पढ़िए साहित्यकार दीनदयाल बन्दूणी की गढ़वाली कविता-जीवन जींणा चाह
” जीवन जींणा चाह “
बरसौं , जीवन जींणा बाद बि,
ज्यू की धीत , किलै नी भ्वरदी.
रूखू – सूखू , जीवन जी पर –
जींणा की चाह , किलै नी म्वरदी..
साल- दर- साल , कम नी हूंदा,
द्याखा अफ बटी, अफी बिट्वाळा.
इके धांण करि , भितनै उकरा –
ज्यूम टट्वाळा , स्वाचा – त्वाला..
अजांण – भोलू सि , बचपन जी,
खुचल्यूं – घूघ्यूं , खूब रिट्वां.
साल भरम सीख , ग्वाया लगांणू –
सालौं- साल , नुक- छुक हिट्वां..
पड़ै – लिखै वळु , बचपन आई,
सालौं , बोऴख्या – पाटि उठाई.
कबि जांणू , कबि भाजी आंणू –
कनु रंगिलु-पिंगलू , बचपन छाई..
जऱा-ज़रा करि, बढदा गवां हम,
मौज – मस्ती का , दिन ऐगीं.
अपड़ी रंगत , पंगत अलग ह्वे –
छ्वारौं कछड़ी , अलगम लैगीं..
खेल – खेल म , ज्वनि कब आयी,
बात याबि कुछ , समझि नि पायी.
बोर्ड का इम्त्यान , जब सिर ऐन –
तब जैकी , कुछ समझम आयी..
पढ़ै पूरि ह्वा , भिंडि सालौं म,
अब स्वीणौं की , बारी आयी.
बनि- बनि स्वीणां , आंद- जांद रैं-
खुशी मील कबि, ज्यू छऴि ग्यायी..
सालौं साल कि , तांण – प्राण म,
नौकरि लग , ह्वे खैंचा – तांणीं.
इनैं ब्वे – बाब , उनैं नौंना – नौंनी –
कैन कैकी बि , बात नि मांणीं..
सालौं खैंचा-तणि करि, ब्यो ह्वेगे,
अब जीवन म , हैंकू ही रंग लैगे.
साल- द्वी साल म , बदली जीवन-
नौंना- बाऴौं की , जुमेवरि ऐगे..
इनम – कनम ह्वे , ज्वनी सयांणी,
भाग- दौड़ अब , भिंडी बढि ग्या.
हंसि – खेल्यूं अर् , दैन – झैऴ्यूंम –
सगत ! ज्वनी , सरपट बुढि ग्या.
जीवन की , यूं उठा – पोड़्यूं म,
चट – पट , बगत पचासी आय.
वा रौनक , वा मनमौज – मतंगी –
जऱा – ज़रा करि , पिछनै ह्वाय..
दाड़ि – बाऴौं म , सफेदि ऐगे,
झिऴमिळाट करि , देखिड़ लैगे.
कबि दाॅतौं म , कबि ऑतौं म –
कुछ- कुछ चुबण, बिनाॅण बैठीगे..
‘दीन’ बाप कि जुमेवरि, बेटा फिर ऐ,
सबका जीवन म , इनि घटदै आय.
घड़ी नि अटगी , आज तलक बि-
घड़ि – घड़ि या घड़ी , चल़दै राय..
कवि का परिचय
नाम .. दीनदयाल बन्दूणी ‘दीन’
गाँव.. माला भैंसोड़ा, पट्टी सावली, जोगीमढ़ी, पौड़ी गढ़वाल।
वर्तमान निवास-शशिगार्डन, मयूर बिहार, दिल्ली।
दिल्ली सरकार की नौकरी से वर्ष 2016 में हुए सेवानिवृत।
साहित्य
सन् 1973 से कविता लेखन। कई कविता संग्रह प्रकाशित।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।