पढ़िए साहित्यकार दीनदयाल बन्दूणी की गढ़वाली कविता
एक – हैंक म , बोलद रै गिवां.
अफी छकी , अफि पकी गिवां.
क्या पायि-क्या ख्वायी, अबतक-
तोलदा- मोलदा , अफतैं रै गिवां..
दुन्या कख बटि , कख बढिगे.
क्वी ऐबरेस्ट , क्वी चांद चढिगे.
हम सगोड़ि म , गबेयूं मूळा सी –
कुछ-कुछ जमिगे , कुछ सड़िगे..
हमरि सोच , हमी तक रैग्या.
हमतैं कोल़णौं, कुड़ाॅबुड खैग्या.
जरा-तरा कुछ, बच्यूं-खुच्यूं छौ –
वे तैं , कितली – कंटर पेग्या..
बात बड़ीं कन , खड़ा – खड़ी.
रासन – पाॅड़ीं , दौड़ा – दौड़ी.
भितरौं , भांडा बजड़ाॅ छन –
हुईं देखा- सेकि , उठा- पोड़ी..
फसगा रैगीं , बड़ी – बड़ीं.
पक्यां चखुला उड़ैं, खड़ा-खड़ीं.
रीति – नीति की , बात न पूछा –
बात पीछा , दिखै जंदी तड़ीं..
सौ – समाज कू , मोल़ लग्यूंच.
भितरा पर्वाण , भैर भग्यूंच.
चुंच्या-खुंच्या , धर्वाण-पर्वाण –
दुया कु चार , हूंण लग्यूंच..
‘दीन’ ! समझ , तैं सोच जगौ.
कंटर – कितली , दूर भगौ.
हूंणी- बांणी , करड़ि – कमांड़ीं-
पाणौं म चलि , नैं हवा बगौ..
कवि का परिचय
नाम .. दीनदयाल बन्दूणी ‘दीन’
गाँव.. माला भैंसोड़ा, पट्टी सावली, जोगीमढ़ी, पौड़ी गढ़वाल।
वर्तमान निवास-शशिगार्डन, मयूर बिहार, दिल्ली।
दिल्ली सरकार की नौकरी से वर्ष 2016 में हुए सेवानिवृत।
साहित्य
सन् 1973 से कविता लेखन। कई कविता संग्रह प्रकाशित।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।