पढ़िए साहित्यकार सोमवारी लाल सकलानी की दो कविताएं
यह जीवन भी क्या रहस्य है !
मन कितना खुश होता है !
जब मिल जाते हैं,अपने लोग।
हृदय हिलोरें भरता है,
जब दिखते हैं ,अपने लोग।
दिल मिल जाते हैं,जिनसे
बन जाते हैं वे,अपने लोग।
नहीं जाति,धरम का बंधन
ऩहीं रिश्ते-नाते का बोध।
कर्म क्षेत्र में रिश्ते बन जाते
बन जाते हैं वे अपने लोग।
संकीर्णतायें मर मिट जाती हैं
जब लगते हैं सब अपने लोग।
यह जीवन भी क्या रहस्य है !
कब मिल जाएं, अपने लोग।
मन दर्पण के समीप बैठ कर,
प्रकट हो जाते हैं,अपने लोग।
तेरी दुनिया ही कितनी है।
दम्भी मानव मनचक्षु से देख !
तेरी दुनिया ही कितनी है?
क्यो इतराता है तू इतना
तेरी सीमाएं ही कितनी हैं?
बेवकूफ समझकर सृष्टि को
अंधा दोहन करता है।
छद्म प्रर्दशन धोका दकर
निशि दिनधोखा खाता है।
यह कुदरत है बड़ी अनोखी
क्यो बाघ बन खाता है।
देख दाँत जीभ तू अपनी
क्यो हिंसक बन जीता है।
मानव होने का मूल्य समझ ले
बरना फ़िर पछताएगा।
छोटी सी अपनी दुनिया मे
कर्मों का फ़ल पायेगा।
कवि का परिचय
सोमवारी लाल सकलानी, निशांत ।
सुमन कॉलोनी चंबा, टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।