैं। इनमें महिलाओं और पुरुषों दोनों के कंकाल पाए गए। अधिकतर जो कंकाल मिले, उन पर की गई स्टडी से पता चला कि जिन व्यक्तियों के ये कंकाल थे, वे अधिकतर स्वस्थ ही रहे होंगे।
-यह भी पाया गया कि इन कंकालों में आपस में कोई सम्बन्ध तो नहीं था। पहले वैज्ञानिकों ने इनमें से एक समूह को एक परिवार का माना था। रीसर्च में मिले डेटा से ये बात साफ हुई कि ये लोग परिवारों का हिस्सा नहीं रहे होंगे। क्योंकि इनके डीएनए के बीच कोई भी समानता वाला कारक नहीं मिला।
-जांच में इन कंकालों में कोई बैक्टीरिया या बीमारी पैदा करने वाले कीटाणुओं के अवशेष नहीं मिले। इससे संभावना कम है कि इनकी मौत की महामारी की वजह से हुई।
-इनमें से अधिकतर भारत और उसके आस-पास के देशों के कंकाल हैं। इन्हें साउथ ईस्ट एशिया के समूह में रखा गया। कुछ इनमें से ग्रीस के इलाके की तरफ के पाए गए। एक कंकाल चीन की तरफ के इलाके का भी बताया जा रहा है।
-ये सभी कंकाल एक साथ एक समय पर वहां इकठ्ठा नहीं हुए। जो भारत और आस-पास के इलाकों वाले कंकाल हैं, वो सातवीं से दसवीं शताब्दी के बीच वहां पहुंचे थे। ग्रीस और आस-पास के इलाके वाले कंकाल सत्रहवीं से बीसवीं शताब्दी के बीच वहां पहुंचे। जो कंकाल चीन के आस-पास का बताए गए, वो भी बाद के ही समय में वहां पहुंचे।
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लेखक का परिचय
लेखक देवकी नंदन पांडे जाने माने इतिहासकार हैं। वह देहरादून में टैगोर कालोनी में रहते हैं। उनकी इतिहास से संबंधित जानकारी की करीब 17 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कुमाऊं के निवासी पांडे लंबे समय से देहरादून में रह रहे हैं।